5 रचनाकारों की रचना | सामायिक पाठ संस्कृत – हिन्दी | Samayik Path |

जैन दर्शन में सामायिक पाठ ( Samayik Path ) का विशेष महत्व बताया गया है। यह दिन में 3 बार का करने का विधान बताया गया है।  अपने मन के परिणामों को स्थिर करने का नाम सामायिक है। सामायिकपाठ  का अपरनाम भावना द्वात्रिंशतिका है। क्यूंकि इसके मूल पाठ में 32 ( द्वात्रिंशतिका ) श्लोक है। मूलरचनाकार आचार्य श्री अमितगति जी ने बहुत ही सुन्दरतम काव्य की रचना की है।  परन्तु कालदोष के कारण या अल्पज्ञान होने से यह संस्कृत में होने से पढ़ना मुश्किल है जानकर अन्य रचनाकारों ने जैसे कि :- क्षुल्लक श्री ध्यान सागर जी, कविश्री युगलजी बाबू जी, कवि श्री रामचरित उपाध्याय आदि ने हिन्दी में इस स्तोत्र की रचना हम सभी जीवों के लिए की है।  जो कि अपने आप में अद्भुत एवं अद्वितीय है।

श्री अमितगति-सूरि-विरचित ‘भावना-द्वात्रिंशतिका’ (Samayik Path )

सत्त्वेषु मैत्रीं गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा-परत्वम्‌।
माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ,सदा ममात्मा विदधातु देव ॥1॥

शरीरत: कर्त्तुमनन्त-शक्ति, विभिन्‍नमात्मानमपास्त-दोषम्‌।
जिनेन्द्र! कोषादिव खड़्ग-यष्टिं,तव प्रसादेन ममाऽस्तु शक्ति: ॥2॥

दुःखे सुखे वैरिणि बन्धुवर्गं, योगे वियोगे भवने वने वा।
निराकृताशेष-ममत्वबुद्धे: समं मनोमेऽस्तु सदाऽपि नाथ ! ॥3॥

मुनीश!लीनाविव कीलिताविव, स्थिरौ निखाताविव बिम्बिताविव।
पादौ त्वदीयौ मम तिष्ठतां सदा, तमोधुनानौ हृदि दीपकाविव ॥4॥

एकेन्द्रियाद्या यदि देव! देहिन:, प्रमादत: संचरता इतस्तत:।
क्षता विभिनना मिलिता निपीडितास्‌, तदस्तु मिथ्या दुरनुष्ठितं तदा ॥5॥

विमुक्तिमार्ग-प्रतिकूलवर्तिना, मया कषायाक्षवशेन दुर्धिया।
चारित्रशुद्धेर्यदकारि लोपनं, तदस्तु मिथ्या मम दुष्कृतं प्रभो! ॥6॥

विनिन्दनाऽऽलोचन-गर्हणैरहं, मनोवचःकायकषाय-निर्मितम्‌।
निहन्मि पापं भवदुःखकारणं, भिषग्विषं मन्त्रगुणैरिवाखिलम्‌ ॥7॥

अतिक्रमं यद्विमतेव्यरतिक्रमं, जिनातिचारं सुचरित्रकर्मणः
व्यधामनाचारमपि प्रमादत:, प्रतिक्रमं तस्य करोमि शुद्धये ॥8॥

क्षतिं मनः शुद्धि-विधेरतिक्रमं, व्यतिक्रमं शील-व्रतेर्वीलङ्घनं ।
प्रभोऽतिचारं विषयेषु वर्तनं वदन्त्यनाचारमिहातिसक्तताम्‌ ॥9॥

यदर्थमात्रा-पदवाक्यहीनं, मया प्रमादाद्यदि किञ्चनोक्तम्‌।
तन्मे क्षमित्वा विदधातु देवी, सरस्वती केवलबोधलब्धिम्‌ ॥10॥

बोधि: समाधि: परिणामशुद्धि:, स्वात्मोपलब्धि: शिवसौख्यसिद्धि:।
चिन्तामणिं चिन्तितवस्तुदाने, त्वां वन्द्यमानस्य ममास्तु देवि! ॥11॥

यः स्मर्यते सर्वमुनीन्द्रवृन्दे, र्य: स्तुयते सर्वनरामरेन्द्रे:।
यो गीयते वेदपुराणशास्त्रैः, स देवदेवो ह्रदये ममास्तां ॥12॥

यो दर्शनज्ञानसुखस्वभाव:, समस्त संसार-विकारबाह्य:।
समाधिगम्य: परमात्मसंज्ञ:, स देवदेवो ह्रदये ममास्ताम् ॥13॥

निषूदते यो भवदुःखजालं, निरीक्षते यो जगदन्तरालम।
योऽन्तर्गतो योगिनिरीक्षणीय:, स देवदेवो ह्रदये ममास्ताम् ॥14॥

विमुक्तिमार्गप्रतिपादको यो, यो जन्ममृत्युव्यसनातीत:।
त्रिलोकलोकी विकलोऽकलंक: स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ‌॥15॥

क्रोडीकृताऽशेष-शरीरिवर्गा, रागादयो यस्य न सन्ति दोषा:।
निरिन्द्रियो ज्ञानमयोऽनपाय:, स देवदेवो हृदये ममास्ताम्‌ ॥16॥

यो व्यापको विश्वजनीनवृत्ते, सिद्धो विबुद्धो धुतकर्मबन्ध:।
ध्यातो धुनीते सकलं विकारं, स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ‌॥17॥

न स्पृश्यते कर्मकलंकदोषै यो ध्वांतसङ्घेरिव तिग्मरशिम:।
निरंजनं नित्यमनेकमेकं, तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ॥18॥

विभासते यत्र मरीचिमाली, न विद्यमाने भुवनावभासी।
स्वात्मस्थितं बोधमयप्रकाशं, तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ॥19॥

