श्री कल्याण मंदिर स्तोत्र हिंदी अर्थ सहित

श्री कल्याण मंदिर स्तोत्र हिंदी अर्थ सहित । कल्याण मंदिर स्तोत्र का दूसरा नाम पार्श्वनाथ स्तोत्र भी प्रचलित है।  संस्कृत स्तोत्र के मूल रचनाकार आचार्य श्री कुमुदचंद्र स्वामी है। इनका अपरनाम सिद्धसेन दिवाकर भी है। अनेक तरह से लाभकारी और कल्याणकारी, इस स्तोत्र का पाठ भक्तजन बड़े ही भक्ति भाव व विनय पूर्वक करते है। भक्ति रस से परिपूर्ण, इसका पाठ मन को भक्ति गंगा में डूबा देता है और अक्षय पुण्य संचित करने में सहायक बनता है।

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: – श्री कल्याण मंदिर स्तोत्र हिंदी अर्थ सहित  : –

( रचयिता : आचार्यदेव श्री कुमुदचन्द्र स्वामी ‘अपरनाम सिद्धसेन दिवाकर ‘ )

(वसन्ततिलका छन्द)

(मंगलाचरण)

कल्याण- मन्दिरमुदारमवद्य-भेदि
भीताभय-प्रदमनिन्दितमङ्घ्रि- पद्मम् ।
संसार-सागर-निमज्जदशेषु-जन्तु –
पोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ॥१ ॥

 

यस्य स्वयं सुरगुरुर्गरिमाम्बुराशेः
स्तोत्रं सुविस्तृत-मतिर्न विभुर्विधातुम् ।
तीर्थेश्वरस्य कमठ-स्मय- धूमकेतो-
स्तस्याहमेष किल संस्तवनं करष्येि ॥ २ ॥

अन्वयार्थ – (कल्याणमंदिरम्) कल्याणों के मंदिर (उदारम्) दाता या महान् (अवद्यभेदि) पापों को नष्ट करने वाले (भीताभयप्रदम्) संसार से डरे हुए जीवों को अभयपद देने वाले (अनिन्दितं) प्रशंसनीय (संसार-सागर-निमज्ज-दशेषजन्तुपोतायमानम् ) संसाररूपी समुद्र में डूबते हुए समस्त जीवों के लिए जहाज के समान (जिनेश्वरस्य) जिनेन्द्र भगवान् के (अङ्घ्रिपद्मम्) चरण-कमलों को (अभिनम्य) नमस्कार करके (गरिमाम्बुराशेः) गौरव के समुद्र- स्वरूप (यस्य) जिन पार्श्वनाथ की (स्तोत्रम् विधातुम्) स्तुति करने के लिए (स्वयं सुविस्तृतमतिः) स्वयं विशाल बुद्धि वाले (सुरगुरुः) बृहस्पति भी (विभुः) समर्थ (न ‘अस्ति’) नहीं है (कमठ – स्मयधूमकेतोः) कमठ का मान भस्म करने के लिए अग्निस्वरूप ( तस्य तीर्थेश्वरस्य) उन पार्श्वनाथ भगवान् की (किल) आश्चर्य है कि (एष: अहं) यह मैं (संस्तवनम् करिष्ये) स्तुति करूँगा।

भावार्थ– जिनेन्द्र ! भगवान् के चरण कमलों को नमस्कार कर मैं उन पार्श्वनाथ स्वामी की स्तुति करता हूँ, जो गुरुता के समुद्र थे और कमठ का मान मर्दन करने वाले थे तथा बृहस्पति भी जिनकी स्तुति करने के लिए समर्थ नहीं हो सका था।

( लघुता अभिव्यक्ति )

सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप-
मस्मादृशः कथमधीश भवन्त्यधीशाः ।
धृष्टोऽपि कौशिक- शिशुर्यदि वा दिवान्धो
रूपं प्ररूपयति किं किल घर्मरश्मेः ॥३ ॥

अन्वयार्थ – (अधीश !) हे स्वामिन्! (सामान्यतः अपि) साधारण रीति से भी (तव) आपके (स्वरूपं) स्वरूप को (वर्णयितुं ) वर्णन करने
लिए (अस्मादृशाः मुझ जैसे मनुष्य (कथम्) कैसे (अधीशा) समर्थ (भवन्ति) हो सकते हैं? अर्थात् नहीं हो सकते हैं (यदि वा) अथवा ( दिवान्धः) दिन में अन्धा रहने वाला ( कौशिकशिशुः) उल्लू का बच्चा (धृष्टः अपि ‘सन् ‘) धीठ होता हुआ भी (किम् ) क्या (घर्मरश्मेः) सूर्य के (रूपम्) रूप की (प्ररूपयति किल) वर्णन कर सकता है? अर्थात् नहीं कर सकता।

भावार्थ – हे प्रभो ! जिस तरह उल्लू का बालक सूर्य के रूप का वर्णन नहीं कर सकता, क्योंकि जब तक सूर्य रहता है तब तक वह अन्धा रहता है, इसी तरह मैं आपके सामान्य स्वरूप का भी वर्णन नहीं कर सकता, क्योंकि मैं भी मिथ्याज्ञानरूपी अन्धकार से अन्धा होकर आपके दर्शन से वञ्चित रहा हूँ।

( अनिर्वचनीय गुणमहिमा )

मोह-क्षयादनुभवन्नपि नाथ मर्त्यो
नूनं गुणान्गणयितुं न तव क्षमेत।
कल्पान्त-वान्त- पयसः प्रकटोऽपि यस्मा-
मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशिः ॥४ ॥

