श्री मंगलाष्टक स्तोत्र अर्थ सहित। – Mangalashtak Stotra Arth Sahit

श्री मंगलाष्टक स्तोत्र अर्थ सहित ( Mangalashtak Stotra Arth Sahit)

पञ्च परमेष्ठी हमारा मंगल करे 

अरिहन्तो-भगवन्त इन्द्रमहिता: सिद्धाश्च सिद्धीश्वरा:,

आचार्या: जिनशासनोन्नतिकरा: पूज्या उपाध्यायका: |

श्रीसिद्धान्त-सुपाठका: मुनिवरा: रत्नत्रयाराधका:,

पंचैते परमेष्ठिन: प्रतिदिनं कुर्वन्तु ते मंगलम् ||

अर्थ : इंद्रों द्वारा जिनकी पूजा की गई ऐसे अरिहंत भगवान, सिद्धि के स्वामी ऐसे सिद्ध भगवान, जिन शासन को प्रकाशित करने वाले ऐसे आचार्य, सिद्धांत को सुव्यवस्थित पढ़ाने वाले ऐसे उपाध्याय, रत्नत्रय के आराधक ऐसे साधु ये पाँचों परमेष्ठी प्रतिदिन हमारे पापों को नष्ट करे और हमें सुखी करे।

पञ्च परमेष्ठी सभी का मंगल करे 

श्रीमन्नम्र – सुरासुरेन्द्र – मुकुट – प्रद्योत – रत्नप्रभा-

भास्वत्पाद – नखेन्दव: प्रवचनाम्भोधीन्दव: स्थायिन:|

ये सर्वे जिन-सिद्ध-सूर्यनुगतास्ते पाठका: साधव:,

स्तुत्या योगीजनैश्च पंचगुरव: कुर्वन्तु ते मंगलम् ||१||

अर्थ : शोभायुक्त और नमस्कार करते हुए देवेन्द्रों और असुरेन्द्रों के मुकुटों के चमकदार रत्नों की कान्ति से जिनके श्री चरणों के नखरूपी चन्द्रमा की ज्योति स्फुरायमान हो रही है।  और जो प्रवचन रूप सागर की वृद्धि करने के लिए स्थायी चन्द्रमा है एवं योगीजन जिनकी स्तुति करते रहते है, ऐसे अरिहंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय और साधु ये पाँचों परमेष्ठी तुम्हारे पापो को क्षालित करे और तुम्हे सुखी करे।। १ ।।

सच्चा रत्नत्रय धर्म, जिनवाणी, जिनबिम्ब और जिनालय हमारा मंगल करे 

सम्यग्दर्शन – बोध – वृत्तममलं रत्नत्रयं पावनं,

मुक्तिश्री – नगराधिनाथ – जिनपत्युक्तोऽपवर्गप्रद:|

धर्म-सूक्तिसुधा च चैत्यमखिलं चैत्यालयं श्रयालयं,

प्रोक्तं च त्रिविधं चतुर्विधममी कुर्वन्तु ते मंगलम् ||२||

(अर्थ : निर्मल सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान, और सम्यकचारित्र यह पवित्र रत्नत्रय है।  श्री सम्पन्न मुक्तिनगर के स्वामी भगवान् जिनदेव ने इसे अपवर्ग ( मोक्ष ) को देने वाला धर्म कहा है।  इस प्रकार जो यह तीन प्रकार का धर्म कहा गया है वह तथा इसके साथ सुक्तिसुधा ( जिनागम ), समस्त जिन – प्रतिमा और लक्ष्मी का आधारभूत जिनालय मिलकर चार प्रकार का धरम कहा गया है।  वह हमारे पापों को नष्ट करे और हमें सुखी करे।। २ ।।

मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ शलाका पुरुष हमारा मंगल करे 

नाभेयादि जिनाधिपास्त्रिभुवन ख्याताश्चतुर्विंशति:,

श्रीमन्तो भरतेश्वर – प्रभृतयो ये चक्रिणो द्वादश |

ये विष्णु – प्रतिविष्णु – लांगलधरा: सप्तोत्तरा विंशति:,

त्रैकाल्ये प्रथितास्त्रिषष्टिपुरुषा: कुर्वन्तु ते मंगलम् ||३||

अर्थः तीनो लोको में विख्यात और बाह्य तथा आभ्यन्तर लक्ष्मी संपन्न ऋषभनाथ भगवान् आदि चौबीस तीर्थंकर, श्रीमान भरतेश्वर आदि 12 चक्रवर्ती, नव नारायण, नव प्रतिनारायण और नव बलभद्र ये 63 शलाका महापुरुष तुम्हारे पापों का क्षय कर और तुम्हे सुखी करे ।।३।।

ऋद्धिधारी ऋषि महाराज हम सब का मंगल करे 

ये सर्वोषधऋद्धय: सुतपसो वृद्धिंगता: पञ्च ये,

ये चाष्टांग – महानिमित्त – कुशला येऽष्टौ-विधाश्चारणा:|

पञ्चज्ञानधरास्त्रयोऽपि बलिनो ये बुद्धि – ऋद्धीश्वरा:,

सप्तैते सकलार्चिता गणभृत: कुर्वन्तु ते मंगलम् ||४||

अर्थ : सभी औषधि ऋद्धिधारी, उत्तम तप ऋद्धिधारी, अवधृत क्षेत्र से भी दूरवर्ती विषय के आस्वादन दर्शन, स्पर्शन, घ्राण और श्रवण की समर्थता की ऋद्धि के धारी, अष्टांग महानिमित्त विज्ञता की ऋद्धि के धारी, आठ प्रकार की चारण ऋद्धि के धारी, पाँच प्रकार के ज्ञान की ऋद्धि के धारी, तीन प्रकार के बलों की ऋद्धि के धारी और बुद्धि ऋद्धिश्वर, ये सातों जगत्पूज्य गणनायक तुम्हारे पापों को क्षालित करे और तुम्हे सुखी बनावे।  बुद्धि, क्रिया, विक्रिया, तप, बल,औषध, रस और क्षेत्र के भेद से ऋद्धियों के आठ भेद है ।। ४ ।।