विलोक्यमाने सति यत्र विश्व, विलोक्यते स्पष्टमिद विविक्तम्‌।
शुद्धं शिवं शान्तमनाद्यनन्तं, तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ॥20॥

येन क्षता मन्मथमानमूर्च्छा, विषादनिद्राभय-शोक-चिंता:।
क्षतोऽनलेनेव तरुप्रपञ्चस‌, तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ॥21॥

न संस्तरोऽश्मा न तृणं न मेदिनी, विधानतो नो फलको विनिर्मित:।
यतो निरस्ताक्षकषाय-विद्विष:, सुधीभिरात्मैवसुनिर्मलो मत: ॥22॥

न संस्तरो भद्र! समाधिसाधनं, न लोकपूजा न च सङ्घमेलनम्‌।
यतस्ततोऽध्यात्मरतो भवानिशं, विमुच्य सर्वामपि बाह्यवासनाम्‌ ॥23॥

न सन्ति बाह्मा मम केचनार्था भवामि तेषां न कदाचनाहम्‌।
इत्थं विनिश्चित्य विषुच्य बाह्यं, स्वस्थ: सदा त्वं भव भद्र! मुक्तयै ॥24॥

आत्मानमात्मन्यवलोक मानस्‌ त्वं दर्शनज्ञानययों विशुद्ध:।
एकाग्रचित्त: खलु यत्र तत्र, स्थितोऽपि साधुर्लभते समाधिम्‌ ॥25॥

एक: सदा शाश्वतिको ममात्मा, विनिर्मल: साधिगमस्वभाव:।
बहिर्भवा: सन्त्यपरे समस्ता, नशाश्वता: कर्मभवा: स्वकीया: ॥26॥

यस्यास्ति नेक्यम वपुषापि सार्द्धं, तस्यास्ति किं पुत्र-कलत्र-मित्रे:।
पृथक्कृते चर्मणि रोमकूपा:, कुतो हि तिष्ठन्ति शरीरमध्ये ॥27॥

संयोगतो दुःखमनेकभेदं, यतोऽशनुते जन्मवने शरीरी।
तत्स्त्रीधासौ परिवर्जनीयो, यियासुना निर्वृत्तमात्मनीनाम्‌ ॥28॥

सर्व निराकृत्य विकल्प-जालं, संसार-कान्तार निपातहेतुम्‌।
विविक्तमात्मानमवेक्षय-माणो, निलीयसे त्वं परमात्मतत्वे ॥29॥

स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फल तदीयं लभते शुभाशुभम।
परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा ॥30॥

निजार्जितं कर्म विहाय देहिनो, न कोऽपि कस्यापि ददाति किञ्चन।
विचारयन्नेव-मनन्यमानस:, परो ददातीति विमुञ्च शेमुषीम्‌ ॥31॥

येः परमात्माऽमितगतिवन्ध:, सर्वविविक्तो भृशमनवद्य:।
शश्वदधीतो मनसि लभन्ते, मुक्तिनिकेतं विभववरं ते ॥32॥

इति द्वात्रिंशतावृत्तै:, परमात्मानमीक्षते।
योऽनन्यगत-चेतस्को, यात्यसौ पदमव्ययम्‌॥


श्री अमितगति-सूरि-विरचित ‘भावना-द्वात्रिंशतिका’ का पद्यानुवाद

कविश्री रामचरित उपाध्याय कृत ( Samayik Path) 

नित देव! मेरी आत्मा, धारण करे इस नेम को,
मैत्री रहे सब प्राणियों से, गुणी-जनों से प्रेम हो |
उन पर दया करती रहे, जो दु:ख-ग्राह-ग्रहीत हैं,
सम-भाव उन सबसे रहे, जो वृत्ति में विपरीत हैं ||१||

करके कृपा कुछ शक्ति ऐसी, दीजिए मुझमें प्रभो !
तलवार को ज्यों म्यान से, करते विलग हैं हे विभो !!
गतदोष आत्मा शक्तिशाली, है मिली मम-अंग से,
उसको विलग उस भाँति करने के लिये ऋजु-ढंग से ||२||

हे नाथ! मेरे चित्त में, समता सदा भरपूर हो,
सम्पूर्ण ममता की कुमति, मेरे हृदय से दूर हो |
वन में भवन में दु:ख में, सुख में नहीं कुछ भेद हो,
अरि-मित्र में मिलने-बिछड़ने, में न हर्ष न खेद हो ||३||

अतिशय-घनी तम-राशि को, दीपक हटाते हैं यथा,
दोनों कमल-पद आपके, अज्ञान-तम हरते तथा |
प्रतिबिम्ब-सम स्थिररूप वे, मेरे हृदय में लीन हों,
मुनिनाथ! कीलित-तुल्य वे, उर पर सदा आसीन हों ||४||

यदि एक-इन्द्रिय आदि देही, घूमते-फिरते मही,
जिनदेव! मेरी भूल से, पीड़ित हुए होवें कहीं |
टुकड़े हुए हों मल गये हों, चोट खाये हों कभी,
तो नाथ! वे दुष्टाचरण, मेरे बने झूठे सभी ||५||

सन्मुक्ति के सन्मार्ग से, प्रतिकूल-पथ मैंने लिया,
पंचेन्द्रियों चारों कषायों, में स्व-मन मैंने किया |
इस हेतु शुद्ध-चरित्र का, जो लोप मुझ से हो गया,
दुष्कर्म वह मिथ्यात्व को हो, प्राप्त प्रभु! करिए दया ||६||

चारों कषायों से वचन-मन, काय से जो पाप है-
मुझसे हुआ, हे नाथ! वह, कारण हुआ भव-ताप है |
अब मारता हूँ मैं उसे, आलोचना-निन्दादि से,
ज्यों सकल-विष को वैद्यवर, है मारता मंत्रादि से ||७||

