सान्त्वनाष्टक | Santvashtak

सान्त्वनाष्टक 

रचनाकार :- ब्र. रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’

शांत चित्त हो, निर्विकल्प हो, आत्मन् निज में तृप्त रहो।
व्यग्र ना हो क्षुब्ध ना हो, चिदानंद रस सहज पियो ।।टेक।।

स्वयं स्वयं में सर्व वस्तुएं, सदा परिणमित होती हैं।
इष्ट अनिष्ट ना कोई जग में, व्यर्थ कल्पना झूठी हैं।।
धीर वीर हो मोह भाव तज, आत्म अनुभव किया करो ।।1।।

देखो प्रभु के ज्ञान माँहि सब, लोकालोक झलकता है।
फिर भी सहज मग्न अपने में, लेश नहीं आकुलता है।।
सच्चे भक्त बनो प्रभुवर के, ही पथ का अनुसरण करो ।।2।।

देखो मुनिराजों पर भी, कैसे-कैसे उपसर्ग हुए।
धन्य धन्य वे साधु साहसी, आराधन से नहीं चिगे।।
उन को निज-आदर्श बनाओ, उर में समता-भाव धरो ।।3।।

व्याकुल होना तो दुख से, बचने का कोई उपाय नहीं।
होगा भारी पाप बंध ही, होवे भव्य अपाय नहीं।।
ज्ञानाभ्यास करो मन माहीं, दुर्विकल्प दुख रूप तजो ।।4।।

अपने में सर्वस्व है अपना, पर द्रव्यों में लेश नहीं।
हो विमूढ़ पर में ही क्षण-क्षण, करो व्यर्थ संक्लेश नहीं।।
अरे विकल्प अकिंचितकर ही, ज्ञाता हो ज्ञाता ही रहो ।।5।।

अंतर्दृष्टि से देखो नित, परमानंदमय आत्मा।
स्वयं सिद्ध निर्द्वंद निरामय, शुद्ध-बुद्ध परमात्मा।।
आकुलता का काम नहीं कुछ, ज्ञानानंद का वेदन हो ।।6।।

सहज तत्व की सहज भावना, ही आनंद प्रदाता है।
जो ध्यावे निश्चय शिव पावे, आवागमन मिटाता है।।
सहज तत्व ही सहज ध्येय है, सहज रुप नित ध्यान धरो ।।7।।

उत्तम जिन वचनामृत पाया, अनुभव कर स्वीकार करो।
पुरुषार्थी हो स्वाश्रय से, इन विषयों का परिहार करो।।
ब्रह्म भावमय मंगल चर्या, हो निज में ही मगन रहो ।।8।।

।। इति श्री सान्त्वनाष्टक सम्पूर्ण ।।


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