अन्वयार्थ – ( नाथ ! ) हे नाथ! ( मर्त्यः) मनुष्य (मोहक्षयात्) मोहनीयकर्म के क्षय से (अनुभवन् अपि) अनुभव करता हुआ भी (तव) आपके (गुणान् गुणों को (गणयितुम् ) गिनने के लिए (नूनम् ) निश्चय करके ( न क्षमेत) समर्थ नहीं हो सकता ( यस्मात् ) क्योंकि ( कल्पान्त- वान्तपयसः) प्रलयकाल के समय जिसका पानी बाहर हो गया है ऐसे (जलधेः) समुद्र की (प्रकट: अपि ) प्रकट हुई भी ( रत्नराशिः) रत्नों की राशि (ननु केन मीयेत ) किसके द्वारा गिनी जा सकती है? अर्थात् किसी के द्वारा नहीं ।

भावार्थ– हे प्रभो! जिसतरह प्रलयकाल में पानी न होने से साफ साफ दिखने वाले समुद्र के रत्नों को कोई नहीं गिन पाता उसी तरह मिथ्यात्व के अभाव से साफ साफ दिखने वाले आपके गुणों को कोई नहीं गिन सकता, क्योंकि वे अनन्तानन्त हैं ।

 ( अल्पज्ञता प्रदर्शन )

अभ्युद्यतोऽस्मि तव नाथ जडाशयोऽपि
कर्तुं स्तवं लसदसंख्य-गुणाकरस्य ।
बालोऽपि किं न निज- बाहु-युगं वितत्य
विस्तीर्णतां कथयति स्वधियाम्बुराशेः ॥५ ॥

अन्वयार्थ – (नाथ) हे नाथ! (‘अहम्’ जडाशय: अपि ) मैं मूर्ख भी (लस-दसंख्यगुणाकरस्य) सुशोभित असंख्यात गुणों की खानि स्वरूप (तव) आपके (स्तवम् कर्तुम्) स्तवन करने के लिए (अभ्युद्यतः अस्मि) तैयार हुआ हूँ, क्योंकि (बाल: अपि) बालक भी (स्वधिया) अपनी बुद्धि के अनुसार (निजबाहुयुगम् ) अपने दोनों हाथों को (वितत्य) फैलाकर (किम् ) क्या (अम्बुराशेः) समुद्र के ( विस्तीर्णताम् ) विस्तार को (न कथयति) नहीं कहता ? अर्थात् कहता है ।

भावार्थ – हे नाथ! जैसे बालक शक्ति न रहते हुए भी समुद्र का विस्तार वर्णन करने के लिए तैयार रहता है वैसे ही मैं भी आपकी स्तुति करने के लिए तैयार हूँ।

( अविचारित कार्य )

ये योगिनामपि न यान्ति गुणास्तवेश
वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः।
जाता तदेवमसमीक्षित-कारितेयं
जल्पन्ति वा निज-गिरा ननु पक्षिणोऽपि ॥६॥

अन्वयार्थ – ( ईश ! ) हे भगवन्! (तव) आपके (ये गुणाः) जो गुण (योगिनाम् अपि) योगियों को भी ( वक्तुम्) कहने के लिए (न यान्ति) नहीं प्राप्त होते अर्थात् जिनका कथन योगीजन भी नहीं कर सकते (तेषु) उनमें (मम) मेरा (अवकाशः) अवकाश (कथम् भवति) कैसे हो सकता है? अर्थात् मैं उन्हें कैसे वर्णन कर सकता हूँ? (तत्) इसलिए ( एवम् इयम्) इस प्रकार मेरा यह (असमीक्षितकारिता जाता ) बिना विचारे काम करता हुआ (वा) अथवा (पक्षिणः अपि) पक्षी भी (निजगिरा ) अपनी वाणी से ( जल्पन्ति ननु) बोला करते हैं।

भावार्थ– हे प्रभो! आपका स्तवन प्रारम्भ करने के पहले मैंने इस बात का विचार नहीं किया कि आपके जिन गुणों का वर्णन बड़े-बड़े योगी भी नहीं कर सकते हैं उनका वर्णन मैं कैसे करूँगा? इसलिए हमारी यह प्रवृत्ति बिना विचारे हुई है।

( प्रभु नाम )

आस्तामचिन्त्य – महिमा जिन संस्तवस्ते
नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति ।
तीव्रातपोपहत- पान्थ-जनान्निदाघे
प्रीणाति पद्म-सरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥७॥

अन्वयार्थ – ( जिन !) हे जिनेन्द्र ! (अचिन्त्यमहिमा) अचिन्त्य है महिमा जिसकी, ऐसा (ते) आपका (संस्तवः ) स्तवन (आस्ताम् ) दूर रहे, (भवतः) आपका (नाम अपि) नाम भी ( जगन्ति ) जीवों को (भवतः ) संसार से ( पाति) बचा लेता है, क्योंकि ( निदाघे) ग्रीष्मकाल में (तीव्रातपोपहत-पान्थजनान्) तीव्र घाम से सताये हुए पथिकजनों को (पद्मसरसः) कमलों के सरोवर का ( सरसः) शीतल (अनिलः अपि) पवन भी (प्रीणाति) संतुष्ट करता है ।

भावार्थ – हे देव ! आपके स्तवन की तो अचिन्त्य महिमा है ही, पर आपका नाम मात्र भी जीवों को संसार के दुःखों से बचा लेता है। जैसे ग्रीष्मऋतु में घाम से पीड़ित मनुष्यों को कमलयुक्त सरोवर तो सुख पहुँचा ही हैं, पर उन सरोवरों की शीतल हवा भी सुख पहुँचाती है।