जिनदेव! शुद्ध-चारित्र का, मुझसे अतिक्रम जो हुआ,
अज्ञान और प्रमाद से व्रत, का व्यतिक्रम जो हुआ |
अतिचार और अनाचरण, जो-जो हुए मुझसे प्रभो |
सबकी मलिनता मेटने को, प्रतिक्रमण करता विभो ||८||

मन की विमलता नष्ट होने, को ‘अतिक्रम’ है कहा,
औ’ शीलचर्या के विलंघन, को ‘व्यतिक्रम’ है कहा |
हे नाथ! विषयों में लिपटने, को कहा अतिचार है,
आसक्त अतिशय-विषय में, रहना महाऽनाचार है ||९||

यदि अर्थ-मात्रा-वाक्य में, पद में पड़ी त्रुटि हो कहीं,
तो भूल से ही वह हुई, मैंने उसे जाना नहीं |
जिनदेव वाणी! तो क्षमा, उसको तुरत कर दीजिये,
मेरे हृदय में देवि! केवलज्ञान को भर दीजिये ||१०||

हे देवि! तेरी वंदना मैं, कर रहा हूँ इसलिये,
चिन्तामणि-सम है सभी, वरदान देने के लिए |
परिणाम-शुद्धि समाधि, मुझमें बोधि का संचार हो,
हो प्राप्ति स्वात्मा की तथा, शिवसौख्य की भव-पार हो ||११||

मुनिनायकों के वृंद जिसको, स्मरण करते हैं सदा,
जिसका सभी नर-अमरपति भी, स्तवन करते हैं सदा |
सच्छास्त्र वेद-पुराण जिसको, सर्वदा हैं गा रहे,
वह देव का भी देव बस, मेरे हृदय में आ रहे ||१२||

जो अंतरहित सुबोध-दर्शन, और सौख्य-स्वरूप है,
जो सब विकारों से रहित, जिससे अलग भवकूप है |
मिलता बिना न समाधि जो, परमात्म जिसका नाम है,
देवेश वर उर आ बसे, मेरा खुला हृद्धाम है ||१३||

जो काट देता है जगत् के, दु:ख-निर्मित जाल को,
जो देख लेता है जगत् की, भीतरी भी चाल को |
योगी जिसे हैं देख सकते, अंतरात्मा जो स्वयम्,
देवेश! वह मेरे हृदय-पुर, का निवासी हो स्वयम् ||१४||

कैवल्य के सन्मार्ग को, दिखला रहा है जो हमें,
जो जन्म के या मरण के, पड़ता न दु:ख-सन्दोह में |
अशरीर है त्रेलोक्यदर्शी, दूर है कुकलंक से,
देवेश वह आकर लगे, मेरे हृदय के अंक से ||१५||

अपना लिया है निखिल तनुधारी-निबह ने ही जिसे,
रागादि दोष-व्यूह भी, छू तक नहीं सकता जिसे |
जो ज्ञानमय है नित्य है, सर्वेन्द्रियों से हीन है,
जिनदेव देवेश्वर वही, मेरे हृदय में लीन है ||१६||

संसार की सब वस्तुओं में, ज्ञान जिसका व्याप्त है,
जो कर्म-बन्धन-हीन बुद्ध, विशुद्ध-सिद्धि प्राप्त है |
जो ध्यान करने से मिटा, देता सकल-कुविकार को,
देवेश वह शोभित करे, मेरे हृदय-आगार को ||१७||

तम-संघ जैसे सूर्य-किरणों, को न छू सकता कहीं,
उस भाँति कर्म-कलंक दोषाकर जिसे छूता नहीं |
जो है निरंजन वस्त्वपेक्षा, नित्य भी है, एक है,
उस आप्त-प्रभु की शरण मैं, हूँ प्राप्त जो कि अनेक है ||१८||

यह दिवस-नायक लोक का, जिसमें कभी रहता नहीं,
त्रैलोक्य-भाषक-ज्ञान-रवि, पर है वहाँ रहता सही |
जो देव स्वात्मा में सदा, स्थिर-रूपता को प्राप्त है,
मैं हूँ उसी की शरण में, जो देववर है आप्त है ||१९||

अवलोकने पर ज्ञान में, जिसके सकल-संसार ही-
है स्पष्ट दिखता एक से, है दूसरा मिलकर नहीं |
जो शुद्ध शिव है शांत भी है, नित्यता को प्राप्त है,
उसकी शरण को प्राप्त हूँ, जो देववर है आप्त है ||२०||

वृक्षावलि जैसे अनल की, लपट से रहती नहीं,
त्यों शोक मन्मथ मान को, रहने दिया जिसने नहीं |
भय मोह नींद विषाद, चिन्ता भी न जिसको व्याप्त है,
उसकी शरण में हूँ गिरा, जो देववर है आप्त है ||२१||

विधिवत् शुभासन घास का, या भूमि का बनता नहीं,
चौकी शिला को ही शुभासन, मानती बुधता नहीं |
जिससे कषायें-इन्द्रियाँ, खटपट मचाती हैं नहीं,
आसन सुधीजन के लिये, है आत्मा निर्मल वही ||२२||

हे भद्र! आसन लोक-पूजा, संघ की संगति तथा,
ये सब समाधी के न साधन, वास्तविक में है प्रथा |
सम्पूर्ण बाहर-वासना को, इसलिये तू छोड़ दे,
अध्यात्म में तू हर घड़ी, होकर निरत रति जोड़ दे ||२३||

जो बाहरी हैं वस्तुएँ, वे हैं नहीं मेरी कहीं,
उस भाँति हो सकता कहीं उनका कभी मैं भी नहीं |
यो समझ बाहयाडम्बरों को, छोड़ निश्चितरूप से,
हे भद्र! हो जा स्वस्थ तू, बच जाएगा भवकूप से ||२४||

