छहढाला | बुधजन जी | द्यानतराय जी | दौलतराम जी | Chahdhala

छहढाला (Chahdhala ) : यह ग्रन्थ अपने आप में जीवों को सही मार्ग दिखाने वाला एक सरलतम ग्रन्थ है।  जिसकी ज्ञान शैली भाषा के कारण ही ये सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है। आज हम सभी भव्य जीवों के हेतु तीन महान ज्ञानी कवियों पंडित श्री बुधजन जी, कवि श्री द्यानतराय जी, एवं पंडित प्रवर श्री दौलतराम जी द्वारा रचित रचना प्रस्तुत करने का एक नन्हा -सा प्रयास।  आशा है आप लाभान्वित होंगे।

छहढाला बुधजन जी कृत 

( मङ्गलाचरण )

सर्व द्रव्य में सार, आतम को हितकार हैं।
नमो ताहि चितधार, नित्य निरंजन जानके ॥

द्यानतराय जी पहली ढ़ाल

आयु घटे तेरी दिन-रात, हो निश्चिंत रहो क्यों भ्रात ।
यौवन तन धन किंकर नारि, हैं सब जल बुदबुद उनहारि ॥१ ॥

पूरण आयु बढ़े छिन नाहिं, दिये कोटि धन तीरथ मांहि ।
इन्द्र चक्रपति हू क्या करें, आयु अन्त पर वे हू मरैं ॥ २ ॥

यो संसार असार महान, सार आप में आपा जान।
सुख से दुख, दुख से सुख होय, समता चारों गति नहिं कोय ॥३ ॥

अनंतकाल गति-गति दुख लह्यो, बाकी काल अनंतो कह्यो।
सदा अकेला चेतन एक, तो माहीं गुण वसत अनेक ॥४ ॥

तू न किसी का तेरा न कोय, तेरा सुख दुख तोकों होय ।
याते तोकों तू उर धार, पर द्रव्यनतें ममत निवार ॥५ ॥

हाड़ मांस तन लिपटी चाम, रुधिर मूत्र-मल पूरित धाम ।
सो भी थिर न रहे क्षय होय, याको तजे मिले शिव लोय ॥ ६ ॥

हित अनहित तन कुलजन माहिं, खोटी बानि हरो क्यों नाहिं |
याते पुद्गल – करमन जोग, प्रणवे दायक सुख-दुख रोग ॥७॥

पांचों इन्द्रिन के तज फैल, चित्त निरोध लाग शिव-गैल ।
तुझमें तेरी तू करि सैल, रहो कहा हो कोल्हू बैल ॥८ ॥

तज कषाय मन की चल चाल, ध्यावो अपनो रूप रसाल।
झड़े कर्म-बंधन दुखदान, बहुरि प्रकाश केवलज्ञान ॥ ९ ॥

तेरो जन्म हुआ नहिं जहां, ऐसा खेतर नाहीं कहाँ ।
याही जन्म भूमिका रची, चलो निकसि तो विधि से बचो ॥१० ॥

सब व्यवहार क्रिया को ज्ञान, भयो अनंती बार प्रधान ।
निपट कठिन ‘अपनी’ पहिचान, ताको पावत होत कल्याण ॥ ११ ॥

धर्म स्वभाव आप सरधान, धर्म न शील न न्हौन न दान।
‘बुधजन’ गुरु की सीख विचार, गहो धाम आतम सुखकार ॥१२ ॥

छहढाला दूसरी ढाल

सुन रे जीव कहत हूँ तोकों, तेरे हित के काजैं।
हो निश्चल मन जो तू धारे, तब कछु-इक तोहि लाजे ॥
जिस दुख से थावर तन पायो, वरन सकों सो नाहीं ।
अठदश बार मरो अरु जीयो, एक स्वास के माहीं ॥ १ ॥

काल अनतानंत रह्यो यों, पुनि विकलत्रय हूवो ।
बहुरि असैनी निपट अज्ञानी, छिनछिन जीओ मूवो ॥
ऐसे जन्म गयो करमन-वश, तेरो जोर न चाल्यो ।
पुन्य उदय सैनी पशु हूवो बहुत ज्ञान नहिं भाल्यो ॥२ ॥

जबर मिलो तब तोहि सतायो, निबल मिलो ते खायो।
मात तिया सम भोगी पापी, तातें नरक सिधायो ॥
कोटिन बिच्छू काटत जैसे ऐसी भूमि तहाँ है।
रुधिर – राध-परवाह बहे जहां, दुर्गन्ध निपट तहाँ है ॥ ३ ॥

घाव करै असिपत्र अंग में, शीत उष्ण तन गाले।
कोई काटे करवत कर गह, कोई पावक जालैं ॥
यथायोग सागर – थिति भुगते, दुख को अंत न आवे ।
कर्म विपाक इसो ही होवे, मानुष गति तब पावै ॥४ ॥

मात उदर में रहो गेंद है, निकसत ही बिललावे।
डंभा दांत गला विष फोटक डाकिन से बच जावे ॥
तो यौवन में भामिनि के संग, निशि-दिन भोग रचावे ।
अंधा हैं धंधे दिन खोवै, बूढ़ा नाड़ हिलावे ॥५ ॥

जम पकड़े तब जोर न चाले, सैनहि सैन बतावै ।
मंद कषाय होय तो भाई, भवनत्रिक पद पावै ॥
पर की संपति लखि अति झूरे, कै रति काल गमावै ।
आयु अंत माला मुरझावै, तब लखि लखि पछतावें ॥६॥

तह तैं चयकर थावर होता, रुलता काल अनन्ता ।
या विध पंच परावृत पूरत, दुख को नाहीं अन्ता ॥
काललब्धि जिन गुरु- कृपा से, आप आप को जाने ।
तबही ‘बुधजन’ भवदधि तिरके, पहुँच जाय शिव-थाने ॥७॥

छहढाला तीसरी ढाल

इस विधि भववन के माहिँ जीव, वश मोह गहल सोता सदीव।
उपदेश तथा सहजै प्रबोध, तबही जागे ज्यों उठत जोध ॥ १ ॥

जब चितवत अपने माहिं आप, हूँ चिदानन्द नहिं पुन्य- पाप ।
मेरो नाहीं है राग भाव, यह तो विधिवश उपजै विभाव ॥२॥

हूँ नित्य निरंजन सिध समान, ज्ञानावरणी आच्छाद ज्ञान ।
निश्चय सुध इक व्यवहार भेव, गुण गुणी अंग-अंगी अछेव ॥३ ॥