( जिन भक्ति से कर्मनाश )

हृद्-वर्तिनि त्वयि विभो ! शिथिली – भवन्ति,
जन्तोः क्षणेन निबिडा अपि कर्मबन्धाः |
सद्यो भुजङ्गम-मया इव मध्यभाग,
मभ्यागते वन- शिखण्डिनि चन्दनस्य ॥८॥

अन्वयार्थ – ( विभो ! ) हे स्वामिन्! ( त्वयि ) आपके (हृद्वर्तिनि ‘सति’) हृदय में मौजूद रहते हुए (जन्तोः) जीवों के (निबिडाः कर्मबन्धाः अपि) सघन कर्मों के बन्धन भी ( क्षणेन) क्षणभर में (वनशिखण्डिनि अभ्यागते) वन मयूर के आने पर (चन्दनस्य मध्यभागम् ‘सति’) चन्दनवृक्ष के मध्यभाग में (भुजङ्गम-मयाः इव) सर्पों के बंधनरूप कुण्डलियों के समान (सद्यः) शीघ्र ही (शिथिलीभवन्ति ) ढीले पड़ जाते हैं।

भावार्थ – हे भगवन् ! जिस तरह मयूर के आते ही चन्दन वृक्ष लिपटे हुए साँप ढीले पड़ जाते हैं उसी तरह जीवों के हृदय में आपके आने पर उनके कर्मबन्धन ढीले पड़ जाते हैं।

( प्रभु दर्शन की महिमा )

मुच्यन्त एव मनुजाः सहसा जिनेन्द्र !
रौद्रैरुपद्रव – शतैस्त्वयि वीक्षितेऽपि ।
गो-स्वामिनि स्फुरित – तेजसि दृष्टमात्रे:,
चारै-रिवा पशवः प्रपलायमानैः॥९॥

अन्वयार्थ – ( जिनेन्द्र ! ) हे जिनेन्द्र ! ( स्फुरिततेजसि ) पराक्रमी (गोस्वामिनि दृष्टमात्रे) राजा के दिखते ही (आशु) शीघ्र ही (प्रपलाय- मानैः) भागते हुए (चौरैः) चोरों के द्वारा (पशवः इव) पशुओं की तरह (त्वयि वीक्षिते अपि) आपके दिखते ही / आपके दर्शन करते ही (मनुजाः) मनुष्य (रौद्रैः) भयङ्कर (उपद्रवशतैः) सैकड़ों उपद्रवों के द्वारा (सहसा एव) शीघ्र ही (मुच्यन्ते) छोड़ दिये जाते हैं ।

भावार्थ – हे नाथ! जिस तरह तेजस्वी मालिक के दिखते ही चोर चुराई हुई गायों को छोड़कर शीघ्र ही भाग जाते हैं उसीतरह आपके दर्शन होते ही अनेक भयंकर उपद्रव मनुष्यों को छोड़कर भाग जाते हैं।

( भवसिन्धु तारक जिन )

त्वं तारको जिन! कथं भविनां त एव,
त्वामुद् वहन्ति हृदयेन यदुत्तरन्तः ।
यद्वा दृतिस्तरति यज्जल – मेष नून-,
मन्तर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः ॥१०॥

अन्वयार्थ – (जिन) हे जिनेन्द्रदेव! (त्वम्) आप (भविनाम्) संसारी जीवों के (तारकः कथम्) तारने वाले कैसे हो सकते हैं? (यत्) क्योंकि ( उत्तरन्तः ) संसार – समुद्र से पार होते हुए (ते एव) वे संसारी जीव ही (हृदयेन) हृदय से (त्वाम् ) आपको (उद्वहन्ति) तिरा ले जाते हैं । (यद्वा) अथवा ठीक ही है (दृतिः) मसक (यत्) जो (जलम् तरति ) जल में तैरती है ( स एषः) वह यह ( नूनम् ) निश्चय से ( अन्तर्गतस्य) भीतर स्थित (मरुतः) हवा का (किल अनुभावः) निश्चित ही प्रभाव है।

भावार्थ – हे प्रभो ! जिस तरह भीतर भरी हुई वायु के प्रभाव से मसक पानी में तैरती है उसी तरह आपको हृदय में धारण करने वाले (मन से आपका चिन्तन करने वाले) पुरुष आपके ही प्रभाव से संसार-समुद्र से तिरते हैं।

( मदन विजेता पार्श्वनाथ )

यस्मिन् हर – प्रभृतयोऽपि हत – प्रभावाः,
सोऽपि त्वया रतिपतिः क्षपितः क्षणेन ।
विध्यापिता हुतभुजः पयसाथ येन, अनविद्यापीठ
पीतं न किं तदपि दुर्धर – वाडवेन ॥ ११॥

अन्वयार्थ – ( यस्मिन्) जिसके विषय में (हरप्रभृतयः अपि) विष्णु- महादेव आदि भी (हतप्रभावाः ‘जाता:’) प्रभाव रहित हो गए हैं (सः) वह (रतिपतिः अपि) कामदेव भी (त्वया) आपके द्वारा (क्षणेन) क्षणमात्र में (क्षपितः) नष्ट कर दिया गया (अथ) अथवा ठीक है कि (येन पयसा ) जिस जल के द्वारा ( हुतभुजः विध्यापिताः) अग्नि बुझायी जाती है (तत् अपि) वह जल भी (दुर्द्धरवाडवेन) प्रचण्ड बड़वानल से (किम्) क्या (न पीतम्) नहीं पिया गया? अर्थात् पिया गया।