निज को निजात्मा-मध्य में, ही सम्यगवलोकन करे,
तू दर्शन-प्रज्ञानमय है, शुद्ध से भी है परे |
एकाग्र जिसका चित्त है, तू सत्य उसको मानना |
चाहे कहीं भी हो समाधि-प्राप्त उसको जानना ||२५||

मेरी अकेली आत्मा, परिवर्तनों से हीन है,
अतिशय-विनिर्मल है सदा, सद्ज्ञान में ही लीन है |
जो अन्य सब हैं वस्तुएँ, वे ऊपरी ही हैं सभी,
निज-कर्म से उत्पन्न हैं, अविनाशिता क्यों हो कभी ||२६||

है एकता जब देह के भी, साथ में जिसकी नहीं,
पुत्रादिकों के साथ उसका, ऐक्य फिर क्यों हो कहीं |
जब अंग-भर से मनुज के, चमड़ा अलग हो जायगा,
तो रोंगटों का छिद्रगण, कैसे नहीं खो जायगा ||२७||

संसाररूपी गहन में है, जीव बहु-दु:ख भोगता,
वह बाहरी सब वस्तुओं, के साथ कर संयोगता |
यदि मुक्ति की है चाह तो, फिर जीवगण! सुन लीजिये,
मन से वचन से काय से, उसको अलग कर दीजिये ||२८||

देही! विकल्पित-जाल को, तू दूरकर दे शीघ्र ही,
संसार-वन में डोलने का, मुख्य-कारण है यही |
तू सर्वदा सबसे अलग, निज-आत्मा को देखना,
परमात्मा के तत्त्व में तू, लीन निज को लेखना ||२९||

पहले समय में आत्मा ने, कर्म हैं जैसे किए,
वैसे शुभाशुभ-फल यहाँ, पर इस समय उसने लिए |
यदि दूसरे के कर्म का, फल जीव को हो जाय तो,
हे जीवगण! फिर सफलता, निज-कर्म की ही जाय खो ||३०||

अपने उपार्जित कर्म-फल, को जीव पाते हैं सभी,
उसके सिवा कोई किसी को, कुछ नहीं देता कभी |
ऐसा समझना चाहिये, एकाग्र-मन होकर सदा,
‘दाता अवर है भोग का’, इस बुद्धि को खोकर सदा ||३१||

सबसे अलग परमात्मा है, ‘अमितगति’ से वन्द्य है,
हे जीवगण! वह सर्वदा, सब भाँति ही अनवद्य है |
मन से उसी परमात्मा को, ध्यान में जो लाएगा,
वह श्रेष्ठ-लक्ष्मी के निकेतन, मुक्ति-पद को पाएगा ||३२||

(दोहा)
पढ़कर इन द्वात्रिंश-पद्य को, लखता जो परमात्मवंद्य को |
वह अनन्यमन हो जाता है, मोक्ष-निकेतन को पाता है ||


Samayik Path हिंदी पद्यानुवाद – क्षुल्लक ध्यान सागर जी महाराजSamayik Path Kshullak Shri Dhyan Sagar Ji

 

मेरा आतम सब जीवों पर मैत्री भाव करे
गुणगणमंडित भव्य जनों पर प्रमुदित भाव धरे |
दीन दुखी जीवों पर स्वामी! करुणाभाव करे
और विरोधी के ऊपर नित समताभाव धरे ||1||

तुम प्रसाद से हो मुझमे वह शक्ति नाथ! जिससे
अपने शुद्ध अतुल बलशाली चेतन को तन से |
पृथक कर सकूं पूर्णतया मैं जो योद्धा रण में
खीचें जिन तलवार म्यान से रिपु सन्मुख क्षण में ||2||

छोड़ा है सब में अपनापन मैंने मन मेरा
बना रहे नित सुख में दुःख में समता का डेरा |
शत्रु-मित्र में, मिलन-विरह में, भवन और वन में
चेतन को जाना न पड़े फिर नित नूतन तन में ||3||

अंधकार नाशक दीपक-सम अडिग चरण तेरे
अहो! विराजे रहें हमेशा उर ही में मेरे |
हों मुनीश! वे घुले हुए से या कीलित जैसे
अथवा खुदे हुए से हों या प्रतिबिम्ब जैसे ||4||

हो प्रमाद वश जहाँ-तहां यदी मैंने गमन किया
एकेंद्रिय आदिक जीवों को घायल बना दिया |
पृथक किया हो या भिड़ा दिया हो अथवा दबा दिया
मिथ्या हो दुष्कृत वो मेरा प्रभुपद शीश किया ||5||

चल विरुद्ध शिव-पथ के मैंने जो दुर्मति होके
होके वश में दुष्ट इन्द्रियों और कषायों के |
खंडित को जो चरित्र-शुद्धी वह दुष्कृत निष्फल हो
मेरा मन भी दुर्भावों को तजकर निर्मल हो ||6||

मन्त्र शक्ति से वैद्य उतारे ज्यों अहि-विष सारा
त्यों अपनी निंदा-गर्हा वा आलोचन द्वारा |
मन वच तन से कषाय से संचित अघ भारी
भव दुःख के कारण नष्ट करूं मैं होकर अविकारी ||7||

धर्म-क्रिया में मुझे लगा जो कोई अघकारी
अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार या अनाचार भारी
कुमति, प्रमाद-निमित्तक उसका प्रतिक्रमण करता
प्रायश्चित्त बिना पापों को कौन कहाँ हरता? ||8||

चित्त शुद्धी की विधि की क्षति को अतिक्रमण कहते
शीलबाड़ के उल्लंघन को व्यतिक्रमण कहते |
त्यक्त विषय के सेवन को प्रभु! अतीचार कहते
विषयासक्तपने को जग में अनाचार कहते ||9||

