विषापहार स्तोत्र संस्कृत -हिन्दी – Vishapahar Stotra

विषापहार स्तोत्र ( Vishapahar Stotra ) संस्कृत की रचना महाकवि धनंजय द्वारा एवं हिन्दी की रचना कवि श्री शांतिदास जी द्वारा की गयी है। मूल रचनाकार ने इस काव्य को इस अद्भुत शैली में रचा है कि इसके प्रत्येक पद्य के दो अर्थ होते है। पहला अर्थ रामायण से सम्बंधित और दूसरा महाभारत से सम्बन्ध रखता है।  इसी कारण इसको ‘राघव – पाण्डवीय भी कहते है। कवि धनञ्जय का समय विद्वानों ने आठवीं शताब्दी निश्चित किया है।  इस स्तोत्र में प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान की स्तुति की गयी है। कवि श्रेष्ठ की सुप्रसिद्ध रचना धनंजय नाममाला है।

विषापहार स्तोत्र की लघु कथा एवं महिमा 

एक बार कविवर श्री धनञ्जय जिनेन्द्र परमात्मा की भक्ति में लीन थे। तभी उनके सुपुत्र को एक जहरीले सर्प ने डस लिया।  पुत्र की मृत्यु का घर से कई बार समाचार प्राप्त होने के बाद भी निस्पृह भाव से कविराज परमात्मा की भक्ति में तल्लीन रहे। पुत्र के वियोग से संतृप्त उनकी पत्नी ने उनके इस व्यवहार से क्रोधित होकर मृत पुत्र को लेकर मंदिर जी में ध्यानस्थ मुद्रा में विराजमान धनञ्जय के सामने लेकर रख दिया।

विषापहार स्तोत्र - Vishapahar Stotra

श्री आदिनाथ जिनेन्द्र प्रभु की पूजन से निवृत होकर उन्होंने तत्काल ही श्री विषापहार स्तोत्र की रचना की। जैसे – जैसे कवि एक -एक श्लोक के माध्यम से श्री आदिनाथ भगवान की स्तुति करते गए।  उधर उनकी भक्ति के प्रभाव से सर्प विष धीरे – धीरे उतरता गया। सम्पूर्ण रचना होते ही बालक का सारा का सारा विष ( जहर ) उतर गया। इस भक्ति के प्रभाव से जैन धर्म की अपूर्ण प्रभावना हुई; और सभी ने जयकारों का उद्घोष किया। इस स्तोत्र के प्रभाव से अनेक प्रकार की आधि – व्याधि स्वत: ही समाप्त हो जाती है।

श्री विषापहार स्तोत्र संस्कृत 

-महाकवि धनंजय जी 

स्वात्मस्थित: सर्वगत: समस्त,
व्यापारवेदी विनिवृत्तसङ्ग:।
प्रवृद्धकालोप्यजरो वरेण्य:,
पायादपायात्पुरुष: पुराण: ॥१॥

परैरचिन्त्यं युगभारमेक:,
स्तोतुं वहन्योगिभिरप्यशक्य:।
स्तुत्योऽद्य मेऽसौ वृषभो न भानो:,
किमप्रवेशे विशति प्रदीप: ॥२॥

तत्त्याज शक्र: शकनाभिमानं,
नाहं त्यजामि स्तवनानुबन्धम्।
स्वल्पेन बोधेन ततोऽधिकार्थं,
वातायनेनेव निरूपयामि ॥३॥

त्वं विश्वदृश्वा सकलैरदृश्यो,
विद्वानशेषं निखिलैरवेद्य:।
वक्तुं कियान्कीदृश इत्यशक्य:,
स्तुतिस्ततोऽशक्तिकथा तवास्तु ॥४॥

व्यापीडितं बालमिवात्मदोषै-
रुल्लाघतां लोकमवापिपस्त्वम्।
हिताहितान्वेषण मान्द्यभाज: ,
सर्वस्य जन्तोरसि बालवैद्य: ॥५॥

दाता न हर्ता दिवसं विवस्वा-
नद्यश्व इत्यच्युतदर्शिताश:।
सव्याजमेवं गमयत्यशक्त:,
क्षणेन दत्सेऽभिमतं नताय ॥६॥

उपैति भक्त्या सुमुखः सुखानि,
त्वयि स्वभावाद्विमुखश्च दु:खं।
सदावदातद्युतिरेकरूप –
स्तयोस्त्वमादर्श इवावभासि ॥७॥

