जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव स्वामी का सम्पूर्ण जीवन दर्शन।

भगवान ऋषभदेव स्वामी जीवन परिचय – नाम, आयु, वर्ण, वंश, 5 कल्याणक, जयन्ती, अक्षय तृतीया, मोक्ष, इतिहास । Bhagwan Rishabhdev Swami Biography – Name, Age, Colour, 5 kalyanak, Jayanti, Akashy Tritya, Moksh, History.

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सम्पूर्ण मानव जाति को अनन्त सुख की राह बिना किसी राग-द्वेष के दिखलाने वाले आस्था के केंद्र आदिब्रह्मा, धर्मतीर्थ साम्राज्यनायक, युगप्रवर्तक जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर वृषभ ( बैल ) चिन्ह से युक्त भगवान श्री ऋषभदेव स्वामी का जन्म अंतिम कुलकर राजा नाभिराज  एवं महारानी मरुदेवी की पावन कुक्षि ( कोंख ) से  इक्ष्वाकु वंश में चैत्र कृष्णा नवमी के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में सूर्योदय के समय अयोध्या नगरी में हुआ था।  वृषभदेव देव नाम आपको इंद्र द्वारा प्रदान किया गया। आप  ही ने समस्त प्रजा जनों को  छ: आजीविका के उपायों का उपदेश दिया। श्रीमदभागवत पुराण के पंचम स्कन्ध, चतुर्थ अध्याय, श्लोक ९ ही आपके पुत्र भरत के नाम से ही हमारे देश का नाम भारत हुआ।  आपको वटवृक्ष के नीचे केवलज्ञान की प्राप्ति हुई थी।  माना जाता है तभी से वटवृक्ष की पूजा का आरम्भ हुआ।  आपने सभी कर्मों का नाश कर कैलाश पर्वत से निर्वाण पद को प्राप्त किया था।

नाम  श्री ऋषभदेव, आदिनाथ, वृषभदेव, पुरुदेव , गुरुहंसनाथ, आदिब्रह्मा, आदिश्वर, प्रथमेश्वर ।
माता – पिता माता मरुदेवी जी – पिता श्री नाभिराज जी
गर्भ कल्याणक तिथि आषाढ़ कृष्णा द्वितीया के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र
जन्म तिथि चैत्र कृष्णा नवमी के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में सूर्योदय के समय
जन्म स्थान अयोध्या, अन्य नाम – साकेतपुरी, अलकापुरी, अवधपुरी।
विवाह यशस्वती – सुनन्दा नाम की दो रानियाँ
पुत्र – पुत्री ब्राह्मी – सुन्दरी
विशेषता जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर या संस्थापक
दीक्षा कल्याणक तिथि चैत्र मास की कृष्ण पक्ष की नवमी के दिन अपरान्ह ( शाम के समय ) काल में उत्तराषाढ़ा नक्षत्र
दीक्षा स्थल प्रयागराज।
ज्ञान कल्याणक तिथि फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र
प्रमुख गणधर नाम वृषभसेन
प्रमुख आर्यिका नाम ब्राह्मी
निर्वाण कल्याणक तिथि माघ कृष्ण चतुर्दशी के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में पूर्वान्ह काल
निर्वाण स्थल कैलाश पर्वत ( अष्टापद, कैलाशगिरि )
प्रमुख प्रसिद्ध तीर्थ स्थल चाँदखेडी, ऋषभदेव जी, कुण्डलपुर, थुबौन जी, हनुमानताल, बद्रीनाथ जी, पालीताना आदि।
Mata Marudevi Pita Nabhiraj Ji Bhagwan Rishabhdev ऋषभदेव
Image Source : Social Media

श्री ऋषभदेव (Rishabhdev ) स्वामी के गर्भ में आने से पूर्व 16 स्वप्नों का फल सहित विवरण (गर्भकल्याणक)  :

तीर्थंकर बालक के गर्भ में आने से पूर्व ही माता मरुदेवी ने रात्रि के अंतिम प्रहार में उत्तम मंगलकारी 16 स्वप्न देखे।  जिसका फल महाराज नाभिराय ने इस प्रकार बतलाया :

mata ke 16 sapne
image : Social Media Facebook

#1 ऐरावत हाथी :- सर्वौच्च माननीय उत्तम पुत्र होगा !

#2 सिंह :- अनंत बल का धारक होगा !

#3 स्वेत बैल :- वह समस्त लोक में ज्येष्ठ होगा !

#4 लक्ष्मी :- सुमेरु पर्वत के मस्तक पर देवों द्वारा अभिषेक को प्राप्त होगा !

#5 उदय होता हुआ सूर्य :- देदीप्यमान प्रभा का धारक होगा !

#6 चन्द्रमा :- लोगों का संताप हर्ता एवं आनंद देने वाला होगा !