मानुष सुर नारक पशुपर्याय, शिशु युवा वृद्ध बहुरूप काय।
धनवान दरिद्री दास राय, ये तो विडम्ब मुझको न भाय ॥४ ॥

रस फरस गन्ध वरनादि नाम मेरे नाहीं मैं ज्ञानधाम ।
मैं एकरूप नहिं होत और मुझमें प्रतिबिम्बत सकल ठौर ॥५ ॥

तन पुलकित उर हरषित सदीव, ज्यों भई रंकगृह निधि अतीव ।
जब प्रबल अप्रत्याख्यान थाय, तब चित परिणति ऐसी उपाय ॥ ६ ॥

सो सुनो भव्य चित धार कान, वरणत हूँ ताकी विधि विधान ।
सब करै काज घर माहिं वास, ज्यों भिन्न कमल जल में निवास ॥७ ॥

ज्यों सती अंग माहीं सिंगार, अति करत प्यार ज्यों नगर नारि ।
ज्यों धाय चखावत आन बाल, त्यों भोग करत नाहीं खुशाल ॥८ ॥

जब उदय मोह चारित्र भाव, नहिं होत रंच हू त्याग भाव ।
तहाँ करै मंद खोटी कषाय, घर में उदास हो अथिर थाय ॥९ ॥

सबकी रक्षा युत न्याय नीति, जिनशासन गुरु की दृढ़ प्रतीति ।
बहु रुले अर्द्ध पुद्गल प्रमान, अंतर मुहूर्त ले परम थान ॥१० ॥

वे धन्य जीव धन भाग सोय, जाके ऐसी परतीत होय ।
ताकी महिमा है स्वर्ग लोय, बुधजन भाषे मोतैं न होय ॥ ११ ॥

छहढाला चौथी ढाल

ऊग्यो आतम सूर, दूर भयो मिथ्यात तम ।
अब प्रगटे गुणभूर, तिनमें कछु इक कहत हूँ ॥ १ ॥

शंका मन में नाहिं, तत्त्वारथ सरधान में।
निरवांछा चित माहिं, परमारथ में रत रहै ॥२ ॥

नेक न करत गिलान, बाह्य मलिन मुनि तन लखे।
नाही होत अजान, तत्त्व कुतत्त्व विचार में ॥३॥

उर में दया विशेष, गुण प्रकटैं औगुण ढके।
शिथिल धर्म में देख, जैसे-तैसे दृढ़ करै ॥४ ॥

साधर्मी पहिचान, करें प्रीति गौ वत्स सम ।
महिमा होत महान्, धर्म काज ऐसे करें ॥५ ॥

मद नहिं जो नृप तात, मद नहिं भूपति ज्ञान को।
मद नहिं विभव लहात, मद नहिं सुन्दर रूप को ॥६॥

मद नहिं जो विद्वान, मद नहिं तन में जोर को ।
मद नहिं जो परधान, मद नहिं संपति कोष को ॥७॥

हूवो आतम ज्ञान, तज रागादि विभाव पर ।
ताको है क्यों मान, जात्यादिक वसु अथिर को ॥८ ॥

बंदत हैं अरिहंत, जिन-मुनि जिन-सिद्धान्त को ।
नमें न देख महंत, कुगुरु कुदेव कुधर्म को ।।९॥

कुत्सित आगम देव, कुत्सित गुरु पुनि सेवकी ।
परशंसा षट भेव, करैं न सम्यकवान है ॥१० ॥

प्रगटो ऐसो भाव, कियो अभाव मिथ्यात्व को ।
बन्दत ताके पाँव, ‘बुधजन’ मन-वच-कायतें ॥ ११ ॥

छहढाला पांचवीं ढाल

तिर्यञ्च मनुज दोउ गति में, व्रत धारक श्रद्धा चित में।
सो अगलित नीर न पीवै, निशि भोजन तजत सदीवै ॥ १ ॥

मुख वस्तु अभक्ष न लावै, जिन भक्ति त्रिकाल रचावै।
मन वच तन कपट निवारै, कृत कारित मोद संवारै ॥२॥

जैसी उपशमत कषाया, तैसा तिन त्याग कराया।
कोई सात व्यसन को त्यागै, कोई अणुव्रत में मन पागे ॥३ ॥

त्रस जीव कभी नहिं मारै, विरथा थावर न संहारै ।
परहित बिन झूठ न बोले, मुख सांच बिना नहिं खोले ॥४ ॥

जलमृतिका बिन धन सबहू, बिन दिये न लेवे कबहू ।
व्याही बनिता बिन नारी, लघु बहिन बड़ी महतारी ॥५ ॥

तृष्णा का जोर संकोच, ज्यादा परिग्रह को मोचै ।
दिश की मर्यादा लावै, बाहर नहि पाँव हिलावें ॥६॥

ताहू में गिरि पुर सरिता, नित राखत अघ तें डरता ।
सब अनरथ दंड न करता, छिन छिन निज धर्म सुमरता ॥७ ॥

द्रव्य क्षेत्र काल सुध भावै, समता सामायिक ध्यावै ।
पोषह एकाकी हो है, निष्किंचन मुनि ज्यों सोहै ॥८ ॥

परिग्रह परिमाण विचार, नित नेम भोग को धारै।
मुनि आवन बेला जावै, तब जोग अशन मुख लावै ॥९ ॥

यों उत्तम किरिया करता, नित रहत पाप से डरता ।
जब निकट मृत्यु निज जाने, तब ही सब ममता भाने ॥१० ॥

ऐसे पुरुषोत्तम केरा, ‘बुधजन’ चरणों का चेरा ।
वे निश्चय सुरपद पावें, थोरे दिन में शिव जावैं ॥ ११ ॥

छहढाला छठवीं ढाल

अथिर ध्याय पर्याय भोग ते होय उदासी।
नित्य निरंजन जोति, आत्मा घट में भासी ॥१।।

सुत दारादि बुलाय, सबनितें मोह निवारा।
त्यागि शहर धन धाम, वास वन-बीच विचारा ॥२॥

भूषण वसन उतार, नगन है आतम चीना ।
गुरु ढिंग दीक्षा धार, सीस कचलोच जु कीना ॥३ ॥

त्रस थावर का घात, त्याग मन-वच-तन लीना ।
झूठ वचन परिहार, गहँ नहिं जल बिन दीना ॥४ ॥

चेतन जड़ तिय भोग, तजो भव-भव दुखकारा।
अहि-कंचुकि ज्यों जान, चित्त तें परिग्रह डारा ॥५॥