अगाधताब्धे: स यत: पयोधिर्
मेरोश्च तुङ्गा प्रकृति: स यत्र।
द्यावा पृथिव्यो: पृथुता तथैव,
व्याप त्वदीया भुवनान्तराणि ॥८॥

तवानवस्था परमार्थतत्त्वं,
त्वया न गीत: पुनरागमश्च।
दृष्टं विहाय त्वमदृष्टमैषीर्
विरुद्धवृत्तोऽपि समञ्जसस्त्वम् ॥९॥

स्मर: सुदग्धो भवतैव तस्मिन्,
नुद्धूलितात्मा यदि नाम शम्भु:।
अशेत वृन्दोपहतोऽपि विष्णु:,
किं गृह्यते येन भवानजाग: ॥१०॥

स नीरजा: स्यादपरोऽघवान्वा,
तद्दोषकीत्र्यैव न ते गुणित्वं।
स्वतोऽम्बुराशेर्महिमा न देव!,
स्तोकापवादेन जलाशयस्य ॥११॥

कर्मस्थितिं जन्तुरनेक भूमिं,
नयत्यमुं सा च परस्परस्य।
त्वं नेतृभावं हि तयोर्भवाब्धौ,
जिनेन्द्र! नौनाविकयोरिवाख्य: ॥१२॥

सुखाय दु:खानि गुणाय दोषान्,
धर्माय पापानि समाचरन्ति।
तैलाय बाला: सिकतासमूहं,
निपीडयन्ति स्फुटमत्वदीया: ॥१३॥

विषापहारं मणिमौषधानि,
मन्त्रं समुद्दिश्य रसायनं च।
भ्राम्यन्त्यहो न त्वमिति स्मरन्ति,
पर्यायनामानि तवैव तानि ॥१४॥

चित्ते न किञ्चित्कृतवानसि त्वं
देव: कृतश्चेतसि येन सर्वम्।
हस्ते कृतं तेन जगद्विचित्रं
सुखेन जीवत्यपि चित्तबाह्य: ॥१५॥

त्रिकालतत्त्वं त्वमवैस्त्रिलोकी,
स्वामीतिसंख्यानियतेरमीषाम् ।
बोधाधिपत्यं प्रति नाभविष्यं-,
स्तेऽन्येऽपि चेद्वयाप्स्यदमूनपीदम् ॥१६॥

नाकस्य पत्यु: परिकर्म रम्यं,
नागम्यरूपस्य तवोपकारि।
तस्यैव हेतु: स्वसुखस्य भानो-,
रुद्विभ्रतच्छत्रमिवादरेण ॥१७॥

क्वोपेक्षकस्त्वं क्व सुखोपदेश:
स चेत्किमिच्छा प्रतिकूलवाद:।
क्वासौ क्व वा सर्वजगत्प्रियत्वं
तन्नो यथातथ्यमवेविचं ते ॥१८॥

तुङ्गात्फलं यत्त दकिंचनाच्च
प्राप्यं समृद्धान्न धनेश्वरादे:।
निरम्भ-सोऽप्युच्चतमादिवाद्रेर्,
नैकापि निर्याति धुनी पयोधे: ॥१९॥

त्रैलोक्यसेवानियमाय दण्डं
दध्रे यदिन्द्रो विनयेन तस्य।
तत्प्रातिहार्यं भवत: कुतस्त्यं
तत्कर्मयोगाद्यदि वा तवास्तु ॥२०॥

श्रिया परं पश्यति साधु नि:स्व:,
श्रीमान्न कश्चित्कृपणं त्वदन्य:।
यथा प्रकाशस्थितमन्धकार-,
स्थायीक्षतेऽसौ न तथा तम:स्थम् ॥२१॥

स्व वृद्धिनि:श्वासनिमेषभाजि
प्रत्यक्षमात्मानुभवेऽपि मूढ:।
किं चाखिलज्ञेयविवर्तिबोध-,
स्वरूपमध्यक्षमवैति लोक: ॥२२॥

तस्यात्मजस्तस्य पितेति देव!,
त्वां येऽवगायन्ति कुलं प्रकाश्य।
तेऽद्यापि नन्वाश्मनमित्यवश्यं,
पाणौ कृतं हेम पुनस्त्यजन्ति ॥२३॥

