पंच परम पद वंदना करों । बारह भावना। Barah Bhavna

भैया भगवती दास जी कृत बारह भावना ( पंच परम पद वंदना करों ) । साभार : बृहद आध्यात्मिक संग्रह ।

बारह भावना 

पंच परम पद वंदना करों, मन वच भाव सहित उर धरों ।
बारह भावन पावन जान, भाऊँ आतम गुण पहिचान ॥१ ॥

थिर नहिं दीखहिं नैननि वस्त, देहादिक अरु रूप समस्त ।
थिर बिन नेह कौन सों करों, अथिर देख ममता परिहरौ ॥२ ॥

असरन तोहि सरन नहिं कोय, तीन लोक महिं दृग धर जोय ।
कोउ न तेरो राखनहार, कर्मन बस चेतन निरधार ॥३ ॥

अरु संसार भावना एहु पर द्रव्यन सों कीजे नेह।
तू चेतन वे जड़ सरवंग, तातें तजहु परायो संग ॥४ ॥

एक जीव तू आप त्रिकाल, ऊरध मध्य भवन पाताल ।
दूजो कोउ न तेरो साथ, सदा अकेलो फिरहिं अनाथ ॥५ ॥

भिन्न सदा पुद्गलतैं रहे भ्रमबुद्धितें जड़ता गहे।
वे रूपी पुद्गल के खंध, तू चिन्मूरत सदा अबंध ॥६॥

अशुचि देख देहादिक अङ्ग, कौन कुवस्तु लगी तो सङ्ग ।
अस्थी माँस रुधिर गद गेह, मल मूतन लखि तजहु सनेह ॥७ ॥

आस्रव पर सों कीजे प्रीत, तातैं बंध बढ़हिं विपरीत।
पुद्गल तोहि अपनयो नाहिं, तू चेतन वे जड़ सब औहि ॥८ ॥

संवर पर को रोकन भाव, सुख होवे को यही उपाव ।
आवे नहीं नये जहाँ कर्म, पिछले रुकि प्रगटै निजधर्म ॥९ ॥

थिति पूरी है खिर- खिर जाहिं, निर्जर भाव अधिक अधिकाहिं ।
निर्मल होय चिदानन्द आप, मिटै सहज परसङ्ग मिलाप ॥ १० ॥

लोक माँहि तेरी कछु नाहिं, लोक आन तुम आन लखाहिं ।
वह षट् द्रव्यन को सब धाम, तू चिनमूरति आतमराम ॥ ११ ॥

दुर्लभ परद्रव्यनि को भाव, सो तोहि दुर्लभ है सुनिराव ।
जो तेरो है ज्ञान अनन्त, सो नहिं दुर्लभ सुनो महन्त ॥ १२ ॥

धर्म सु आप स्वभाव हि जान, आप स्वभाव धर्म सोई मान ।
जब वह धर्म प्रगट तोहि होय, तब परमातम पद लखि सोय ॥१३॥

ये ही बारह भावन सार, तीर्थङ्कर भावहिं निरधार ।
है वैराग महाव्रत लेहिं, तब भव छमन जलाँजुलि देहिं ॥ १४ ॥

‘भैय्या’ भावहु भाव अनूप, भावत होहु चरित शिवभूप ।
सुख अनन्त विलसह निश दीस, इम भाख्यो स्वामी जगदीस ॥१५ ॥