गुप्ति पालने काज, कपट मन-वच तन नाहीं ।
पांचों समिति संवार, परिषह सहि है आहीं ॥६॥

छोड़ सकल जंजाल, आप कर आप आप में।
अपने हित को आप, करो है शुद्ध जाप में ॥७॥

ऐसी निश्चल काय, ध्यान में मुनि जन केरी।
मानो पत्थर रची, किधों चित्राम उकेरी ॥८ ॥

चार घातिया नाश, ज्ञान में लोक निहारा ।
दे जिनमत उपदेश, भव्य को दुख तें टारा ॥९ ॥

बहुरि अघाती तोरि, समय में शिव-पद पाया।
अलख अखंडित जोति, शुद्ध चेतन ठहराया ॥ १० ॥

काल अनंतानंत, जैसे के तैसे रहि हैं ।
अविनाशी अविकार, अचल अनुपम सुख लहिहैं ॥ ११ ॥

ऐसी भावन भाय, ऐसे जे कारज करि हैं।
ते ऐसे ही होय, दुष्ट करमन को हरिहैं ॥ १२ ॥

जिनके उर विश्वास, वचन जिन शासन नाहीं ।
ते भोगातुर होय, सधैँ दुख नरकन माहीं ॥ १३ ॥

सुख दुख पूर्व विपाक, अरे मत कल्पै जीया ।
कठिन कठिन ते मित्र, जन्म मानुष का लीया ॥ १४ ॥

सो बिरथा मत खोय, जोय आपा पर भाई ।
गई न लावै फेरि, उदधि में डूबी राई १५ ॥

भला नरक का वास, सहित समकित जो पाता।
बुरे बने जे देव, नृपति मिथ्यामत माता ॥ १६ ॥

नहीं खरच धन होय, नहीं काहू से लरना ।
नहीं दीनता होय, नहीं घर का परिहरना ॥१७॥

समकित सहज स्वभाव, आप का अनुभव करना।
या बिन जप तप वृथा, कष्ट के माहीं परना ॥ १८ ॥

कोटि बात की बात, अरे ‘बुधजन’ उर धरना ।
मन-वच-तन सुधि होय, गहो जिन-मत का शरना ॥ १९ ॥

ठारा सौ पच्चास अधिक नव संवत जानों ।
तीज शुक्ल वैशाख, ढाल षट् शुभ उपजानों ॥२०॥

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विशेष : पंडित श्री बुधजन जी विरचित छहढाला से प्रेरणा पाकर ही कविवर पण्डित दौलतरामजी ने छहढाला लिखी, जो अधिक प्रचलित हुई। पण्डित दौलतरामजी ने अपनी छहढाला में इसका स्वयं उल्लेख किया है

” इक नव वसु इक वर्ष की, तीज शुकल वैशाख ।
कर्यो तत्त्व उपदेश यह, लखि ‘बुधजन’ की भाख ॥। “




छहढाला द्यानतराय जी द्वारा रचित 

छहढाला पहली ढाल

ओंकार मंझार, पंच परम पद वसत हैं।
तीन भुवन में सार, बन्दूँ मन वच काय कर ॥१ ॥

अक्षर ज्ञान न मोहि, छन्द-भेद समझँ नहीं ।
मति थोड़ी किम होय, भाषा अक्षर बावनी ॥२॥

आतम कठिन उपाय, पायो नर भव क्यों तजैं।
राई उदधि समाय, फिर ढूँढे नहिं पाइये ॥३॥

इह विध नर भव कोय, पाय विषय सुख में रमै ।
सो शठ अमृत खोय, हालाहल विष को पिये ॥४ ॥

ईश्वर भाखो येह, नर भव मत खोओ वृथा ।
फिर न मिलै यह देह, पछतावो बहु होयगो ॥५ ॥

उत्तम नर अवतार, पायो दुख कर जगत में ।
यह जिय सोच विचार, कुछ टोसा संग लीजिये ॥६॥

करध गति को बीज, धर्म न जो मन आचरें।
मानुष योनि लहीज, कूप पड़े कर दीप ले ॥७॥

ऋषिवर के सुन बैन, सार मनुज सब योनि में ।
ज्यों मुख ऊपर नैन, भानु दिपै आकाश में ॥८ ॥

द्यानतराय जी दूसरी ढाल

रे जिय यह नरभव पाया, कुल जाति विमल तू आया।
जो जैनधर्म नहिं धारा, सब लाभ विषयसंग हारा ॥ १ ॥

लखि बात हृदय गह लीजे, जिनकथित धर्म नित कीजे ।
भव दुख सागर को वरिये, सुख से नवका ज्यों तरिये ॥२ ॥

ले सुधि न विषय रस भरिया, भ्रम मोह ने मोहित करिया ।
विधि ने जब दई घुमरिया, तब नरक भूमि तू परिया ॥ ३ ॥

अब नर कर धर्म अगाऊ, जब लों धन यौवन चाऊ ।
जब लों नहिं रोग सतावें, तोहि काल न आवन पावै ॥४॥

ऐश्वर्य रु आश्रित नैना, जब लों तेरी दृष्टि फिरै ना।
जब लों तेरी दृष्टि सवाई, कर धर्म अगाऊ भाई ॥५ ॥

ओस बिन्दु त्यों योवन जैहै, कर धर्म जरा पुन यै है ।
ज्यों बूढ़ो बैल थके हैं, कछु कारज कर न सकै है ॥ ६ ॥

औ छिन संयोग वियोगा, छिन जीवन छिन मृत्यु रोगा।
छिन में धन यौवन जायें, किसविधि जग में सुख पावै ॥७ ॥

अंबर धन जीवन येहा, गजकरण चपल धन देहा।
तन दर्पण छाया जानो, यह बात सभी उर आनौ ॥८ ॥

द्यानतराय जी तीसरी ढाल

अः यम ले नित आयु क्यों न धर्म सुनीजै ।
नयन तिमिर नित हीन, आसन यौवन छीजै ॥
कमला चले नहिं पैंड, मुख ढाकै परिवारा।
देह थकैं बहु पोष, क्यों न लखै संसारा ॥ १ ॥

छिन नहिं छोड़े काल, जो पाताल सिधारै।
वसे उदधि के बीच, जो बहु दूर पधारै ॥
गण- सुर राखै तोहि, राम्रै उदधिमथैया।
तोहु तजै नहिं काल, दीप पतंग ज्यों पड़िया ॥ २ ॥