तीनों लोक के अकृत्रिम चैत्यालय हमारा मंगल करे 

ज्योतिर्व्यन्तर – भावनामरगृहे मेरौ कुलाद्रौ तथा ,

जम्बू-शाल्मलि – चैत्य – शाखिषु तथा वक्षार रूप्याद्रिषु |

इष्वाकारगिरौ च कुण्डलनगे द्वीपे च नन्दीश्वरे,

शैले ये मनुजोत्तरे जिनगृहा: कुर्वन्तु ते मंगलम् ||५||

अर्थ : ज्योतिषी, व्यंतर, भवनवासी और वैमानिको के आवासो के, मेरुओ, कुलाचलों, जम्बू वृक्षों और शाल्मलीवृक्षों, वक्षारों, विजयार्धों, पर्वतों इक्ष्वाकार पर्वतों, कुण्डल पर्वत, नन्दीश्वर द्वीप, और मानुषोत्तर पर्वत ( तथा रुचिक वर पर्वत ) के सभी अकृत्रिम जिन चैत्यालय तुम्हारे पापों का क्षय करे और तुम्हे सुखी बनावे ।। ५  ।।

श्री निर्वाण क्षेत्र हम सभी का मंगल करे 

कैलासे वृषभस्य निर्वृतिमही वीरस्य पावापुरे,

चम्पायां वसुपूज्यसज्जिनपते: सम्मेदशैलेऽर्हताम् |

शेषाणामपि चोर्जयन्तशिखरे नेमीश्वरस्यार्हतो,

निर्वाणावनय: प्रसिद्धविभवा: कुर्वन्तु ते मंगलम् ||६||

अर्थ : भगवान ऋषभदेव की निर्वाणभूमि कैलाश पर्वत पर है।  महावीर स्वामी की पावापुर में है।  वासुपूज्य स्वामी की चम्पापुरी में है।  नेमिनाथ स्वामी की उर्जयन्त ( गिरनार ) पर्वत के शिखर पर और शेष बीस तीर्थंकरों की निर्वाण भूमि श्री सम्मेदशिखर पर्वत पर है, जिनका अतिशय और वैभव विख्यात है।  ऐसी ये सभी निर्वाण भूमियां तुम्हे निष्पाप बना दे और तुम्हे सुखी करे ।। ६ ।।

तीर्थंकरों के पञ्च कल्याणकों की महिमा सब का मंगल करे 

यो गर्भावतरोत्सवो भगवतां यो जन्माभिषेकोत्सवो,

यो जात: परिनिष्क्रमेण विभवो य: केवलज्ञानभाक् |

य: कैवल्यपुर – प्रवेश – महिमा संपादित: स्वर्गिभि:,

कल्याणानि च तानि पंच सततं कुर्वन्तु ते मंगलम् ||७||

अर्थ :  तीर्थंकरों के गर्भकल्याणक, जन्माभिषेक कल्याणक, दीक्षा कल्याणक, केवलज्ञान कल्याणक और कैवल्यपुर प्रवेश ( निर्वाण ) कल्याणक के देवो द्वारा संभावित महोत्सव तुम्हे सर्वदा मांगलिक रहे ।। ७ ।।

श्री धर्म के प्रभाव से सबका मंगल हो 

सर्पोहार-लता भवति असिलता, सत्पुष्पदामायते,

सम्पद्येत रसायनं विषमपि प्रीतिं विधत्ते रिपु:|

देवा: यान्ति वशं प्रसन्नमनस: किं वा बहु ब्रूमहे,

धर्मादेव नभोऽपि वर्षति नगै: कुर्वन्तु ते मंगलम् ||८||

अर्थ : धर्म के प्रभाव से सर्प माला बन जाता है, तलवार फूलों समान कोमल बन जाती है, विष अमृत बन जाता है और देवता प्रसन्न मन से धर्मात्मा के वश में हो जाते है।  अधिक क्या कहे धर्म से ही आकाश से रत्नों की वर्षा होने लगती है वही धर्म तुम सबका कल्याण करे ।। ८ ।।

मंगलाष्टक स्तोत्र के पाठ पढ़ने का फल

इत्थं श्रीजिन-मंगलाष्टकमिदं सौभाग्य-सम्पत्प्रदं,

कल्याणेषु महोत्सवेषु सुधियस्तीर्थंकराणामुष:|

ये श्रृण्वन्ति पठन्ति तैश्च सुजनै: धर्मार्थ-कामान्विता:,

लक्ष्मीराश्रयते व्यपाय-रहिता निर्वाण-लक्ष्मीरपि ||

अर्थ : सौभाग्यसंपत्ति को प्रदान करने वाले इस श्री जिनेन्द्र मंगलाष्टक को जो सुधी तीर्थंकरों के पंचकल्याणक के महोत्सवों के अवसर पर तथा प्रभातकाल में भावपूर्वक सुनते और पढ़ते है, वे सज्जन धर्म, अर्थ, और काम से समन्वित लक्ष्मी के आश्रय बनते है और पश्चात अविनश्वर मुक्तिलक्ष्मी को भी प्राप्त करते है।