भावार्थ– जिस काम ने हरि-हर-ब्रह्मा आदि महापुरुषों को पराजित कर दिया था उस काम को भी आपने पराजित कर दिया यह आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि जो जल संसार की समस्त अग्नि को नष्ट करता है उस जल को भी बड़वानल नामक समुद्र की अग्नि नष्ट कर डालती है ।

( महापुरुषों का अचिन्त्य प्रभाव )

स्वामिन्! – ननल्प – गरिमाणमपि प्रपन्नाः,
त्वां जन्तवः कथमहो हृदये दधानाः ।
जन्मोदधिं लघु तरन्त्यति – लाघवेन,
चिन्त्यो न हन्त महतां यदि वा प्रभावः॥१२॥

अन्वयार्थ – ( स्वामिन्!) हे प्रभो ! (अहो ) आश्चर्य है कि (अनल्प- गरिमाणम् अपि) अधिक गौरव से युक्त भी विरोध पक्ष में- अत्यन्त वजनदार (त्वाम्) आपको (प्रपन्नाः) प्राप्त हो (हृदये दधानाः) हृदय में धारण करने वाले (जन्तवः) प्राणी (जन्मोदधिम् ) संसार – समुद्र को (अतिलाघवेन ) बहुत ही लघुता से ( कथम्) कैसे (लघु तरन्ति) शीघ्र तर जाते हैं (यदि वा) अथवा (हन्त) हर्ष है कि (महताम्) महापुरुषों का (प्रभाव:) प्रभाव (चिन्त्यः) चिन्तन के योग्य ( न भवति) नहीं होता है ।

भावार्थ – श्लोक में आये हुए ‘अनल्पगरिमाणम्’ पद के ‘अधिक वजनदार’और ‘“ अत्यन्त गौरव से युक्त श्रेष्ठ” इस तरह दो अर्थ होते हैं । उनमें से आचार्य ने प्रथम अर्थ को लेकर उस विरोध को बतलाते हुए आश्चर्य प्रकट किया है और दूसरे अर्थ को लेकर उस विरोध का परिहार किया है।

( क्रोध के अभाव का प्रभाव )

क्रोधस्त्वया यदि विभो ! प्रथमं निरस्तो,
ध्वस्तास्तदा वद कथं किल कर्मचौराः ।
प्लोषत्यमुत्र यदि वा शिशिरापि लोके,
नीलद्रुमाणि विपिनानि न किं हिमानी ॥ १३ ॥

अन्वयार्थ – (विभो ) हे प्रभो ! (यदि) यदि (त्वया) आपके द्वारा (क्रोध) क्रोध (प्रथमम् ) पहले ही (निरस्तः) नष्ट कर दिया गया था, (तदा) तो फिर (वद) कहिए कि आपने ( कर्मचौरा:) कर्मरूपी चोर (कथम्) कैसे (ध्वस्ताः किल ) नष्ट किए? (यदि वा ) अथवा (अमुत्र लोके) इसलोक में (हिमानी) बर्फ – तुषार (शिशिरापि) ठण्डा होने पर भी (किम्) क्या (नीलद्रुमाणि) हरे-हरे हैं वृक्ष जिनमें ऐसे (विपिनानि) वनों को (न प्लोषति) नहीं जला देता है? अर्थात् जला देता है / मुरझा देता है।

भावार्थ– लोक में ऐसा देखा जाता है कि क्रोधी मनुष्य ही शत्रुओं को जीतते हैं, पर भगवन् आपने क्रोध को तो नवमें गुणस्थान में ही जीत लिया था। फिर क्रोध के अभाव में चौदहवें गुणस्थान तक कर्मरूपी शत्रुओं को कैसे जीता? आचार्य ने इस लोकविरुद्ध बात पर पहले आश्चर्य प्रकट किया, पर जब बाद में उन्हें ख्याल आता है कि ठण्डा तुषार बड़े- बड़े वनों को क्षणभर में जला देता है अर्थात् क्षमा से भी शत्रु जीते जा सकते हैं, तब वे अपने आश्चर्य का स्वयं समाधान कर लेते हैं।

( आत्मा की खोज )

त्वां योगिनो जिन ! सदा परमात्मरूप,
मन्वेषयन्ति हृदयाम्बुज कोशदेशे ॥
पूतस्य निर्मल-रुचेर्यदि वा किमन्य,
दक्षस्य सम्भव – पदं ननु कर्णिकायाः ॥१४॥

अन्वयार्थ – (जिन !) हे जिन ! (योगिनः) ध्यान करने वाले मुनीश्वर (सदा) हमेशा (परमात्मरूपम्) परमात्मास्वरूप ( त्वाम् ) आपको (हृदयाम्बुज – कोशदेशे) अपने हृदयरूप कमल के मध्यभाग में (अन्वेष- यन्ति) खोजते हैं (यदि वा) अथवा ठीक है कि ( पूतस्य निर्मलरुचेः) पवित्र और निर्मल कान्ति वाले (अक्षस्य) कमल के बीज का अथवा शुद्धात्मा का (सम्भवपदम् ) उत्पत्ति स्थान अथवा खोज करने का स्थान (कर्णिकायाः अन्यत्) कमल की कर्णिका / डण्ठल को छोड़कर अथवा हृदय – कमल की कर्णिका को छोड़कर (अन्यत् किम् ननु) दूसरा क्या हो जैन विद्यापीठ सकता है?