दत्तस्त्रिलोक्यां पटहोऽभिभूता:,
सुरासुरास्तस्य महान्स लाभ:।
मोहस्य मोहस्त्वयि को विरोद्धु-
र्मूलस्य नाशो बलवद्विरोध: ॥२४॥

मार्गस्त्वयैको ददृशे विमुक्तेश् ,
चतुर्गतीनां गहनं परेण।
सर्वं मया दृष्टमिति स्मयेन
त्वं मा कदाचिद्भुजमालुलोक: ॥२५॥

स्वर्भानुरर्कस्य हविर्भुजोऽम्भ:,
कल्पान्तवातोऽम्बुनिधेर्विघात: ।
संसारभोगस्य वियोगभावो
विपक्षपूर्वाभ्युदयास्त्वदन्ये ॥२६॥

अजानतस्त्वां नमत: फलं
यत्तज्जानतोऽन्यं न तु देवतेति।
हरिन्मणिं काचधिया दधानस्,
तं तस्य बुद्ध्या वहतो न रिक्त: ॥२७॥

प्रशस्तवाचश्चतुरा: कषायैर्,
दग्धस्य देवव्यवहारमाहु:।
गतस्य दीपस्य हि नन्दितत्वं,
दृष्टं कपालस्य च मङ्गलत्वम् ॥२८॥

नानार्थमेकार्थमदस्त्वदुक्तं ,
हितं वचस्ते निशमय्य वक्तु:।
निर्दोषतां के न विभावयन्ति,
ज्वरेण मुक्त: सुगम: स्वरेण ॥२९॥

न क्वापि वाञ्छा ववृते च वाक्ते,
काले क्व चित्कोऽपि तथा नियोग:।
न पूरयाम्यम्बुधिमित्युदंशु:,
स्वयं हि शीतद्युतिरभ्युदेति ॥३०॥

गुणा गभीरा: परमा: प्रसन्ना,
बहुप्रकारा बहवस्तवेति।
दृष्टोऽयमन्त: स्तवनेन तेषां,
गुणो गुणानां किमत: परोऽस्ति ॥३१॥

स्तुत्या परं नाभिमतं हि भक्त्या
स्मृत्या प्रणत्या च ततो भजामि।
स्मरामि देवं प्रणमामि नित्यं
केनाप्युपायेन फलं हि साध्यम् ॥३२॥

ततस्त्रिलोकी नगराधिदेवं ,
नित्यं परं ज्योतिरनन्तशक्तिम्।
अपुण्यपापं परपुण्यहेतुं
नमाम्यहं वन्द्यमवन्दितारम् ॥३३॥

अशब्दमस्पर्शमरूपगन्धं
त्वां नीरसं तद्विषयावबोधम्।
सर्वस्य मातारममेयमन्यैर्,
जिनेन्द्रमस्मार्यमनुस्मरामि ॥३४॥

अगाधमन्यैर्मनसाप्यलंघ्यं ,
निष्किञ्चनं प्रार्थितमर्थवद्भि:।
विश्वस्य पारं तमदृष्टपारं,
पतिं जनानां शरणं व्रजामि ॥३५॥

त्रैलोक्यदीक्षागुरवे नमस्ते
यो वर्धमानोऽपि निजोन्नतोऽभूत्।
प्राग्गण्डशैल: पुनरद्रिकल्प:
पश्चान्न मेरु: कुलपर्वतोऽभूत् ॥३६॥

स्वयं प्रकाशस्य दिवा निशा वा,
न बाध्यता यस्य न बाधकत्वम्।
न लाघवं गौरवमेकरूपं,
वन्दे विभुं कालकलामतीतम् ॥३७॥

इति स्तुतिं देव विधाय दैन्या-
द्वरं न याचे त्वमुपेक्षकोऽसि।
छाया तरुं संश्रयत: स्वत: स्यात्,
कश्छायया याचितयात्मलाभ: ॥३८॥

अथास्ति दित्सा यदि वोपरोध-
स्त्वय्येव सक्तां दिश भक्तिबुद्धिम्।
करिष्यते देव तथा कृपां मे
को वात्मपोष्ये सुमुखो न सूरि: ॥३९॥

वितरति विहिता यथाकथञ्चि-
ज्जिन विनताय मनीषितानि भक्ति:।
त्वयि नुतिविषया पुनर्विशेषा-
द्दिशति सुखानि यशो धनंजयं च ॥४०॥