घर गौ सोना दान, मणि औषधि सब यों ही ।
यंत्र मंत्र कर तंत्र, काल मिटै नहिं क्यों ही ॥
नरक तनो दुख भूर, जो तू जीव सम्हारे ।
तो न रुचै आहार, अब सब परिग्रह डार ॥३ ॥

चेतन गर्भ मंझार, वसिके अति दुख पायो ।
बालपने को ख्याल सब जग प्रगटहि गायो ।
छिन में तन को सोच, छिन में विरह सतावै ।
छिन में इष्ट वियोग, तरुण कौन सुख पावैं ॥४॥

द्यानतराय जी चौथी ढाल

जरापने जो दुख सहे, सुन भाई रे ।
सो क्यों भूले तोहि, चेत सुन भाई रे ।
जो तू विषयों से लगा, सुन भाई रे ।
आतम सुधि नहिं तोहि, चेत सुन भाई रे ॥१ ॥

झूठ वचन अघ ऊपजै, सुन भाई रे ।
गर्भ बसो नवमास चेत सुन भाई रे ।
सप्त धातु लहि पाप से, सुन भाई रे ।
अबहू पाप रताय चेत सुन भाई रे ॥२॥

नहीं जरा गद आय है, सुन भाई रे ।
कहाँ गये यम यक्ष वे, सुन भाई रे ।
जे निश्चिन्तित हो रह्यो, सुन भाई रे ।
सो सब देख प्रत्यक्ष चेत सुन भाई रे ॥३ ॥

टुक सुख को भवदधि पड़े, सुन भाई रे ।
पाप लहर दुखदाय, चेत सुन भाई रे ।
पकड़ो धर्म जहाज को, सुन भाई रे ।
सुख से पार करेब, सुन भाई रे ॥४ ॥

ठीक रहे धन सास्वतो, सुन भाई रे ।
होय न रोग न काल, चेत सुन भाई रे
उत्तम धर्म न छोड़िये, सुन भाई रे ।
धर्म कथित जिन भार, बेत सुन भाई रे ॥५ ॥

डरपत जो परलोक से, सुन भाई रे ।
चाहत शिव सुखसार, चेत सुन भाई रे ।
क्रोध लोभ विषयन तजो, सुन भाई रे ।
कोटि कटै अघजाल, चेत सुन भाई रे ॥६॥

ढील न कर, आरम्भ तजो, सुन भाई रे ।
आरम्भ में जिय घात, चेत सुन भाई रे ।
जीवघात से अघ बढ़ें, सुन भाई रे ।
अघ से नरक लहात, चेत सुन भाई रे ॥७ ॥

नरक आदि त्रैलोक में सुन भाई रे ।
ये परभव दुख राशि, चेत सुन भाई रे ।
सो सब पूरब पाप से, सुन भाई रे ।
सबहि सहै बहु त्रास, चेत सुन भाई रे ॥८ ॥

द्यानतराय जी पाँचवीं ढाल

रे भाई अब तू धर्म सम्हार ॥टेक॥
तिहूँ जग में सुर आदि दे जी, सो सुख दुर्लभ सार,
सुन्दरता मन-मोहनी जी, सो है धर्म विचार
रे भाई अब तू धर्म सम्हार ॥१॥

थिरता यश सुख धर्म से जी, पावत रत्न भंडार,
धर्म बिना प्राणी लहै जी, दु:ख अनेक प्रकार
रे भाई अब तू धर्म सम्हार ॥२॥

दान धर्म ते सुर लहै जी, नरक लहै कर पाप,
इह विधि नर जो क्यों पड़े जी, नरक विषैं तू आप
रे भाई अब तू धर्म सम्हार ॥३॥

धर्म करत शोभा लहै जी, हय गय रथ वर साज,
प्रासुक दान प्रभाव ते जी, घर आवे मुनिराज
रे भाई अब तू धर्म सम्हार ॥४॥

नवल सुभग मन मोहनाजी, पूजनीक जग मांहि,
रूप मधुर बच धर्म से जी, दुख कोई व्यापै नाहिं
रे भाई अब तू धर्म सम्हार ॥५॥

परमारथ यह बात है जी, मुनि को समता सार,
विनय मूल विद्यातनी जी, धर्म दया सरदार
रे भाई अब तू धर्म सम्हार ॥६॥

फिर सुन करुणा धर्ममय जी, गुरु कहिये निर्ग्रन्थ,
देव अठारह दोष बिन जी, यह श्रद्धा शिव-पंथ
रे भाई अब तू धर्म सम्हार ॥७॥

बिन धन घर शोभा नहीं जी, दान बिना पुनि गेह,
जैसे विषयी तापसी जी, धर्म दिया बिन नेह
रे भाई अब तू धर्म सम्हार ॥८॥

द्यानतराय जी छठी ढाल

(दोहा)
भोंदू धनहित अघ करे, अघ से धन नहिं होय
धरम करत धन पाइये, मन वच जानो सोय ॥१॥

मत जिय सोचे चिंतवै, होनहार सो होय
जो अक्षर विधना लिखे, ताहि न मेटे कोय ॥२॥

यद्यपि द्रव्य की चाह में, पैठै सागर मांहि
शैल चढ़े वश लाभ के, अधिको पावै नाहिं ॥३॥

रात-दिवस चिंता चिता, मांहि जले मत जीव
जो दीना सो पायगा, अधिक न मिलै सदीव ॥४॥

लागि धर्म जिन पूजिये, सत्य कहैं सब कोय
चित प्रभु चरण लगाइये, मनवांछित फल होय ॥५॥

वह गुरु हों मम संयमी, देव जैन हो सार
साधर्मी संगति मिलो, जब लों हो भव पार ॥६॥

शिव मारग जिन भाषियो, किंचित जानो सोय
अंत समाधी मरण करि,चहुँगति दुख क्षय होय ॥७॥

षट्विधि सम्यक् जो कहै, जिनवानी रुचि जास
सो धन सों धनवान है, जन में जीवन तास ॥८॥

सरधा हेतु हृदय धरै, पढ़ै सुनै दे कान
पाप कर्म सब नाश के, पावै पद निर्वाण ॥९॥

हित सों अर्थ बताइयो, सुथिर बिहारी दास
सत्रहसौ अठ्ठानवे, तेरस कार्तिक मास ॥१०॥

क्षय-उपशम बलसों कहै, द्यानत अक्षर येह
देख सुबोध पचासका, बुधिजन शुद्ध करेहु ॥११॥

त्रेपन क्रिया जो आदरै, मुनिगण विंशत आठ
हृदय धरैं अति चाव सो, जारैं वसु विधि काठ ॥१२॥