भावार्थ– बड़े बड़े योगीश्वर ध्यान करते समय अपने हृदय कमल में आपको खोजते हैं, क्योंकि वे समझते हैं कि जैसे कमल बीज की उत्पत्ति कमल कर्णिका में ही होती है उसी तरह शुद्धात्म स्वरूप आपका सद्भाव भी हृदय कमल की कर्णिका में ही होगा । श्लोक में आये हुए अक्ष शब्द के ‘कमलबीज कमलगटा’ और आत्मा (अक्ष्णोति -जानातीत्यक्षः = आत्मा) इस तरह दो अर्थ होते हैं ।

( परमात्म ध्यान का लाभ )

ध्यानाज्जिनेश! भवतो भविनः क्षणेन,
देहं विहाय परमात्म- दशां व्रजन्ति ॥
तीव्रानलादुपल – भावमपास्य लोके,
चामीकरत्वमचिरादिव धातु – भेदाः ॥१५॥

अन्वयार्थ – (जिनेश ! ) हे जिनेश ! (लोके) लोक में (इव) जैसे (तीव्रानलात्) तीव्र अग्नि के सम्बन्ध से (धातुभेदा: ) अनेक धातुएँ (उपलभावम्) पत्थररूप पूर्वपर्याय को (अपास्य) छोड़कर (अचिरात्) शीघ्र ही (चामीकरत्वम्) सुवर्ण पर्याय को (व्रजन्ति) प्राप्त होती हैं उसी तरह (भविनः) संसार के प्राणी (भवतः ) आपके (ध्यानात्) ध्यान से ( देहम् ) शरीर को (विहाय) छोड़कर (क्षणेन) क्षणभर में (परमात्म- दशाम्) परमात्मा की अवस्था को (व्रजन्ति) प्राप्त होते हैं |

भावार्थ– जो जीव आपका ध्यान करते हैं वे थोड़े ही समय में शरीर छोड़कर मुक्त हो जाते हैं ।

( ध्यान से बन्धन मुक्ति )

अन्तः सदैव जिन ! यस्य विभाव्यसे त्वम्,
भव्यैः कथं तदपि नाशयसे शरीरम् ? ।
एतत्स्वरूपमथ मध्य-विवर्तिनो हि,
यद्विग्रहं प्रशमयन्ति महानुभावाः ॥ १६॥

अन्वयार्थ – ( जिन !) हे जिनेन्द्र ! (भव्यैः) भव्यजीवों के द्वारा (यस्य) जिस शरीर के (अन्तः) भीतर (त्वम् ) आप (सदैव) हमेशा (विभाव्यसे) ध्याये जाते हैं (तत्) उस (शरीरम् अपि) शरीर को ही आप (कथम्) क्यों (नाशयसे) नष्ट करा देते हैं? (अथ) अथवा ( एतत् स्वरूपम्) यह स्वभाव ही है (यत्) कि (मध्यविवर्तिनः) मध्यस्थ-बीच में रहने वाले और राग-द्वेष से रहित (महानुभावा:) महापुरुष (विग्रहम्) विग्रह शरीर और द्वेष को ( प्रशमयन्ति ) शान्त करते हैं ।

भावार्थ– लोक में रीति प्रचलित है कि जो जहाँ रहता है अथवा जहाँ जिसका ध्यान सम्मान आदि किया जाता है वह उस जगह का विनाश नहीं करता । पर भगवन्! आप भव्य जीवों के जिस शरीर में हमेशा सन्मान पूर्वक ध्याये जाते हैं आप उन्हें उसी तरह विग्रह (शरीर) को नष्ट करने का उपदेश देते हैं । आचार्य को पहले इस लोकविरुद्ध बात पर भारी आश्चर्य होता है पर जब उनकी दृष्टि विग्रह शब्द के द्वेष अर्थ पर जाती है तब उनका आश्चर्य दूर हो जाता है । श्लोक में आये हुए विग्रह शब्द के दो अर्थ हैं एक ‘शरीर’ और दूसरा ‘द्वेष’ इसी तरह ’ मध्यविवर्तिनः ’ शब्द के भी दो अर्थ हैं एक “बीच में रहने वाला” और दूसरा “रागद्वेष से रहित समताभावी ” ।

( परमात्म स्वरूप का अनुभव )

आत्मा मनीषिभि-रयं त्वदभेद-बुद्धया
ध्यातो जिनेन्द्र ! भवतीह भवत्प्रभावः ।
पानीय-मप्यमृत-मित्यनुचिन्त्यमानं,
किन्नाम नो विष-विकार – मपाकरोति ॥१७॥

अन्वयार्थ – (जिनेन्द्र !) हे जिनेन्द्र ! ( मनीषिभिः) बुद्धिमानों के द्वारा (त्वदभेद-बुद्ध्या ) ” आपसे अभिन्न है” ऐसी बुद्धि से (ध्यातः) ध्यान किया गया (अयम् आत्मा) यह आत्मा (भवत्प्रभावः) आप ही के समान प्रभाव वाला (भवति) हो जाता है (अमृतम् इति अनुचिन्त्यमानम्) यह अमृत है, इस तरह निरन्तर चिन्तन किया जाने वाला (पानीयम् अपि) पानी भी (किम्) क्या (विषविकारम्) विष के विकार को (नो अपाकरोति नाम) दूर नहीं करता? अर्थात् करता है ?