#7 किलोल करता मछली युगल :- परम सुखी होगा !

#8 कलश युगल :- अनेक निधियों को प्राप्त करेगा !

#9 सरोवर :- अनेक लक्षणों से सुशोभित होगा !

#10 शांत समुद्र :- केवली होगा !

#11 दो पुष्प मालाएं :- समीचीन धर्म का प्रवर्तक होगा !

#12 सिंहासन :- जगद्गुरु होकर साम्राज्य करेगा !

#13 रत्न राशि :- गुणों की खान होगा !

#14 देवों का विमान :- स्वर्ग से अवतीर्ण होगा !

#15 नागेन्द्र का भवन :- अवधिज्ञान से युक्त होगा !

#16 निर्धूम/अग्नि :- कर्मरूपी ईंधन को जलाने वाला होगा !

आषाढ़ कृष्णा द्वितीया के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में आप गर्भ में अवतरित हुए।

भगवान श्री ऋषभदेव जी का जन्मकल्याणक एवं जन्म जयंती 

आपका जन्म चैत्र माह के कृष्ण पक्ष में नवमी तिथि को सूर्योदय के समय ब्रह्मनामक महायोग में अयोध्या में हुआ।  तब देवताओं ने रत्नों की वृष्टि कर महा जन्मकल्याणोत्सव मनाया। इंद्रों के भी इंद्र सौधर्म इंद्र ने अपनी रानी के साथ ऐरावत हाथी पर बिठाकर सुमेरु पर्वत पर ले जाकर आपका क्षीरसागर के जल से 1008 कलशों द्वारा महाभिषेक सानन्द सम्पन्न किया। हर वर्ष सभी भक्तों के द्वारा श्री आदिनाथ जयंती बड़ी ही धूमधाम से मनाई जाती है।

आदिम तीर्थंकर ऋषभदेव आयु, रंग, एवं भगवान बनने से पहले गृहस्थ जीवन पर एक नज़र

तपते हुए सुवर्ण के समान देहधारी ( रंग ), स्वेद (पसीना ) और मल से रहित, एक हज़ार आठ लक्षणों से युक्त परम औदारिक शरीर, जन्म से ही तीन ज्ञानो से युक्त ( मति, श्रुत, अवधि ) रहे । आपकी शरीर की ऊंचाई 500 सौ धनुष एवं आयु  84 लाख वर्ष पूर्व बताई गयी है।  जिसमे से बीस लाख वर्ष पूर्व का समय आपने कुमार अवस्था में व्यतीत किया। आपकी दो रानी यशस्वती और सुनन्दा से 101 पुत्र एवं दो पुत्री रत्न की प्राप्ति हुई।  यशस्वती से सम्राट चक्रवर्ती भरत आदि सौ पुत्र तथा ब्राह्मी नामक पुत्री एवं सुनन्दा रानी से कामदेव पद के धारी बाहुबली पुत्र – सुन्दरी नामक पुत्री उत्त्पन्न हुए थे।

ऋषभदेव स्वामी के 100 पुत्रों के नाम

दिगंबर ग्रंथों में श्री आदिनाथ जी के सौ पुत्रों का होने का तो वर्णन मिलता है, किन्तु उन पुत्रों के नाम नहीं मिलते। केवल थोड़े नामों का उल्लेख मिलता है, जैसे – भरत चक्रवर्ती, श्री बाहुबली जी, श्री वृषभसेन जी, श्री अनंतविजय जी, श्री अनंतवीर्य जी, श्री अच्युत जी, श्री वीर,श्री वरवीर जी आदि। किन्तु अभिधान राजेन्द्र कोष (उसभ – प्रकरण, पृष्ठ ११२९) में इन सौ पुत्रों के नाम है। जो इस प्रकार है – भरत चक्रवर्ती, बाहुबली जी,शंख, विश्वकर्मा, विमल,सुभक्षण,अमल,चित्रांग, ख्याति कीर्ति, वरदत्त, सागर,यशोधर, अमर,रथवर, कामदेव, ध्रुव,वच्छ,नंद, सुर, सुनंद, कुरु,अंग,वंग, कौशल,वीर, कलिंग,मागध, विदेह,संगम,दशार्ण, गंभीर,वसुचर्मा,सुवर्मा, राष्ट्र,सुराष्ट्र, बुद्धिकर, विविधकर, सुयशा, यशकीर्ति, यशस्कर, कीर्तिकर, सूरण, ब्रह्मसेन, विक्रांत, नरोत्तम, पुरुषोत्तम, चन्द्रसेन, महासेन, नभसेन,भानु, सुकान्त, पुष्पयुत, श्रीधर, दुर्धर्ष, सुसुमार, दुर्जय, अजेयमान, सुधर्मा, धर्मसेन, आनन्दन, आनन्द, नन्द, अपराजित, विश्वसेन, हरिषेण, जय, विजय, विजयन्त, प्रभाकर, अरिदमन, मान, महाबाहु, दीर्घबाहु, मेघ, सुघोष, विश्व, वराह, सुसेन, सेनापति, कपिल, शैलविचारी, अरिंजय, कुंजरवल, जयदेव, नागदत्त, काश्यप, बल, धीर, शुभमति, पद्मनाभ, सिंह, सुजाति, संजय, सुनाम, नरदेव, चित्तहर, सुरवर, दृढ़रथ, प्रभंजन।