ज्ञानवान जैनी सबै, बसैं आगरे मांहि
साधर्मी संगति मिले, कोई मूरख नाहिं ॥१३॥


पंडित श्री दौलतराम जी कृत छहढाला

श्री दौलतराम जी पहली ढाल

( मंगलाचरण )
तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता ।
शिवस्वरूप शिवकार, नमहुँ त्रियोग सम्हारिकैं॥

जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहैं दु:खतैं भयवन्त ।
तातैं दु:खहारी सुखकार, कहैं सीख गुरु करुणा धार॥(1)

ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्यान।
मोह-महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि॥(2)

तास भ्रमण की है बहु कथा, पै कछु कहूँ कही मुनि यथा।
काल अनन्त निगोद मंझार, बीत्यो एकेन्द्री-तन धार॥(3)

एक श्वास में अठदस बार, जन्म्यो मर्यो भर्यो दु:ख भार।
निकसि भूमि-जल-पावकभयो,पवन-प्रत्येक वनस्पति थयो॥(4)

दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणि, त्यों पर्याय लही त्रसतणी।
लट पिपीलि अलि आदि शरीर, धरिधरि मर्यो सही बहुपीर॥(5)

कबहूँ पंचेन्द्रिय पशु भयो, मन बिन निपट अज्ञानी थयो।
सिंहादिक सैनी ह्वै क्रूर, निबल-पशु हति खाये भूर॥(6)

कबहूँ आप भयो बलहीन, सबलनि करि खायो अतिदीन।
छेदन भेदन भूख पियास, भार वहन हिम आतप त्रास ॥(7)

वध-बन्धन आदिक दु:ख घने, कोटि जीभतैं जात न भने ।
अति संक्लेश-भावतैं मर्यो, घोर श्वभ्र-सागर में पर्यो॥(8)

तहाँ भूमि परसत दु:ख इसो, बिच्छू सहस डसै नहिं तिसो ।
तहाँ राध श्रोणित-वाहिनी,कृमि-कुल-कलित देहदाहिनी॥(9)

सेमर-तरु- दल जुत असिपत्र, असि ज्यों देह विदारै तत्र।
मेरु समान लोह गलि जाय, ऐसी शीत उष्णता थाय ॥(10)

तिल-तिल करैं देह के खण्ड, असुर भिड़ावैं दुष्ट प्रचण्ड।
सिन्धु-नीरतैं प्यास न जाय, तो पण एक न बूँद लहाय॥(11)

तीन लोक को नाज जु खाय, मिटै न भूख कणा न लहाय।
ये दु:ख बहु सागर लौं सहै, करम जोग तैं नर गति लहै॥(12)

जननी-उदर वस्यो नव मास, अंग-सकुचतैं पाई त्रास।
निकसत जे दु:ख पाये घोर, तिनको कहत न आवे ओर॥(13)

बालपने में ज्ञान न लह्यो, तरुण समय तरुणीरत रह्यो।
अर्धमृतक सम बूढापनो, कैसे रूप लखै आपनो ॥(14)

कभी अकाम निर्जरा करै, भवनत्रिक में सुर-तन धरै।
विषयचाह-दावानल दह्यो, मरत विलाप करत दु:ख सह्यो॥(15)

जो विमानवासी हू थाय, सम्यग्दर्शन बिन दु:ख पाय।
तहँ तें चय थावर-तन धरै, यों परिवर्तन पूरे करै ॥(16)

श्री दौलतराम जी दूसरी ढाल

ऐसे मिथ्यादृग-ज्ञानचरण,वश भ्रमत भरत दु:ख जन्म-मरण।
तातैं इनको तजिये सुजान, सुन तिन संक्षेप कहूँ बखान॥(1)

जीवादि प्रयोजनभूत तत्त्व, सरधै तिनमाँहि विपर्ययत्व।
चेतन को है उपयोग रूप, विन मूरति चिन्मूरति अनूप॥(2)

पुद्गल नभ धर्म अधर्म काल, इनतैं न्यारी है जीव-चाल।
ताकों न जान विपरीत मान, करि करै देह में निज पिछान॥(3)

मैं सुखी दुखी मैं रंक राव, मेरे धन गृह गोधन प्रभाव।
मेरे सुत तिय मैं सबल दीन, बेरूप सुभग मूरख प्रवीन॥(4)

तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान।
रागादि प्रगट जे दु:ख दैन, तिनही को सेवत गिनत चैन॥(5)

शुभ-अशुभ-बन्ध के फल मंझार,रति अरति करै निजपद विसार।
आतमहित-हेतु विराग-ज्ञान, ते लखें आपको कष्ट दान॥(6)

रोकी न चाह निज शक्ति खोय, शिवरूप निराकुलता न जोय।
याही प्रतीतिजुत कछुक ज्ञान, सो दु:खदायक अज्ञान जान॥(7)

इन जुत विषयनि में जो प्रवृत्त, ताको जानहु मिथ्याचरित्त।
यों मिथ्यात्वादि निसर्ग जेह, अब जे गृहीत सुनिये सु तेह॥(8)

जे कुगुरु कुदेव कुधर्म सेव, पोषैं चिर दर्शनमोह एव।
अन्तर रागादिक धरैं जेह, बाहर धन अम्बरतैं सनेह॥(9)

धारैं कुलिंग लहि महत-भाव, ते कुगुरु जन्म-जल-उपल-नाव।
जे रागद्वेष-मल करि मलीन, वनिता गदादिजुत चिह्न चीन।।(10)

ते हैं कुदेव तिनकी जु सेव, शठ करत न तिन भवभ्रमण-छेव।
रागादि-भाव हिंसा समेत, दर्वित त्रस-थावर मरन-खेत॥(11)

जे क्रिया तिन्हैं जानहु कुधर्म, तिन सरधै जीव लहै अशर्म।
याकूँ गृहीत मिथ्यात्व जान, अब सुन गृहीत जो है अज्ञान॥(12)

एकान्तवाद दूषित समस्त, विषयादिक-पोषक अप्रशस्त।
कपिलादिरचित श्रुत को अभ्यास, सो है कुबोध बहु देन त्रास॥(13)

जो ख्याति-लाभ पूजादि चाह, धरि करन विविध-विध देहदाह।
आतम अनात्म के ज्ञान-हीन, जे जे करनी तन करन-छीन॥(14)

ते सब मिथ्याचारित्र त्याग, अब आतम के हित-पन्थ लाग।
जगजाल भ्रमण को देहु त्याग, अब ‘दौलत’ निज आतम सुपाग।।(15)