भावार्थ– जो पुरुष अपने आपको आपसे अभिन्न अनुभव करता है अर्थात् जो सोचता है कि – ” भगवन् ! जैसी विशुद्ध आत्मा आपकी है निश्चय नय से हमारी आत्मा भी वैसी ही आपके समान विशुद्ध है किन्तु वर्तमान में कर्मोदय से अशुद्ध हो रही है । यदि मैं भी आपके रास्ते पर चलने का प्रयत्न करूँ तो मेरी आत्मा भी शुद्ध हो जायेगी” | ऐसा सोचकर जो शुद्ध होने का प्रयत्न करता है वह आपके ही समान शुद्ध हो जाता है । जैसे कि यह अमृत है, इस प्रकार निरन्तर चिन्तन किया गया पानी मन्त्रादि के संयोग से अमृतरूप हो जाता है और विष के विकार को दूर करने लगता है।

( सर्वमान्य वीतराग जिन )

त्वामेव वीत तमसं परवादिनोऽपि,
नूनं विभो ! हरिहरादिधिया प्रपन्नाः ।
किं काच- कामलिभिरीश ! सितोऽपि शङ्खो,
नो गृह्यते विविध – वर्ण – विपर्ययेण ॥ १८ ॥

अन्वयार्थ – (विभो !) हे स्वामिन्! ( परवादिनः अपि) अन्य मतावलम्बी पुरुष भी (वीततमसम्) अज्ञान अन्धकार से रहित (त्वाम् एव) आपको ही (नूनम्) निश्चय से (हरिहरादिधिया) विष्णु, महादेवादि की कल्पना से (प्रपन्नाः) प्राप्त होते हैं/ पूजते हैं (किम्) क्या (ईश!) हे विभो ! (काचकामलिभिः) जिनकी आँख पर रंगदार चश्मा है अथवा जिन्हें पीलिया रोग हो गया है, ऐसे पुरुषों के द्वारा (शङ्खः सित: अपि) शंख सफेद होने पर भी (विविधवर्ण – विपर्ययेण ) अनेक प्रकार के विपरीत वर्णों से (नो गृह्यते) ग्रहण नहीं किया जाता है? अर्थात् किया जाता है।

भावार्थ– हे भगवन्! जिस तरह पीले चश्मावाला अथवा पीलिया रोग वाला मनुष्य सफेद शंख को पीला समझकर ग्रहण करता है उसीतरह मिथ्यात्व के उदय से अन्य मतावलम्बी पुरुष आपको विष्णु, महेश्वर आदि मानकर पूजते हैं।

( अशोक प्रातिहार्य )

धर्मोपदेश – समये सविधानु —भावा-,
दास्तां जनो भवति ते तरुरप्यशोकः ।
अभ्युद्गते दिनपतौ समहीरुहोऽपि ।
किं वा विबोध – मुपयाति न जीवलोकः ॥१९॥

अन्वयार्थ – (धर्मोपदेशसमये) धर्मोपदेश के समय (ते) आपकी (सविधानु-भावात्) समीपता के प्रभाव से (जनः आस्ताम्) मनुष्य तो दूर रहे (तरु: अपि) वृक्ष भी (अशोक) अशोक / शोक रहित (भवति) हो जाता है। (वा) अथवा ( दिनपतौ अभ्युद्गते ‘सति’) सूर्य के उदय होने पर (समहीरुहः अपि जीवलोकः ) वृक्षों सहित समस्त जीवलोक (किम्) क्या (विबोधम्) विकास / विशेष ज्ञान को (न उपयाति) नहीं प्राप्त होते अर्थात् होते हैं।

भावार्थ – इस श्लोक में अशोक शब्द के दो अर्थ हैं एक अशोक वृक्ष और दूसरा शोक रहित । इसी तरह विबोध शब्द के भी दो अर्थ हैं एक विशेष ज्ञान और दूसरा हरा भरा तथा प्रफुल्लित होना । हे भगवन् ! जब आपके पास मे रहने वाला वृक्ष भी अशोक हो जाता है तब आपके पास रहने वाला मनुष्य अशोक अर्थात् शोक रहित हो जावे इसमें क्या आश्चर्य है? यह ‘अशोक वृक्ष’ प्रातिहार्य का वर्णन है ।

( पुष्प वृष्टि प्रातिहार्य )

चित्रं विभो ! कथमवाङ्मुख – वृन्तमेव ।
विष्वक् पतत्य- विरला सुर – पुष्प – वृष्टिः ॥
त्वद्गोचरे सुमनसां यदि वा मुनीश !
गच्छन्ति नूनमध एव हि बन्धनानि ॥२०॥

अन्वयार्थ – (विभो ! ) हे स्वामिन्! (चित्रम्) आश्चर्य है कि (विष्वक्) सब ओर (अविरला) व्यवधान रहित (सुरपुष्पवृष्टिः) देवों के द्वारा की हुई पुष्पों की वर्षा (अवाङ्मुखवृन्तम् एव) नीचे डण्ठल और ऊपर को है पांखुरी जिसकी ऐसी ही (कथम्) क्यों (पतति) गिरती है? (यदि वा) अथवा ठीक ही है कि (मुनीश !) हे मुनियों के नाथ ! ( त्वद्गोचरे) आपके समीप (सुमनसाम्) पुष्पों अथवा विद्वानों के (बन्धनानि) डंठल अथवा कर्मों के बन्धन (नूनम् हि) निश्चय से ( अध: एव गच्छन्ति) नीचे को ही जाते हैं ।

भावार्थ – इस श्लोक में सुमनस् शब्द के दो अर्थ हैं – एक फूल और दूसरा विद्वान् या देव । इसी तरह बन्धन शब्द के भी दो अर्थ हैं – एक फूलों का बन्धन डंठल और दूसरा कर्मों के प्रकृति आदि चार तरह के बन्ध। हे भगवन्! जो आपके पास रहता है उसके कर्मों के बन्धन नीचे चले जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं। इसलिए तो आपके ऊपर जो फूलों की वर्षा होती है उनमें फूलों के बन्धन नीचे होते हैं और पांखुरी ऊपर। यह ‘पुष्पवृष्टि’ प्रातिहार्य वर्णन है।