( विषापहार स्तोत्र हिन्दी अनुवाद ) 

रचनाकार : कवि श्री शांतिदास जी 

(दोहा)

नमौं नाभिनंदन बली, तत्त्व-प्रकाशनहार|
चतुर्थकाल की आदि में, भये प्रथम-अवतार ||१||

(रोला छन्द)

निज-आतम में लीन ज्ञानकरि व्यापत सारे |
जानत सब व्यापार संग नहिं कछु तिहारे ||
बहुत काल के हो पुनि जरा न देह तिहारी |
ऐसे पुरुष पुरान करहु रक्षा जु हमारी ||१||

पर करि के जु अचिंत्य भार जग को अति भारो |
सो एकाकी भयो वृषभ कीनों निसतारो ||
करि न सके जोगिंद्र स्तवन मैं करिहों ताको |
भानु प्रकाश न करै दीप तम हरै गुफा को ||२||

स्तवन करन को गर्व तज्यो सक्री बहुज्ञानी |
मैं नहिं तजौं कदापि स्वल्प ज्ञानी शुभध्यानी ||
अधिक अर्थ का कहूँ यथाविधि बैठि झरोके |
जालांतर धरि अक्ष भूमिधर को जु विलोके ||३||

सकल जगत् को देखत अर सबके तुम ज्ञायक |
तुमको देखत नाहिं नाहिं जानत सुखदायक ||
हो किसाक तुम नाथ और कितनाक बखानें |
तातें थुति नहिं बने असक्ती भये सयाने ||४||

बालकवत निज दोष थकी इहलोक दु:खी अति |
रोगरहित तुम कियो कृपाकरि देव भुवनपति ||
हित अनहित की समझ नाहिं हैं मंदमती हम |
सब प्राणिन के हेत नाथ तुम बाल-वैद सम ||५||

दाता हरता नाहिं भानु सबको बहकावत |
आज-कल के छल करि नितप्रति दिवस गुमावत ||
हे अच्युत! जो भक्त नमें तुम चरन कमल को |
छिनक एक में आप देत मनवाँछित फल को ||६||

तुम सों सन्मुख रहै भक्ति सों सो सुख पावे |
जो सुभावतें विमुख आपतें दु:खहि बढ़ावै ||
सदा नाथ अवदात एक द्युतिरूप गुसांई |
इन दोन्यों के हेत स्वच्छ दरपणवत् झाँई ||७||

है अगाध जलनिधी समुद्र जल है जितनो ही |
मेरु तुंग सुभाव सिखरलों उच्च भन्यो ही ||
वसुधा अर सुरलोक एहु इस भाँति सई है |
तेरी प्रभुता देव भुवन कूं लंघि गई है ||८||

है अनवस्था धर्म परम सो तत्त्व तुमारे |
कह्यो न आवागमन प्रभू मत माँहिं तिहारे ||
इष्ट पदारथ छाँड़ि आप इच्छति अदृष्ट कौं |
विरुधवृत्ति तव नाथ समंजस होय सृष्ट कौं ||९||

कामदेव को किया भस्म जगत्राता थे ही |
लीनी भस्म लपेटि नाम संभू निजदेही ||
सूतो होय अचेत विष्णु वनिताकरि हार्यो |
तुम को काम न गहे आप घट सदा उजार्यो ||१०||

पापवान वा पुन्यवान सो देव बतावे |
तिनके औगुन कहे नाहिं तू गुणी कहावे ||
निज सुभावतैं अंबु-राशि निज महिमा पावे |
स्तोक सरोवर कहे कहा उपमा बढ़ि जावे ||११||

कर्मन की थिति जंतु अनेक करै दु:खकारी |
सो थिति बहु परकार करै जीवनकी ख्वारी ||
भवसमुद्र के माँहिं देव दोन्यों के साखी |
नाविक नाव समान आप वाणी में भाखी ||१२||

सुख को तो दु:ख कहे गुणनिकूं दोष विचारे |
धर्म करन के हेत पाप हिरदे विच धारे ||
तेल निकासन काज धूलि को पेलै घानी |
तेरे मत सों बाह्य ऐसे ही जीव अज्ञानी ||१३||