श्री दौलतराम जी तीसरी ढाल

आतम को हित है सुख, सो सुख आकुलता बिन कहिये।
आकुलता शिवमाँहि न तातैं, शिव-मग लाग्यो चहिये॥
सम्यग्दर्शन – ज्ञान – चरन शिवमग सो दुविध विचारो।
जो सत्यारथरूप सु निश्चय, कारन सो व्यवहारो॥(1)

पर-द्रव्यनतैं भिन्न आप में, रुचि सम्यक्त्व भला है।
आप रूप को जानपनो, सो सम्यग्ज्ञान कला है॥
आप रूप में लीन रहे थिर, सम्यक्चारित्र सोई।
अब व्यवहार मोक्ष मग सुनिये, हेतु नियत को होई॥(2)

जीव-अजीव तत्त्व अरु आस्रव, बन्धरु संवर जानो।
निर्जर मोक्ष कहे जिन तिनको, ज्यौं का त्यौं सरधानो॥
है सोई समकित व्यवहारी, अब इन रूप बखानो।
तिनको सुनि सामान्य-विशेषै, दृढ प्रतीति उर आनो॥(3)

बहिरातम, अन्तर-आतम, परमातम जीव त्रिधा है ।
देह जीव को एक गिनै बहिरातम – तत्त्व मुधा है ॥
उत्तम मध्यम जघन त्रिविध के, अन्तर-आतम-ज्ञानी।
द्विविध संग बिन शुध-उपयोगी, मुनि उत्तम निजध्यानी॥(4)

मध्यम अन्तर आतम हैं जे, देशव्रती अनगारी।
जघन कहे अविरत – समदृष्टी, तीनों शिवमगचारी॥
सकल निकल परमातम द्वैविध, तिनमें घाति निवारी।
श्री अरहन्त सकल परमातम, लोकालोक-निहारी॥(5)

ज्ञानशरीरी त्रिविध कर्ममल – वर्जित, सिद्ध महन्ता।
ते हैं निकल अमल परमातम, भोगैं शर्म अनन्ता॥
बहिरातमता हेय जानि तजि, अन्तर आतम हूजै।
परमातम को ध्याय निरन्तर, जो नित आनन्द धूजै॥(6)

चेतनता बिन सो अजीव हैं, पञ्च भेद ताके हैं।
पुद्गल पंच वरन रस गन्ध दो, फरस वसु जाके हैं॥
जिय – पुद्गल को चलन सहाई, धर्म द्रव्य अनरूपी।
तिष्ठत होय अधर्म सहाई, जिन बिनमूर्ति निरूपी॥(7)

सकल – द्रव्य को वास जास में, सो आकाश पिछानो।
नियत वरतना निशि-दिन सो, व्यवहार काल परिमानो॥
यों अजीव, अब आस्रव सुनिये, मन-वच-काय त्रियोगा।
मिथ्या अविरत अरु कषाय, परमादसहित उपयोगा॥(8)

ये ही आतम को दु:ख – कारन, तातैं इनको तजिये।
जीव-प्रदेश बँधै विधि सों सो, बन्धन कबहुँ न सजिये॥
शम-दमतैं जो कर्म न आवैं, सो संवर आदरिये।
तप-बलतैं विधि-झरन निरजरा, ताहि सदा आचरिये॥(9)

सकल-करमतैं रहित अवस्था, सो शिव, थिर सुखकारी।
इहिविधि जो सरधा तत्त्वन की, सो समकित व्यवहारी।
देव जिनेन्द्र गुरु परिग्रह बिन, धर्म दयाजुत सारो।
येहू मान समकित को कारन, अष्ट अंग-जुत धारो॥(10)

वसु मद टारि निवारि त्रिशठता, षट् अनायतन त्यागो।
शंकादिक वसु दोष बिना संवेगादिक चित पागो॥
अष्ट अंग अरु दोष पचीसों, तिन संक्षेप हु कहिये।
विन जानेतैं दोष-गुनन को, कैसे तजिये गहिये॥(11)

जिन-वच में शंका न, धारि वृष, भव-सुख-वांछा भानै।
मुनि-तन मलिन न देख घिनावै, तत्त्व कुतत्त्व पिछानै॥
निज-गुन अरु पर औगुन ढाकै, वा निज-धर्म-बढ़ावै।
कामादिक कर वृषतैं चिगते, निज-पर को सु दृढ़ावै॥(12)

धर्मीसों गउ-वच्छ-प्रीति-सम, कर जिन-धर्म दिपावै।
इन गुनतैं विपरीत दोष वसु, तिनकों सतत खिपावै॥
पिता भूप वा मातुल नृप जो, होय न तो मद ठानै।
मद न रूप को, मद न ज्ञान को, धन बल को मद भानै॥(13)

तप को मद, न मद जु प्रभुता को, करै न सो निज जानै।
मद धारै तो यही दोष वसु, समकित को मल ठानै॥
कुगुरु-कुदेव-कुवृष-सेवक की, नहिं प्रशंस उचरै है।
जिनमुनि जिनश्रुत बिन, कुगुरादिक तिन्हैं न नमन करै है॥(14)

दोषरहित गुनसहित सुधी जे, सम्यक्दर्श सजै हैं।
चरितमोहवश लेश न संजम, पै सुरनाथ जजै हैं॥
गेही पै गृह में न रचै ज्यों, जलतैं भिन्न कमल है।
नगरनारि को प्यार यथा, कादे में हेम अमल है॥(15)

प्रथम नरक बिन षट् भू ज्योतिष, वान भवन षंढ नारी।
थावर विकलत्रय पशु में नहिं, उपजत समकितधारी॥
तीन लोक तिहुँ काल माँहि नहिं, दर्शनसो सुखकारी।
सकल धरम को मूल यही इस, बिन करनी दुखकारी॥(16)

मोक्ष-महल की परथम सीढ़ी, या बिन ज्ञान चरित्रा।
सम्यकता न लहै सो दर्शन, धारो भव्य पवित्रा॥
‘दौल’ समझ सुन चेत सयाने, काल वृथा मत खोवै।
यह नर-भव फिर मिलन कठिन है, जो सम्यक् नहिं होवै॥(17)

श्री दौलतराम जी चौथी ढाल

सम्यक्श्रद्धा धारि पुनि, सेवहु सम्यग्ज्ञान।
स्व-पर अर्थ बहु धर्मजुत, जो प्रकटावन भान॥
सम्यक्साथै ज्ञान होय पै भिन्न अराधो।
लक्षण श्रद्धा जान दुहूमें भेद अबाधो॥
सम्यक् कारण जान ज्ञान कारज है सोई।
युगपत् होतैं हू प्रकाश दीपक तैं होई ॥(1)