( दिव्यध्वनि प्रातिहार्य )

स्थाने गभीर – हृदयोदधि – सम्भवायाः,
पीयूषतां तव गिरः समुदीरयन्ति ।
पीत्वा यतः परम – सम्मद – सङ्ग – भाजो,
भव्या व्रजन्ति तरसाप्यजरा-मरत्वम्॥२१॥

अन्वयार्थ – (गभीरहृदयोदधिसम्भवायाः) गम्भीर हृदयरूपी समुद्र से पैदा हुई (तव) आपकी (गिरः) वाणी के (पीयूषताम् ) अमृतपने को लोग (स्थाने) ठीक ही ( समुदीरयन्ति ) प्रकट करते हैं (यतः) क्योंकि (भव्याः) भव्यजीव (ताम् पीत्वा ) उसे पीकर (परमसम्मदसङ्गभाजः ‘सन्तः ‘) परमसुख के भागी होते हुए (तरसा अपि) बहुत ही शीघ्र ( अजरामरत्वम्) अजर – अमरपने को (व्रजन्ति) प्राप्त होते हैं।

भावार्थ– लोक में प्रचलित है कि अमृत गहरे समुद्र से निकला था और उसका पान करने से देव लोग अत्यन्त आनन्दित होते हुए अजर- बुढ़ापा रहित तथा अमर=मृत्युरहित हो गये थे । भगवन्! आपकी वाणी भी आपके गंभीर हृदयरूपी समुद्र से पैदा हुई है और उसके सेवन करने से लोक परम सुखी हो अजर-अमर हो जाते हैं- मुक्त हो जाते हैं ऐसी हालत में लोग यदि यह कहें कि आपकी वाणी अमृत है तो ठीक ही कहते हैं । यह ‘दिव्यध्वनि’ प्रातिहार्य का वर्णन है ।

( चँवर प्रातिहार्य )

स्वामिन्! सुदूरमवनम्य समुत्पतन्तो,
मन्ये वदन्ति शुचयः सुरचामरौघाः ।
येऽस्मै नतिं विदधते मुनिपुङ्गवाय,
ते नून मूर्ध्वगतयः खलु शुद्धभावाः ॥२२॥

अन्वयार्थ – ( स्वामिन्!) हे स्वामिन्! ( मन्ये) मैं मानता हूँ कि (सुदूरम्) नीचे को बहुत दूर तक (अवनम्य) नम्रीभूत होकर (समुत्पतन्तः) ऊपर को आते हुए (शुचयः ) पवित्र (सुरचामरौघाः) देवों के चँवर- समूह ( वदन्ति) लोगों से कह रहे हैं कि (ये) जो (अस्मै मुनिपुङ्गवाय ) इन श्रेष्ठ मुनीन्द्र को (नतिम्) नमस्कार ( विदधते) करते हैं, (ते) वे ( नूनम् ) निश्चय से (शुद्धभावाः) विशुद्ध परिणाम वाले होकर (ऊर्ध्वगतयः) ऊर्ध्वगति वाले (खलु भवन्ति) सचमुच हो जाते हैं अर्थात् स्वर्ग/मोक्ष को प्राप्त होते हैं ।

भावार्थ– हे भगवन्! जब देवलोग आप पर चँवर ढोरते हैं तब वे चँवर पहले नीचे की ओर झुकते हैं और बाद में ऊपर को जाते हैं, सो मानों लोगों से यह कहते हैं कि भगवान् को झुककर नमस्कार करने वाले पुरुष हमारे समान ही ऊपर को जाते हैं अर्थात् स्वर्ग मोक्ष को पाते हैं । यह ‘चॅवर’ प्रातिहार्य का वर्णन है ।

( सिंहासन प्रातिहार्य )

श्यामं गभीर – गिर- मुज्ज्वल – हेमरत्न-
सिंहासनस्थमिह भव्य शिखण्डिनस्त्वाम् ।
आलोकयन्ति रभसेन नदन्त – मुच्चैश्-,
चामीकराद्रि-शिरसीव नवाम्बुवाहम्॥२३॥

अन्वयार्थ— (इह) इसलोक में (श्यामम्) श्याम वर्ण (गभीर- गिरम्) गम्भीर दिव्यध्वनि युक्त और (उज्ज्वलहेमरत्नसिंहासनस्थं) उज्ज्वल स्वर्ण से निर्मित रत्नों से जड़ित सिंहासन पर स्थित (त्वाम्) आपको (भव्य-शिखण्डिनः) भव्यजीवरूपी मयूर (चामीकराद्रिशिरसि) सुवर्णमय मेरुपर्वत के शिखर पर (उच्चैः नदन्तम् ) उच्च स्वर से गरजते हुए (नवाम्बुवाहम् इव) नूतन मेघ की तरह ( रभसेन) अति उत्सुकता से (आलोकयन्ति) देखते हैं।

भावार्थ– हे प्रभो ! जिस तरह सुवर्णमय मेरुपर्वत उमड़ते-घुमड़ते हुए गर्जना करने वाले काले मेघ को देखकर मयूरों को बहुत ही आनन्द होता है उसी तरह दिव्यध्वनि करते हुए तथा सोने के सिंहासन पर विराजमान श्यामवर्ण वाले आपके दर्शन कर भव्य जीवों को अत्यन्त आनन्द होता है । उनका मन मयूर की तरह नाचने लगता है । यह ‘सिंहासन’ प्रातिहार्य का वर्णन है ।

( भामण्डल प्रातिहार्य ) 