शास्त्र पठन में मेरे द्वारा यदि जो कहीं- कहीं
प्रमाद से कुछ अर्थ, वाक्य, पद, मात्रा छुट गयी |
सरस्वती मेरी उस त्रुटी को कृपया क्षमा करें
और मुझे कैवल्यधाम में माँ अविलम्ब धरे ||10||

वांछित फलदात्री चिंतामणि सदृश मात! तेरा
वंदन करने वाले मुझको मिले पता मेरा |
बोधि, समाधि, विशुद्ध भावना, आत्मसिद्धि मुझको
मिले और मैं पा जाऊं माँ! मोक्ष-महासुख को ||11||

सब मुनिराजों के समूह भी जिनका ध्यान करें
सुर-नरों के सारे स्वामी जिन गुणगान करें |
वेद, पुराण, शास्त्र भी जिनके गीतों के डेरे
वे देवों के देव विराजें उर में ही मेरे ||12||

जो अनंत-दृग-ज्ञान-स्वरूपी सुख-स्वभाव वाले
भव के सभी विकारों से भी जो रहे निराले |
जो समाधि के विषयभूत हैं परमातम नामी
वे देवों के देव विराजें मम उर में स्वामी ||13||

जो भव दुःख का जाल काट कर उत्तम सुख वरते
अखिल विश्व के अंत: स्थल का अवलोकन करते |
जो निज में लवलीन हुए प्रभु ध्येय योगियों के
वे देवों के देव विराजें मम उर के होके ||14||

मोक्षमार्ग के जो प्रतिपादक सब जग उपकारी
जन्म मरण के संकट आदि से रहित निर्विकारी |
त्रिलोकदर्शी दिव्य-शरीरी सब कलंकनाशी
वे देवों के देव रहें मम उर में अविनाशी ||15||

आलिंगित हैं जिनके द्वारा जग के सब प्राणी
वे रागादिक दोष न जिनके सर्वोत्तम ध्यानी |
इन्द्रिय-रहित परम-ज्ञानी जो अविचल अविनाशी
वे देवों के देव रहें मम उर के ही वासी ||16||

जग-कल्याणी परिणिति से जो व्यापक गुण-राशि
भावी-सिद्ध, विबुद्ध, जिनेश्वर, कर्म-पाप-नाशी |
जिसने ध्येय बनाया उसके सकल-दोष-हारी
वे देवों के देव रहें मम उर में अविकारी ||17||

कर्म कलंक दोष भी जिनको न छूने पाते
ज्यों रवि के सन्मुख न कभी तम समूह आते |
नित्य निरंजन जो अनेक हैं और एक भी हैं
उन अरिहंत देव की मैंने सुखद शरण ली है ||18||

जगतप्रकाश जिनके रहते सूर्य प्रभाधारी
किंचित भी ना शोभा पाता जिनवर अविकारी |
निज आतम में हैं जो सुस्थित स्ग्यं-प्रभाशाली
उन अरिहंत देव की मैंने सुखद शरण पा ली ||19||

जिनका दर्शन पा लेने पर प्रकट झलक आता
अखिल विश्व से भिन्न आतमा जो शाश्वत ज्ञाता |
शुद्ध, शांत, शिवरूप आदि या अंतविहीन बली
उन अरिहंत देव की मुझको अनुपम शरण मिली ||20||

जो मद, मदन, ममत्व, शोक, भय, चिंता, दुःख, निद्रा
जीत चुके हैं निज-पौरुष से कहती जिन-मुद्रा |
ज्यों दावानल तरु-समूह को शीघ्र जला देता
उन अरिहंत देव की मैं भी सुखद शरण लेता ||21||

ना पलाल पाषाण न धरती हैं संस्तर कोई
न विधिपूर्वक रचित काठ का पाटा भी कोई |
कारण, इन्द्रिय वा कषाय रिपु जीते जो ध्यानी
उसका आतम ही शुचि-संस्तर माने सब ज्ञानी ||22||

ना समाधि का साधन संस्तर न ही लोक पूजा
ना मुनि-संघों का सम्मेलन या कोई दूजा |
इसलिए हे भद्र! तुम सदा आत्मलीन बनो
तज बाहर की सभी वासना कुछ ना कहो-सुनो ||23||

पर-पदार्थ कोई ना मेरे थे, होंगे, ना हैं
और कभी उनका त्रिकाल में हो पाउँगा मैं |
ऐसा निर्णय करके पर के चक्कर को छोड़ो
स्वस्थ रहो नित भद्र! मुक्ति से तुम नाता जोड़ो ||24||

तुम अपने में अपना दर्शन करने वाले हो
दर्शन-ज्ञानमयी शुद्धात्म पर से न्यारे हो |
जहाँ कहीं भी बैठे मुनिवर अविचल मन-धारी
वहीँ समाधि लगे उनकी जो उनको अति-प्यारी ||25||

नित एकाकी मेरे आतम नित अविनाशी है
निर्मल दर्शन ज्ञान-स्वरूपी स्व-पर-प्रकाशी है |
देहादिक या रागादिक जो करम जनित दिखते
क्षणभंगुर हैं वे सब मेरे कैसे हो सकते? ||26||

जहाँ देह से एकता नहीं जो जीवनसाथी
वहां मित्र सुत वनिता कैसे हो मेरे साथी |
इस काया के ऊपर से यदी चर्म निकल जाये
रोमछिद्र तब कैसे इसके बीच ठहर पाए ||27||

भव वन में संयोगों से यह संसारी-प्राणी
भोग रहा है कष्ट अनेकों ख न सके वाणी |
अतः त्याज्य है मन वच तन से वह संयोग सदा
उसको, जिसको इष्ट हितैषी मुक्ति विगत विपदा ||28||

भव वन में पड़ने के कारण हैं विकल्प सारे
उनका जाल हटाकर पहुचों शिवपुर के द्वारे |
अपने शुद्धातम का दर्शन तुम करते-करते
लीन रहो परमातम-तत्व में दुखों को हरते ||29||