विष मोचै ततकाल रोग को हरै ततच्छन |
मणि औषधी रसांण मंत्र जो होय सुलच्छन ||
ए सब तेरे नाम सुबुद्धी यों मन धरिहैं |
भ्रमत अपरजन वृथा नहीं तुम सुमिरन करिहैं ||१४||

किंचित् भी चितमाँहि आप कछु करो न स्वामी |
जे राखे चितमाँहिं आपको शुभ-परिणामी ||
हस्तामलकवत् लखें जगत् की परिणति जेती |
तेरे चित के बाह्य तोउ जीवै सुख सेती ||१५||

तीन लोक तिरकाल माहिं तुम जानत सारी |
स्वामी इनकी संख्या थी तितनी हि निहारी ||
जो लोकादिक हुते अनंते साहिब मेरा |
तेऽपि झलकते आनि ज्ञान का ओर न तेरा ||१६||

है अगम्य तव रूप करे सुरपति प्रभु सेवा |
ना कछु तुम उपकार हेत देवन के देवा ||
भक्ति तिहारी नाथ इंद्र के तोषित मन को |
ज्यों रवि सन्मुख छत्र करे छाया निज तन को ||१७||

वीतरागता कहाँ कहाँ उपदेश सुखाकर |
सो इच्छा प्रतिकूल वचन किम होय जिनेसर ||
प्रतिकूली भी वचन जगत् कूँ प्यारे अति ही |
हम कछु जानी नाहिं तिहारी सत्यासति ही ||१८||

उच्च प्रकृति तुम नाथ संग किंचित् न धरनितैं |
जो प्रापति तुम थकी नाहिं सो धनेसुरनतैं ||
उच्च प्रकृति जल विना भूमिधर धूनी प्रकासै |
जलधि नीरतैं भर्यो नदी ना एक निकासै ||१९||

तीन लोक के जीव करो जिनवर की सेवा |
नियम थकी कर दंड धर्यो देवन के देवा ||
प्रातिहार्य तो बनैं इंद्र के बनै न तेरे |
अथवा तेरे बनै तिहारे निमित परे रे ||२०||

तेरे सेवक नाहिं इसे जे पुरुष हीन-धन |
धनवानों की ओर लखत वे नाहिं लखत पन ||
जैसैं तम-थिति किये लखत परकास-थिती कूं |
तैसैं सूझत नाहिं तमथिती मंदमती कूं ||२१||

निज वृध श्वासोच्छ्वास प्रगट लोचन टमकारा |
तिनकों वेदत नाहिं लोकजन मूढ़ विचारा ||
सकल ज्ञेय ज्ञायक जु अमूरति ज्ञान सुलच्छन |
सो किमि जान्यो जाय देव तव रूप विचच्छन ||२२||

नाभिराय के पुत्र पिता प्रभु भरत तने हैं |
कुलप्रकाशि कैं नाथ तिहारो स्तवन भनै हैं ||
ते लघु-धी असमान गुनन कों नाहिं भजै हैं |
सुवरन आयो हाथ जानि पाषान तजैं हैं ||२३||

सुरासुरन को जीति मोह ने ढोल बजाया |
तीन लोक में किये सकल वशि यों गरभाया ||
तुम अनंत बलवंत नाहिं ढिंग आवन पाया |
करि विरोध तुम थकी मूलतैं नाश कराया ||२४||

एक मुक्ति का मार्ग देव तुमने परकास्या |
गहन चतुरगति मार्ग अन्य देवन कूँ भास्या ||
‘हम सब देखनहार’ इसीविधि भाव सुमिरिकैं |
भुज न विलोको नाथ कदाचित् गर्भ जु धरिकैं ||२५||

केतु विपक्षी अर्क-तनो पुनि अग्नि तनो जल |
अंबुनिधी अरि प्रलय-काल को पवन महाबल ||
जगत्-माँहिं जे भोग वियोग विपक्षी हैं निति |
तेरो उदयो है विपक्ष तैं रहित जगत्-पति ||२६||

जाने बिन हूँ नमत आप को जो फल पावे |
नमत अन्य को देव जानि सो हाथ न आवे ||
हरी मणी कूँ काच काच कूँ मणी रटत हैं |
ताकी बुधि में भूल मूल्य मणि को न घटत है ||२७||