श्रीमद्भागवत में भी यह स्वीकार किया है कि श्री आदिनाथ जी के सौ पुत्र थे।
आचार्य श्री जिनसेन स्वामी जी कृत आदि पुराण १६/ २८ में एक सौ एक पुत्र बताये गये है।

आपने ने ब्राह्मी को लिपि ज्ञान तथा सुन्दरी को अंक ज्ञान प्रदान किया।  प्रजा जनों के निवेदन पर सर्वप्रथम आपने ही षट्कर्म असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प का उपदेश दिया।

आपने तीन वर्णों की स्थापना की – ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य। आषाढ़ मास के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा के दिन आपने कृतयुग का आरम्भ किया , इसी कारण आप प्रजापति भी कहलाये।

तिरेसठ लाख वर्ष पूर्व काल तक राज्य व्यवस्था को सम्भाल ही रहे थे कि अचानक एक दिवस आप सभा में नीलांजना नामक अप्सरा का नृत्य देख रहे थे।  नाचते – नाचते वह मरण को प्राप्त हुई।  जिसके कारण आपको यह ज्ञात हुआ कि जीवन क्षणभंगुर है, नश्वर है। उसी समय आपको वैराग्य उत्त्पन्न हुआ।

तत्पश्चात भरत का राज्याभिषेक कर बाहुबली को युवराज पद देकर सिद्धार्थक वन में पूर्वाभिमुख होकर पद्मासन मुद्रा में पंचमुष्टि केशलोंच कर जैनेश्वरी दीक्षा ( जैन निर्ग्रन्थ साधु ) का पद  चैत्र मास की कृष्ण पक्ष की नवमी के दिन अपरान्ह ( शाम के समय ) काल में उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में  चार हज़ार राजाओं के साथ कर्मों का नाश करने हेतु दीक्षा धारण की।  छह महीने का निश्चल कायोत्सर्ग मुद्रा धारण कर  ध्यानस्थ  अवस्था में लवलीन रहे।

अक्षय तृतीया पर्व का आरम्भ एवं दान तीर्थ परम्परा की शुरुआत

6 महीने का उपवास एवं 6 महीने तक आहार विधि न मिलने के कारण अर्थात कोई भी यह नहीं जानता था कि जैन मुनि को शुद्ध, प्रासुक,आहार कैसे दिया जाता है। नवधा भक्ति के ज्ञान का अभाव होने से भी उपवास रहा।  इस प्रकार एक वर्ष पुरे हो जाने पर हस्तिनापुर की पावन भूमि पर राजा श्रेयांस को पूर्वभव का जातिस्मरण ज्ञान के द्वारा नवधा भक्ति का ज्ञान होने पर मुनि श्री आदिनाथ जी को इक्षुरस ( गन्ने का रस ) का प्रथम आहार / पारणा कराया गया।  यही से दानतीर्थ की परम्परा और उसी इक्षुरस के अक्षय होने के कारण इस दिन को अक्षय तृतीया के नाम से जाना गया।

मुनि श्री आदिनाथ को कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति

मेरु के समान अचल प्रतिमा योग को धारण कर एक हज़ार वर्ष तक ध्यान में लवलीन रहे। भुजाये नीचे की ओर लटकती रही, केश बढ़कर जटाये हो गयी थी, पुरिमताल नगर ( वर्तमान प्रयागराज ) के समीप वटवृक्ष के नीचे एक शिला पर चित्त की एकाग्रता को धारण कर फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में श्री केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी से सुशोभित हुए।  इंद्र द्वारा 1008 नामो से आपका गुणानुवाद किया गया। जिसे श्री जिनसेन स्वामी ने श्री जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र में लिपिबद्ध किया है। भरत चक्रवर्ती की अधीनता स्वीकार करने के लिए कहे जाने पर बाहुबली को छोड़ कर सभी  पुत्र आपसे दीक्षित हो गए थे।