किया गया जो कर्म पूर्व भव में स्वयं जीव द्वारा
उसका ही फल मिले शुभाशुभ अन्य नहीं चारा |
औरों के कारण यदि प्राणी सुख-दुःख को पाता
तो निज-कर्म अवश्य स्वयं ही निष्फल हो जाता ||30||

अपने अजित कर्म बिना इस प्राणी को जग में
कोई अन्य न सुख-दुःख देता कहीं किसी डग पे |
ऐसा अडिग विचार बना क्र तुम निज को मोड़ो
“अन्य मुझे सुख-दुःख देता है” ऐसी हठ छोड़ो ||31||

परमातम सबसे न्यारे हैं, अतिशय अविकारी
अंत अमितगति से वन्दित हैं शम दम समधारी |
जो भी भव्य मनुज प्रभुवर को निज उर में लाते
वे ही निश्चित उत्तम वैभव मोक्ष महल पाते ||32||

दोहा
जो ध्याता जगदीश को, ले यह पद बत्तीस |
अचल-चित्त होकर वही, बने अचलपद ईश ||33||


Samayik Path अनुवादक – कविश्री युगलजी बाबू जी

प्रेम भाव हो सब जीवों से, गुणीजनोंमें हर्ष प्रभो।
करुणा स्रोत बहे दुखियों पर, दुर्जन में मध्यस्थ विभो॥(1)

यह अनन्त बल शील आत्मा, हो शरीर से भिन्न प्रभो।
ज्यों होती तलवार म्यान से, वह अनन्त बल दो मुझको॥(2)

सुख दुख बैरी बन्धु वर्ग में, काँच कनक में समता हो।
वन उपवन प्रासाद कुटी में नहीं खेद, नहिं ममता हो॥(3)

जिस सुन्दर तम पथ पर चलकर, जीते मोह मान मन्मथ।
वह सुन्दर पथ ही प्रभु मेरा, बना रहे अनुशीलन पथ॥(4)

एकेन्द्रिय आदिक प्राणी की यदि मैंने हिंसा की हो।
शुद्ध हृदय से कहता हूँ वह, निष्फल हो दुष्कृत्य प्रभो॥(5)

मोक्षमार्ग प्रतिकूल प्रवर्तन जो कुछ किया कषायों से।
विपथ गमन सब कालुष मेरे, मिट जावें सद्भावों से॥(6)

चतुर वैद्य विष विक्षत करता, त्यों प्रभु मैं भी आदि उपान्त।
अपनी निन्दा आलोचन से करता हूँ पापों को शान्त॥(7)

सत्य अहिंसादिक व्रत में भी मैंने हृदय मलीन किया।
व्रत विपरीत प्रवर्तन करके शीलाचरण विलीन किया॥(8)

कभी वासना की सरिता का, गहन सलिल मुझ पर छाया।
पी-पीकर विषयों की मदिरा मुझ में पागलपन आया॥(9)

मैंने छली और मायावी, हो असत्य आचरण किया।
परनिन्दा गाली चुगली जो मुँह पर आया वमन किया॥(10)

निरभिमान उज्ज्वल मानस हो, सदा सत्य का ध्यान रहे।
निर्मल जल की सरिता सदृश, हिय में निर्मल ज्ञान बहे॥(11)

मुनि चक्री शक्री के हिय में, जिस अनन्त का ध्यान रहे।
गाते वेद पुराण जिसे वह, परम देव मम हृदय रहे॥(12)

दर्शन ज्ञान स्वभावी जिसने, सब विकार ही वमन किये।
परम ध्यान गोचर परमातम, परम देव मम हृदय रहे॥(13)

जो भव दुख का विध्वंसक है, विश्व विलोकी जिसका ज्ञान।
योगी जन के ध्यान गम्य वह, बसे हृदय में देव महान॥(14)

मुक्ति मार्ग का दिग्दर्शक है, जनम मरण से परम अतीत।
निष्कलंक त्रैलोक्य दर्शी वह देव रहे मम हृदय समीप॥(15)

निखिल विश्व के वशीकरण वे, राग रहे न द्वेष रहे।
शुद्ध अतीन्द्रिय ज्ञान स्वभावी, परम देव मम हृदय रहे॥(16)

देख रहा जो निखिल विश्व को कर्म कलंक विहीन विचित्र।
स्वच्छ विनिर्मल निर्विकार वह देव करें मम हृदय पवित्र॥(17)

कर्म कलंक अछूत न जिसका कभी छू सके दिव्य प्रकाश।
मोह तिमिर को भेद चला जो परम शरण मुझको वह आप्त॥(18)

जिसकी दिव्य ज्योति के आगे, फीका पड़ता सूर्य प्रकाश।
स्वयं ज्ञानमय स्व पर प्रकाशी, परम शरण मुझको वह आप्त॥(19)

जिसके ज्ञान रूप दर्पण में, स्पष्ट झलकते सभी पदार्थ।
आदि अन्तसे रहित शान्तशिव, परम शरण मुझको वह आप्त॥(20)

जैसे अग्नि जलाती तरु को, तैसे नष्ट हुए स्वयमेव।
भय विषाद चिन्ता सब जिसके, परम शरण मुझको वह देव॥(21)

तृण, चौकी, शिल, शैलशिखर नहीं, आत्म समाधि के आसन।
संस्तर, पूजा, संघ-सम्मिलन, नहीं समाधि के साधन॥(22)

इष्ट वियोग अनिष्ट योग में, विश्व मनाता है मातम।
हेय सभी हैं विषय वासना, उपादेय निर्मल आतम॥(23)

बाह्य जगत कुछ भी नहीं मेरा, और न बाह्य जगत का मैं।
यह निश्चय कर छोड़ बाह्य को, मुक्ति हेतु नित स्वस्थ रमें॥(24)

