परमात्माछत्तीसी। भैया भगवतीदास जी कृत

परमात्माछत्तीसी ( Parmatma Chattisi ) की सुंदरतम रचना श्री भैया भगवती दास जी द्वारा की गयी है। यह ब्रह्मविलास ग्रन्थ से।

परमात्माछत्तीसी

भैया भगवतीदास जी कृत

(दोहा)
परम देव परमातमा, परम ज्योति जगदीश ॥
परम भाव उर आनके, प्रणमत हों नमि शीश ॥ १ ॥

एक जु चेतन द्रव्य है, तिनमें तीन प्रकार ॥
बहिरातम अन्तर तथा, परमातम पदसार ॥ २ ॥

बहिरातम ताको कहै, लखै न ब्रह्म स्वरूप ॥
मग्न रहै परद्रव्यमें, मिथ्यावंत अनूप ॥ ३ ॥

अंतर आतम जीव सो, सम्यग्दृष्टी होय ॥
चौथै अरु पुनि बारवें, गुणथानक लों सोय ॥ ४ ॥

परमातम पद ब्रह्मको, प्रगट्यो शुद्ध स्वभाय ॥
लोकालोक प्रमान सब, झलकै जिनमें आय ॥ ५ ॥

बहिरातमास्वभाव तज, अंतरातमा होय ॥
परमातम पद भजत है, परमातम ह्वै सोय ॥ ६ ॥

परमातम सो आतमा, और न दूजो कोय ॥
परमातमको ध्यावते, यह परमातम होय ॥ ७ ॥

परमातम यह ब्रह्म है, परम ज्योति जगदीश ॥
पर सों भिन्न निहारिये, जोइ अलख सोइ ईश ॥ ८ ॥

जो परमातम सिद्धमें, सो ही या तन माहिं ॥
मोह मैल दृग लंगि रह्यो, तातैं सूझैं नाहिं ॥ ९ ॥

मोह मैल रागादिको, जा छिन कीजे नाश ॥
ता छिन यह परमातमा, आपहि लहै प्रकाश ॥ १० ॥

आतम सो परमातमा, परमातम सो सिद्ध ॥
बीचकी दुविधा मिटगई, प्रगट भई निज रिद्ध ॥ ११ ॥

मैंहि सिद्ध परमातमा, मैं ही आतमराम ॥
मैं ही ज्ञाता ज्ञेय को, चेतन मेरो नाम ॥ १२ ॥

मै अनंत सुख को धनी, सुखमय मोर स्वभाय ॥
अविनाशी आनंदमय, सो हों त्रिभुवन राय ॥ १३ ॥

शुद्ध हमारो रूप है, शोभित सिद्ध समान ।।
गुण अनंतकर संजुगत चिदानंद भगवान ॥ १४ ॥

जैसो शिव खेतहि बसै, तैसो या तनमाहिं ॥
निश्चय दृष्टि निहारतें, फेर रंच कहुँ नाहिं ॥ १५ ॥

कर्मनके संयोगतें, भये तीन परकार ॥
एक आतमा द्रव्यको, कर्म नचावन हार ॥ १६ ॥

कर्म संघाती आदिके, जोर न कछू बसाय ॥
पाई कला विवेककी, राग द्वेष विन जाय ॥ १७ ॥

कर्मनकी जर राग है, राग जरे जर जाय ॥
प्रगट होत परमातमा, भैया सुगम उपाय ॥ १८॥

काहे को भटकत फिरै, सिद्ध होन के काज ॥
राग द्वेष को त्यागदे, ‘भैया’ सुगम इलाज ॥ १९ ॥

परमातम पदको धनी, रंक भयो विललाय ॥
राग द्वेषकी प्रीतिसों, जनम अकारथ जाय ॥ २० ॥

राग द्वेष की प्रीति तुम, भूलि करो जिन रंच ॥
परमातम पद ढांकके, तुमहिं किये तिरजंच ॥ २१ ॥

जप तप संयम सब भलो, राग द्वेष जो नाहिं ॥
राग द्वेष के जागते, ये सब सोये जांहिं ॥ २२ ॥

राग द्वेषके नाश तें, परमातम परकाश ॥
राग द्वेष के भासतें, परमातम पद नाश ॥ २३ ॥

जो परमातम पद चहै, तो तू राग निवार ॥
देख सयोगी स्वामि को, अपने हिये विचार ॥ २४ ॥

लाख बात की बात यह, तोकों दई बताय ॥
जो परमातम पद चहै, राग द्वेष तज भाय ॥ २५ ॥

राग द्वेषके त्याग बिन, परमातम पद नाहिं ॥
कोटिकोटि जपतप करो, सबहि अकारथ जाहिं ॥ २६ ॥

दोष आतमा को यहै, राग द्वेष के संग ॥
जैसें पास मजीठके, वस्त्र और ही रंग ॥ २७ ॥

तैसें आतम द्रव्यको, राग-द्वेष के पास ॥
कर्म रंग लागत रहै, कैसें लहै प्रकाश ॥ २८ ॥

इन कर्मनको जीतिबो, कठिन वात है मीत ॥
जड़ खोदै विन नहिं मिटै, दुष्टजाति विपरीत ॥ २९ ॥

लल्लोपत्तो ¹ के किये, ये मिटवे के नाहिं ॥
ध्यान अग्नि परकाशकें, होम देहु तिहि माहिं ॥ ३० ॥

ज्यों दारूके गंजको ², नर नहिं सकै उठाय ॥
तनक आग संयोगतैं, छिन इकमें उड़ि जाय ॥ ३१ ॥

देह सहित परमातमा, यह अचरजकी बात ॥
राग द्वेष के त्यागतैं, कर्म शक्ति जर जात ॥ ३२ ॥

परमातम के भेद द्वय, निकल सकल परमान ॥
सुख अनंत में एकसे, कहिवे को द्वय थान ॥ ३३ ॥

भैया वह परमातमा, सो ही तुममें आहि ॥
अपनी शक्ति सम्हारिके, लखो वेग ही ताहि ॥ ३४ ॥

राग द्वेष को त्याग के, धर परमातम ध्यान ॥
ज्यों पावे सुख संपदा, भैया इम कल्यान ॥ ३५ ॥

संवत विक्रम भूप को, सत्रहसे पंचास ॥
मार्गशीर्ष रचना करी, प्रथम पक्ष दुति जास ॥ ३६ ॥

इति परमात्माछत्तीसी ।

उक्त रचना में प्रयुक्त हुए कुछ शब्दों के अर्थ

1- टालटूल ; 2- ढेर को