संघस्थ मुनियों में चार हज़ार सात सौ पचास पूर्वधर, इतने ही श्रुत के शिक्षक थे।  नौ हज़ार अवधिज्ञानी मुनि, बीस हज़ार केवलज्ञानी, बीस हज़ार छह सौ विक्रियाऋद्धि धारी मुनि, बीस हज़ार सात सौ विपुलमति, मनः पर्ययज्ञानी और इतने ही असंख्यात गुणों के धारक मुनि थे।  संघ में पचास हज़ार आर्यिका भी थी।  जिनमे प्रमुख ब्राह्मी नामक मुख्या आर्यिका थी।  पांच लाख श्राविकाएं और तीन लाख श्रावक थे।

समवशरण में विराजमान ऋषभदेव स्वामी के ८४ गणधरों के नाम :

1. वृषभसेन 2. कुंभ 3. दृढ़रथ 4. शत्रुदमन 5. देवशर्मा 6. धनदेव 7. नंदन 8. सोमदत्त 9. सुरदत्त 10. वायुशर्मा 11. सुबाहु 12. देवाग्नि 13. अग्निदेव 14. अग्निभूति 15. तेजस्वी 16. अग्निमित्र 17. हकधर 18. महीधर 19. माहेंद्र 20. वसुदेव 21. वसुंधरा 22. अचल 23. मेरु 24. भूति 25. सर्वसह 26. यज्ञ 27. सर्वगुप्त 28. सर्वदेव 29. सर्वप्रिय 30. विजय 31. विजयगुप्त 32. विजयमित्र 33. विजयश्री 34. परारूप 35. अपराजित 36. वसुमित्र 37. वसुसेन 38. साधुसेन 39. सत्यदेव 40. सत्यवेद 41. सर्वगुप्त 42. मित्र 43. सत्यवान् 44. विनीत 45. संवर 46. ऋषिगुप्त 47 ऋषिदत्त 48. यज्ञदेव 49. यज्ञगुप्त 50. यशमित्र 51. यज्ञदत्त 52. स्वायंभुत 53. भागदत्त 54. भागफल्गु 55. गुप्त 56. गुप्तफल्गु 57. मित्रफल्गु 58. प्रजापति 59. सत्यवश 60. वरुण 61. धनवाहित 62. महेंद्रदत्त 63. तेजोराशि 64. महारथ 65. विजयश्रुति 66. महाबल 67. सुविशाल 68. वज्र 69. वैर 70. चंद्रचूड़ 71. मेघेश्वर 72. कच्छ 73. महाकच्छ 74. सुकच्छ 75. अतिबल 76. भद्राबलि 77. नमि 78. विनमि 79. भद्रबल 80. नंदि 81. महानुभाव 82 नंदिमित्र 83. कामदेव और 84 अनुपम ।

श्री वृषभदेव स्वामी को कैलाश पर्वत से निर्वाण – मोक्ष की प्राप्ति

एक लाख वर्ष पूर्व तक अनेक भव्य जीवों को संसार सागर से पार उतरने का उपदेश प्रदान कर पृथ्वी पर जगह – जगह विहार करते हुए कैलाश पर्वत पर ध्यानारूढ़ होकर एक हज़ार राजाओं के साथ योग निरोध कर आयु के14 दिन पूर्व शेष रहने पर माघ कृष्ण चतुर्दशी के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में पूर्वान्ह काल में कैलाश गिरी से मोक्ष पद पर आसीन हुए। चहुँ दिशाओं में जिनधर्म की पताका तब से लेकर आज तक फहरा रही है।

प्रश्न 1 : भगवान श्री ऋषभदेव कौन से वंश के थे ?

उत्तर : इक्ष्वाकु वंश के

प्रश्न 2 : प्रभु श्री ऋषभदेव जी के अन्य प्रचलित नाम कौन – कौन से है ?

उत्तर : (1). ऋषभनाथ (2). वृषभनाथ (3). आदिनाथ (4). पुरुदेव नाथ ( 5). प्रजापति (6). आदिप्रवर्तक।

प्रश्न 3 : परमात्मा श्री ऋषभदेव जी ने जो षटकर्म का उपदेश दिया था ? उसका क्या मतलब है ? संक्षिप्त में बताये ?

1 . असि – तलवार आदि शस्त्रों को धर्म, समाज, एवं राष्ट्र की रक्षा हेतु चलाना सिखाया।
2 . मसि – लिखकर आजीविका करने को मसि कर्म कहा गया है।
3. कृषि – खेती करके अन्न आदि पैदा करना जिससे भरण – पोषण में आसानी हो। इसे कृषि कर्म कहा गया है।
4 . वाणिज्य– वस्तुओं के लेन -देन को वाणिजय कर्म बतलाया।
5. शिल्प – कलात्मक वस्तुओं का निर्माण करना शिल्प कला या कर्म बताया।
6. विद्या – किसी भी विषय वस्तु के ज्ञान को विद्या कहते है।

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