अपनी निधि तो अपने में है, बाह्य वस्तु में व्यर्थ प्रयास।
जग का सुख तो मृग तृष्णा है, झूठे हैं उसके पुरुषार्थ॥(25)

अक्षय है शाश्वत है आत्मा, निर्मल ज्ञान स्वभावी है।
जो कुछ बाहर है, सब पर है, कर्माधीन विनाशी है॥(26)

तन से जिसका ऐक्य नहीं हो, सुत, तिय, मित्रों से कैसे।
चर्म दूर होने पर तन से, रोम समूह रहे कैसे॥(27)

महा कष्ट पाता जो करता, पर पदार्थ, जड़-देह संयोग।
मोक्षमहल का पथ है सीधा, जड़-चेतन का पूर्ण वियोग॥(28)

जो संसार पतन के कारण, उन विकल्प जालों को छोड़।
निर्विकल्प निर्द्वन्द आत्मा, फिर-फिर लीन उसी में हो॥(29)

स्वयं किये जो कर्म शुभाशुभ, फल निश्चय ही वे देते।
करे आप, फल देय अन्य तो स्वयं किये निष्फल होते॥(30)

अपने कर्म सिवाय जीव को, कोई न फल देता कुछ भी।
पर देता है यह विचार तज स्थिर हो, छोड़ प्रमादी बुद्धि॥(31)

निर्मल, सत्य, शिवं सुन्दर है, ‘अमितगति’ वह देव महान।
शाश्वत निज में अनुभव करते, पाते निर्मल पद निर्वाण॥(32)


Samayik Paath – काल-अनंत भ्रम्यो जग में सहये दु:ख-भारी 

प्रथम : प्रतिक्रमण-कर्म

काल-अनंत भ्रम्यो जग में सहये दु:ख-भारी |
जन्म-मरण नित किये पाप को है अधिकारी ||
कोटि-भवांतर माँहिं मिलन-दुर्लभ सामायिक |
धन्य आज मैं भयो योग मिलियो सुखदायक ||१||

हे सर्वज्ञ जिनेश! किये जे पाप जु मैं अब |
ते सब मन-वच-काय-योग की गुप्ति बिना लभ ||
आप-समीप हजूर माँहिं मैं खड़ो-खड़ो सब |
दोष कहूँ सो सुनो करो नठ दु:ख देहिं जब ||२||

क्रोध-मान-मद-लोभ-मोह-मायावशि प्रानी |
दु:ख-सहित जे किये दया तिनकी नहिं आनी ||
बिना-प्रयोजन एकेंद्रिय वि-ति-चउ-पंचेंद्रिय |
आप-प्रसादहि मिटे दोष जो लग्यो मोहि जिय ||३||

आपस में इकठौर थापकरि जे दु:ख दीने |
पेलि दिये पगतले दाब करि प्रान हरीने ||
आप जगत् के जीव जिते तिन सबके नायक |
अरज करूँ मैं सुनो दोष-मेटो दु:खदायक ||४||

अंजन आदिक चोर महा-घनघोर पापमय |
तिनके जे अपराध भये ते क्षमा-क्षमा किय ||
मेरे जे अब दोष भये ते क्षमहु दयानिधि |
यह पडिकोणो कियो आदि षट्कर्म-माँहिं विधि ||१५||

द्वितीय : प्रत्याख्यान-कर्म

(इसके आदि या अंत में ‘आलोचना-पाठ’ बोलकर फिर तीसरे सामायिक भाव-कर्म का पाठ करना चाहिए।)

जो प्रमादवशि होय विराधे जीव घनेरे |
तिन को जो अपराध भयो मेरे अघ ढेरे ||
सो सब झूठो होउ जगत्-पति के परसादै |
जा प्रसाद तें मिले सर्व-सुख दु:ख न लाधे ||६||

मैं पापी निर्लज्ज दया-करि हीन महाशठ |
किये पाप अतिघोर पापमति होय चित्त-दुठ ||
निंदूँ हूँ मैं बार-बार निज-जिय को गरहूँ हूँ|
सबविधि धर्म-उपाय पाय फिर-फिर पापहि करूं हूँ ||७||

दुर्लभ है नर-जन्म तथा श्रावक-कुल भारी |
सत-संगति संयोग-धर्म जिन-श्रद्धाधारी ||
जिन-वचनामृत धार सभाव तें जिनवानी |
तो हू जीव संघारे धिक् धिक् धिक् हम जानी ||८||

इन्द्रिय-लंपट होय खोय निज-ज्ञान जमा सब |
अज्ञानी जिमि करै तिसि-विधि हिंसक ह्वे अब ||
गमनागमन करंता जीव विराधे भोले |
ते सब दोष किये निंदूँ अब मन-वच तोले ||९||

आलोचन-विधि थकी दोष लागे जु घनेरे |
ते सब दोष-विनाश होउ तुम तें जिन मेरे ||
बार-बार इस भाँति मोह-मद-दोष कुटिलता |
र्इर्षादिक तें भये निंदि ये जे भयभीता ||१०||

तृतीय : सामायिक-भाव-कर्म

अब जीवन में मेरे समता-भाव जग्यो है |
सब जिय मो-सम समता राखो भाव लग्यो है ||
आर्त्त-रौद्र द्वय-ध्यान छाँड़ि करिहूँ सामायिक |
संजम मो कब शुद्ध होय यह भाव-बधायक ||११||

पृथिवी-जल अरु अग्नि-वायु चउ-काय वनस्पति |
पंचहि थावर-माँहिं तथा त्रस-जीव बसें जित ||
बे-इंद्रिय तिय-चउ-पंचेद्रिय-माँहिं जीव सब |
तिन तें क्षमा कराऊँ मुझ पर क्षमा करो अब ||१२||

इस अवसर में मेरे सब सम कंचन अरु तृण |
महल-मसान समान शत्रु अरु मित्रहि सम-गण ||
जामन-मरण समान जानि हम समता कीनी |
सामायिक का काल जितै यह भाव नवीनी ||१३||