तास भेद दो हैं परोक्ष परतछ तिनमाहीं।
मति श्रुत दोय परोक्ष अक्ष मन तैं उपजाहीं॥
अवधिज्ञान मनपर्जय, दो हैं देशप्रतच्छा।
द्रव्य-क्षेत्र-परिमान लिये, जानैं जिय स्वच्छा॥(2)

सकल द्रव्यके गुण अनन्त परजाय अनन्ता।
जानैं एकै काल प्रगट केवलि भगवन्ता॥
ज्ञान समान न आन जगत में सुख को कारन।
इह परमामृत जन्म जरा-मृत-रोग-निवारन॥(3)

कोटि जन्म तप तपैं, ज्ञान बिन कर्म झरैं जे।
ज्ञानी के छिन माँहि, त्रिगुप्ति तैं सहज टरैं ते॥
मुनिव्रत धार, अनन्त बार ग्रीवक उपजायो।
पै निजआतमज्ञान बिना, सुख लेश न पायो॥(4)

तातैं जिनवर-कथित, तत्त्व अभ्यास करीजै।
संशय विभ्रम मोह त्याग, आपो लखि लीजै॥
यह मानुष-परजाय, सुकुल सुनिवो जिन-वानी।
इह विधि गये न मिलैं,सुमणि ज्यों उदधि समानी ||(5)

धन समाज गज बाज, राज तो काज न आवै।
ज्ञान आपको रूप भये, फिर अचल रहावै॥
तास ज्ञान को कारन स्व-पर-विवेक बखानो।
कोटि उपाय बनाय भव्य ताको उर आनो ॥(6)

जे पूरब शिव गये, जांहिं अरु आगे जै हैं।
सो सब महिमा ज्ञानतनी, मुनिनाथ कहै हैं॥
विषय-चाह-दव-दाह,जगत-जन अरनि दझावै।
तास उपाय न आन ज्ञान-घनघान बुझावै ॥(7)

पुण्य-पाप-फलमाहिं हरख विलखौ मत भाई।
यह पुद्गल-परजाय उपजि विनसै फिर थाई॥
लाख बात की बात यहै निश्चय उर लावो।
तोरि सकलजग-दन्द-फन्द निज-आतम ध्यावो॥(8)

सम्यग्ज्ञानी होय बहुरि दृढ़ चारित लीजै।
एकदेश अरु सकलदेश, तसु भेद कहीजै॥
त्रस-हिंसा को त्याग, वृथा थावर न सँघारै।
पर-वधकार कठोर निन्द्य, नहिं वयन उचारै॥(9)

जल मृतिका बिन और नाहिं कछु गहै अदत्ता।
निज वनिता बिन सकल नारि सों रहै विरत्ता।
अपनी शक्ति विचार, परिग्रह थोरो राखै।
दश दिशि गमन-प्रमान, ठान तसु सीम न नाखै॥(10)

ताहू में फिर ग्राम, गली गृह बाग बजारा।
गमनागमन प्रमान, ठान अन सकल निवारा॥
काहू की धन-हानि, किसी जय हार न चिन्तैं।
देय न सो उपदेश होय अघ बनिज कृषी तैं॥(11)

कर प्रमाद जल भूमि, वृक्ष पावक न विराधै।
असि धनु हल हिंसोपकरन, नहिं दे जस लाधै॥
राग-द्वेष-करतार, कथा कबहूँ न सुनीजै।
और हू अनरथदण्ड-हेतु, अघ तिन्हैं न कीजै॥(12)

धर उर समता-भाव, सदा सामायिक करिये।
परव – चतुष्टयमाहिं, पाप तजि प्रोषध धरिये॥
भोग और उपभोग, नियम करि ममत निवारै।
मुनि को भोजन देय, फेर निज करहि अहारै॥(13)

बारह व्रत के अतीचार, पन-पन न लगावै।
मरण समय संन्यास धारि, तसु दोष नसावै॥
यों श्रावक व्रत पाल, स्वर्ग सोलम उपजावै।
तहंतै चय नर-जन्म पाय मुनि ह्वै शिव जावै॥(14)

श्री दौलतराम जी पाँचवी ढाल

मुनि सकलव्रती बड़भागी, भवभोगन तैं वैरागी।
वैराग्य उपावन माई, चिन्तैं अनुप्रेक्षा भाई॥(1)

इन चिन्तत समसुख जागै, जिमि ज्वलन पवन के लागै।
जब ही जिय आतम जानै, तब ही जिय शिवसुख ठानै॥(2)

जोवन गृह गोधन नारी, हय गय जन आज्ञाकारी।
इन्द्रिय भोग छिन थाई, सुरधनु चपला चपलाई ॥(3)

सुर असुर खगाधिप जेते, मृग ज्यों हरि काल दले ते।
मणि मन्त्र तन्त्र बहु होई, मरते न बचावै कोई ॥(4)

चहुँगति दु:ख जीव भरै हैं, परिवर्तन पंच करै हैं।
सब विधि संसार असारा, यामें सुख नाहिं लगारा ॥(5)

शुभ-अशुभ करम फल जेते, भोगैं जिय एकहिं तेते।
सुत दारा होय न सीरी, सब स्वारथ के हैं भीरी ॥(6)

जल-पय ज्यौं जिय-तन मेला, पै भिन्न-भिन्न नहिं भेला।
तो प्रगट जुदे धन-धामा, क्यों ह्वै इक मिलि सुत रामा॥(7)

पल-रुधिर राध-मल-थैली, कीकस वसादि तैं मैली।
नवद्वार बहैं घिनकारी, अस देह करै किम यारी ॥(8)

जो जोगन की चपलाई, तातैं ह्वै आस्रव भाई।
आस्रव दुखकार घनेरे, बुधिवन्त तिन्हैं निरवेरे ॥(9)

जिन पुण्य-पाप नहिं कीना, आतम अनुभव चित दीना।
तिन ही विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके॥(10)

निज काल पाय विधि झरना, तासौं निज-काज न सरना।
तप करि जो कर्म खिपावै, सोई शिवसुख दरसावै ॥(11)

किन हू न कर्यो न धरै को, षट्द्रव्यमयी न हरै को।
सो लोकमाँहिं बिन समता, दु:ख सहै जीव नित भ्रमता॥(12)