जे विवहारी जीव वचन में कुशल सयाने |
ते कषाय-मधि-दग्ध नरन कों देव बखानैं ||
ज्यों दीपक बुझि जाय ताहि कह ‘नंदि’ गयो है |
भग्न घड़े को कहैं कलस ए मँगलि गयो है ||२८||

स्याद्वाद संजुक्त अर्थ को प्रगट बखानत |
हितकारी तुम वचन श्रवन करि को नहिं जानत ||
दोषरहित ए देव शिरोमणि वक्ता जग-गुरु |
जो ज्वर-सेती मुक्त भयो सो कहत सरल सुर ||२९||

बिन वांछा ए वचन आपके खिरैं कदाचित् |
है नियोग ए कोऽपि जगत् को करत सहज-हित ||
करै न वाँछा इसी चंद्रमा पूरो जलनिधि |
शीत रश्मि कूँ पाय उदधि जल बढै स्वयं सिधि ||३०||

तेरे गुण-गंभीर परम पावन जगमाँहीं |
बहुप्रकार प्रभु हैं अनंत कछु पार न पाहीं ||
तिन गुण को अंत एक याही विधि दीसै |
ते गुण तुझ ही माँहिं और में नाहिं जगीसै ||३१||

केवल थुति ही नाहिं भक्तिपूर्वक हम ध्यावत |
सुमिरन प्रणमन तथा भजनकर तुम गुण गावत ||
चितवन पूजन ध्यान नमन करि नित आराधैं |
को उपाव करि देव सिद्धि-फल को हम साधैं ||३२||

त्रैलोकी-नगराधिदेव नित ज्ञान-प्रकाशी |
परम-ज्योति परमात्म-शक्ति अनंती भासी ||
पुन्य पापतैं रहित पुन्य के कारण स्वामी |
नमौं नमौं जगवंद्य अवंद्यक नाथ अकामी ||३३||

रस सुपरस अर गंध रूप नहिं शब्द तिहारे |
इनि के विषय विचित्र भेद सब जाननहारे ||
सब जीवन-प्रतिपाल अन्य करि हैं अगम्य जिन |
सुमरन-गोचर माहिं करौं जिन तेरो सुमिरन ||३४||

तुम अगाध जिनदेव चित्त के गोचर नाहीं |
नि:किंचन भी प्रभू धनेश्वर जाचत सोई ||
भये विश्व के पार दृष्टि सों पार न पावै |
जिनपति एम निहारि संत-जन सरनै आवै ||३५||

नमौं नमौं जिनदेव जगत्-गुरु शिक्षादायक |
निजगुण-सेती भई उन्नती महिमा-लायक ||
पाहन-खंड पहार पछैं ज्यों होत और गिर |
त्यों कुलपर्वत नाहिं सनातन दीर्घ भूमिधर ||३६||

स्वयंप्रकाशी देव रैन दिनसों नहिं बाधित |
दिवस रात्रि भी छतैं आपकी प्रभा प्रकाशित ||
लाघव गौरव नाहिं एक-सो रूप तिहारो |
काल-कला तैं रहित प्रभू सूँ नमन हमारो ||३७||

इहविधि बहु परकार देव तव भक्ति करी हम |
जाचूँ कर न कदापि दीन ह्वै रागरहित तुम ||
छाया बैठत सहज वृक्षके नीचे ह्वै है |
फिर छाया कों जाचत यामें प्रापति क्वै है ||३८||

जो कुछ इच्छा होय देन की तौ उपगारी |
द्यो बुधि ऐसी करूँ प्रीतिसौं भक्ति तिहारी ||
करो कृपा जिनदेव हमारे परि ह्वै तोषित |
सनमुख अपनो जानि कौन पंडित नहिं पोषित ||३९||

यथा-कथंचित् भक्ति रचै विनयी-जन केई |
तिनकूँ श्रीजिनदेव मनोवाँछित फल देही ||
पुनि विशेष जो नमत संतजन तुमको ध्यावै |
सो सुख जस ‘धन-जय’ प्रापति है शिवपद पावै ||४०||

श्रावक ‘माणिकचंद’ सुबुद्धी अर्थ बताया |
सो कवि ‘शांतीदास’ सुगम करि छंद बनाया ||
फिरि-फिरिकै ऋषि-रूपचंद ने करी प्रेरणा |
भाषा-स्तोतर की विषापहार पढ़ो भविजना ||४१||


जैन धर्म के अत्यधिक पढ़े जाने वाले स्तोत्र :

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