मेरो है इक आतम तामें ममत जु कीनो |
और सबै मम भिन्न जानि समता रस भीनो ||
मात-पिता सुत-बंधु मित्र-तिय आदि सबै यह |
मो तें न्यारे जानि जथारथ-रूप कर्यो गह ||१४||

मैं अनादि जग-जाल-माँहिं फँसि रूप न जाण्यो |
एकेंद्रिय दे आदि जंतु को प्राण-हराण्यो ||
ते सब जीव-समूह सुनो मेरी यह अरजी |
भव-भव को अपराध छिमा कीज्यो कर मरजी ||१५||

चतुर्थ : स्तवन-कर्म

नमौं ऋषभ जिनदेव अजित जिन जीति कर्म को |
सम्भव भव-दु:ख-हरण करण अभिनंद शर्म को ||
सुमति सुमति-दातार तार भव-सिंधु पारकर |
पद्मप्रभ पद्माभ भानि भवभीति प्रीतिधर ||१६||

श्रीसुपार्श्व कृत पाश-नाश भव जास शुद्ध कर |
श्री चंद्रप्रभ चंद्रकांति-सम देह-कांतिधर ||
पुष्पदंत दमि दोष-कोष भविपोष रोषहर |
शीतल शीतलकरण हरण भवताप-दोषहर ||१७||

श्रेयरूप जिन-श्रेय ध्येय नित सेय भव्यजन |
वासुपूज्य शतपूज्य वासवादिक भवभय-हन ||
विमल विमलमति-देन अन्तगत है अनंत-जिन |
धर्म शर्म-शिवकरण शांतिजिन शांति-विधायिन ||१८||

कुंथु कुंथुमुख-जीवपाल अरनाथ जालहर |
मल्लि मल्लसम मोहमल्ल-मारन प्रचारधर ||
मुनिसुव्रत व्रतकरण नमत सुर-संघहि नमि जिन |
नेमिनाथ जिन नेमि धर्मरथ माँहि ज्ञानधन ||१९||

पार्श्वनाथ जिन पारस-उपल-सम मोक्ष रमापति |
वर्द्धमान जिन नमूँ वमूँ भवदु:ख कर्मकृत ||
या-विधि मैं जिन संघरूप चउबीस-संख्यधर |
स्तवूँ नमूँ हूँ बारबार वंदूँ शिव-सुखकर ||२०||

पंचम : वंदना-कर्म

वंदूँ मैं जिनवीर धीर महावीर सु सन्मति |
वर्द्धमान अतिवीर वंदिहूँ मन-वच-तन-कृत ||
त्रिशला-तनुज महेश धीश विद्यापति वंदूँ |
वंदूँ नितप्रति कनकरूप-तनु पाप निकंदु ||२१||

सिद्धारथ-नृप-नंद द्वंद-दु:ख-दोष मिटावन |
दुरित-दवानल ज्वलित-ज्वाल जगजीव-उधारन ||
कुंडलपुर करि जन्म जगत्-जिय आनंदकारन |
वर्ष बहत्तर आयु पाय सब ही दु:खटारन ||२२||

सप्तहस्त-तनु तुंग भंग-कृत जन्म मरण-भय |
बालब्रह्ममय ज्ञेय-हेय-आदेय ज्ञानमय ||
दे उपदेश उधारि तारि भवसिंधु-जीव घन |
आप बसे शिवमाँहि ताहि वंदूं मन-वच-तन ||२३||

जाके वंदन-थकी दोष-दु:ख दूरहि जावे |
जाके वंदन-थकी मुक्ति-तिय सन्मुख आवे ||
जाके वंदन-थकी वंद्य होवें सुर-गन के |
ऐसे वीर जिनेश वंदिहूँ क्रम-युग तिनके ||२४||

सामायिक-षट्कर्म-माँहि वंदन यह पंचम |
वंदूं वीर जिनेंद्र इंद्र-शत-वंद्य वंद्य मम ||
जन्म-मरण-भय हरो करो अब शांति शांतिमय |
मैं अघ-कोष सुपोष-दोष को दोष विनाशय ||२५||

छठा : कायोत्सर्ग-कर्म

कायोत्सर्ग-विधान करूँ अंतिम-सुखदार्इ |
काय त्यजन-मय होय काय सबको दु:खदार्इ ||
पूरब-दक्षिण नमूँ दिशा पश्चिम-उत्तर में |
जिनगृह-वंदन करूँ हरूँ भव-पाप-तिमिर मैं ||२६||

शिरोनति मैं करूँ नमूँ मस्तक कर धरिके |
आवर्तादिक-क्रिया करूँ मन-वच-मद हरिके ||
तीनलोक जिन-भवन-माँहिं जिन हैं जु अकृत्रिम |
कृत्रिम हैं द्वय-अर्द्धद्वीप-माँहीं वंदूं जिन ||२७||

आठ कोड़ि परि छप्पन लाख जु सहस सत्याणूं |
च्यारि शतक-पर असी एक जिनमंदिर जाणूं ||
व्यंतर-ज्योतिष-माँहिं संख्य-रहिते जिनमंदिर |
ते सब वंदन करूँ हरहु मम पाप संघकर ||२८||

सामायिक-सम नाहिं और कोउ वैर-मिटायक |
सामायिक-सम नाहिं और कोउ मैत्रीदायक ||
श्रावक-अणुव्रत आदि अन्त सप्तम-गुणथानक |
यह आवश्यक किये होय निश्चय दु:ख-हानक ||२९||

जे भवि आतम-काज-करण उद्यम के धारी |
ते सब काज-विहाय करो सामायिक सारी ||
राग-रोष-मद-मोह-क्रोध-लोभादिक जे सब |
‘बुध महाचंद्र’ विलाय जाय ता तें कीज्यो अब ||३०||

 


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