अन्तिम ग्रीवक लौं की हद, पायो अनन्त बिरियाँ पद।
पर सम्यग्ज्ञान न लाधौ, दुर्लभ निज में मुनि साधौ ॥(13)

जे भाव मोह तैं न्यारे, दृग ज्ञान व्रतादिक सारे।
सो धर्म जबै जिय धारै, तब ही सुख अचल निहारै ॥(14)

सो धर्म मुनिन करि धरिये, तिनकी करतूति उचरिये।
ताको सुनिये भवि प्रानी, अपनी अनुभूति पिछानी॥(15)

 

श्री दौलतराम जी छठवीं ढाल

षट्काय जीव न हनन तैं, सब विधि दरब-हिंसा टरी।
रागादि भाव निवारतैं, हिंसा न भावित अवतरी॥
जिनके न लेश मृषा न जल मृण हू बिना दीयो गहैं।
अठदशसहस विधि शीलधर, चिद्ब्रह्म में नित रमि रहैं ॥(1)

अन्तर चतुर्दश भेद बाहिर, संग दशधा तैं टलैं।
परमाद तजि चउ कर मही लखि, समिति ईर्या तैं चलैं॥
जग सुहितकर सब अहितहर, श्रुतिसुखद सब संशय हरैं।
भ्रम-रोग-हर जिनके वचन, मुखचन्द्र तैं अमृत झरैं॥(2)

छ्यालीस दोष बिना सुकुल, श्रावक तनैं घर अशन को।
लैं तप बढ़ावन हेतु, नहिं तन पोषते तजि रसन को।
शुचि ज्ञान संयम उपकरण, लखिकैं गहैं लखिकैं धरैं।
निर्जन्तु थान विलोक तन-मल, मूत्र श्लेषम परिहरैं ॥(3)

सम्यक् प्रकार निरोध मन-वच-काय आतम ध्यावते।
तिन सुथिर-मुद्रा देखि मृग-गण, उपल खाज खुजावते॥
रस रूप गन्ध तथा फरस, अरु शब्द शुभ असुहावने।
तिनमें न राग विरोध, पंचेन्द्रिय-जयन पद पावने ॥(4)

समता सम्हारैं थुति उचारैं, वन्दना जिनदेव को।
नित करैं श्रुतरति करै प्रतिक्रम, तजैं तन अहमेव को॥
जिनके न न्हौंन न दन्त-धोवन, लेश अम्बर आवरन।
भूमाहिं पिछली रयनि में कछु, शयन एकासन करन ॥(5)

इक बार दिन में लैं अहार, खड़े अलप निज पान में।
कचलोंच करत न डरत परीषह, सों लगे निज ध्यान में॥
अरि मित्र महल मसान कंचन-काँच निन्दन-थुति करन।
अर्घावतारन असि-प्रहारन, में सदा समता धरन ॥(6)

तप तपैं द्वादश धरैं वृष दश, रत्न-त्रय सेवैं सदा।
मुनि-साथ में वा एक विचरैं चहैं नहिं भव-सुख कदा॥
यों है सकलसंयमचरित, सुनिये स्वरूपाचरन अब।
जिस होत प्रगटै आपनी निधि, मिटै पर की प्रवृत्ति सब॥(7)

जिन परमपैनी सुबुधि – छैनी, डारि अन्तर भेदिया।
वरणादि अरु रागादि तैं, निज-भाव को न्यारा किया।।
निजमाहिं निज के हेतु निज कर, आपको आपै गह्यो।
गुण गुणी ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय, मंझार कछु भेद न रह्यो॥(8)

जहँ ध्यान ध्याता ध्येय को न, विकल्प वच भेद न जहाँ।
चिद्भाव कर्म चिदेश कर्ता, चेतना किरिया तहाँ॥
तीनों अभिन्न अखिन्न शुध उपयोग की निश्चल दसा।
प्रगटी जहाँ दृग-ज्ञान-व्रत ये तीनधा एकै लसा ॥(9)

परमाण नय निक्षेप को न उद्योत अनुभव में दिखैं।
दृग-ज्ञान-सुख-बलमय सदा, नहिं आन भाव जु मो विखैं।
मैं साध्य साधक मैं अबाधक, कर्म अरु तसु फलनितैं।
चित् पिण्ड चण्ड अखण्ड सुगुणकरण्ड च्युत पुनि कलनितैं॥(10)

यों चिन्त्य निज में थिर भये, तिन अकथ जो आनन्द लह्यो।
सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा, अहमिन्द्र के नाहीं कह्यो॥
तब ही शुकलध्यानाग्नि करि, चउ-घातिविधि कानन दह्यो।
सब लख्यो केवलज्ञान करि, भविलोक को शिवमग कह्यो॥(11)

पुनि घाति शेष अघातिविधि, छिन माहिं अष्टम-भू बसैं।
वसुकर्म विनसै सुगुण वसु, सम्यक्त्व आदिक सब लसैं॥
संसार खार अपार पारावार, तरि तीरहिं गये।
अविकार अकल अरूप शुचि,चिद्रूप अविनाशी भये ॥(12)

निजमाँहि लोक अलोक गुण, परजाय प्रतिबिम्बित भये।
रहि हैं अनन्तानन्तकाल, यथा तथा शिव परिणये॥
धनि धन्य हैं जे जीव, नर-भव पाय, यह कारज किया।
तिनही अनादि भ्रमण पञ्च प्रकार तजि वर सुख लिया॥(13)

मुख्योपचार दुभेद यों बड़भागि रत्नत्रय धरैं।
अरु धरैंगे ते शिव लहैं तिन, सुयश-जल-जग-मल हरैं॥
इमि जानि आलस हानि, साहस ठानि यह सिख आदरो।
जबलौं न रोग जरा गहै तबलौं झटिति निज हित करो॥(14)

यह राग आग दहै सदा, तातैं समामृत सेइये।
चिर भजे विषय कषाय अब तो त्याग निजपद बेइये॥
कहा रच्यो पर-पद में न तेरो पद यहै क्यों दु:ख सहै।
अब ‘दौल’ होउ सुखी स्व-पद रचि, दाव मत चूकौ यहै ।।(15)

(दोहा)
इक नव वसु इक वर्ष की, तीज शुकल वैशाख।
कर्यो तत्त्व उपदेश यह, लखि ‘बुधजन’ की भाख॥(1)
लघु-धी तथा प्रमादतैं, शब्द – अर्थ की भूल।
सुधी सुधार पढ़ो सदा, जो पावो भव-कूल॥(2)