उद्गच्छता तव शिति-द्युति- मण्डलेन,
लुप्तच्छदच्छवि -रशोक -तरुर्बभूव ।
सान्निध्यतोऽपि यदि वा तव वीतराग !,
नीरागतां व्रजति को न सचेतनोऽपि ॥२४॥

अन्वयार्थ— (उद्गच्छता) स्फुरायमान (तव) आपके (शितिद्युति- मण्डलेन) श्याम प्रभामण्डल के द्वारा (अशोकतरुः) अशोकवृक्ष (लुप्तच्छदच्छविः) कान्तिहीन पत्रों वाला (बभूव) हो गया (यदि वा ) अथवा (वीतराग !) हे राग-द्वेष रहित देव ! ( तव सान्निध्यतः अपि ) आपकी समीपता मात्र से ही (क: सचेतनः अपि) कौन पुरुष सचेतन भी (नीरागताम् ) राग / ललाई से रहितपने अथवा अनुराग के अभाव को (न व्रजति) नहीं प्राप्त होता ? अर्थात् प्राप्त होता है ।

भावार्थ– हे भगवन्! आपकी श्यामल कान्ति के संसर्ग से अशोक वृक्ष की लालिमा दब गई सो ठीक ही है, वीतराग (ललाई रहित, दूसरे पक्ष में स्नेहरहित) के सामीप्य से कौन सचेतन – प्राणी वीतराग (ललाई रहित, दूसरे पक्ष में स्नेह रहित ) नहीं हो जाता? अर्थात् सभी हो जाते हैं । इस श्लोक में रागपद दो अर्थ वाला है – अनुराग – प्रेम – स्नेह और दूसरा लालिमा- ललाई। यह ‘भामण्डल’ प्रातिहार्य का वर्णन है ।

( दुन्दुभि प्रातिहार्य )

भो भोः प्रमाद – मवधूय भजध्वमेन-,
मागत्य निर्वृतिपुरीं प्रति सार्थवाहम् ।
एतन् निवेदयति देव! जगत्त्रयाय,
मन्ये नदन्नभिनभः सुर दुन्दुभिस्ते ॥ २५ ॥

अन्वयार्थ – (देव ! ) हे देव! (मन्ये) मैं समझता हूँ कि (अभिनभः) आकाश में सब ओर (नदन्) शब्द करती हुई (ते) आपकी (सुर दुन्दुभिः) देवों के द्वारा बजाई गई दुन्दुभि (जगत्त्रयाय) तीन लोकों के जीवों को (एतत् निवेदयति) यह सूचित करती है कि (भो भोः) रे प्राणियों ! (प्रमादम् अवधूय) प्रमाद को छोड़कर (निर्वृतिपुरीम् प्रति सार्थवाहम्) मोक्षपुरी को जाने में अगुवा (एनं ) इन पार्श्वनाथ भगवान् को (आगत्य) आकर (भजध्वम्) भजो / सेवा करो ।

भावार्थ–हे प्रभो! आकाश में जो देवों का नगाड़ा बज रहा है वह मानों तीन लोक के जीवों को चिल्ला-चिल्ला कर सचेत कर रहा है कि जो मोक्षनगरी की यात्रा के लिए जाना चाहते हैं वे प्रमाद छोड़कर भगवान् पार्श्वनाथ की सेवा करें। यह ‘दुन्दुभि’ प्रातिहार्य का वर्णन है ।

( छत्रत्रय प्रातिहार्य )

उद्योतितेषु भवता भुवनेषु नाथ!
तारान्वितो विधुरयं विहताधिकारः ।
मुक्ता कलाप कलितोल्लसितातपत्र -,
व्याजात्त्रिधा धृततनुर्ध्रुवमभ्युपेतः॥२६॥

अन्वयार्थ– (नाथ!) हे नाथ! ( भवता भुवनेषु उद्योतितेषु दिन विद्यापीठ ‘सत्सु’) आपके द्वारा तीनों लोकों के प्रकाशित होने पर (विहताधिकारः) अपने अधिकार से भ्रष्ट तथा (मुक्ताकलाप – कलितोल्लसितातपत्र- व्याजात्) मोतियों के समूह से सहित अतएव शोभायमान सफेद छत्र के छल से (तारान्वितः ) ताराओं से वेष्टित (अयम् विधुः ) यह चन्द्रमा (त्रिधा धृततनुः ) तीन-तीन शरीर धारण कर (ध्रुवम् ) निश्चय से ( त्वाम् अभ्युपेतः) आपकी सेवाओं में प्राप्त हुआ है।

भावार्थ– हे प्रभो ! जब आपने अपनी कांति वा ज्ञान से तीनों लोकों को प्रकाशित कर दिया तब मानों चन्द्रमा का प्रकाश करने रूप अधिकार छीन लिया गया। इसलिए वह तीन छत्र का वेष धरकर आपकी सेवा में अपना अधिकार वापस चाहने के लिए उपस्थित हुआ है। छत्रों में जो मोती लगे हुए हैं वे मानों चन्द्रमा के परिवारस्वरूप तारागण हैं। यह ‘छत्रत्रय’ प्रातिहार्य का वर्णन है ।

( समवसरण में तीन प्रकोट )

स्वेन प्रपूरित जगत्त्रयपिण्डितेन,
कान्ति – प्रताप – यशसामिव सञ्चयेन ।
माणिक्य हेम – रजत प्रविनिर्मितेन,
सालत्रयेण भगवन्नभितो विभासि ॥२७॥

अन्वयार्थ – (भगवन्) हे भगवन्! आप (अभितः) चहुँ ओर (प्रपूरित – जगत्त्रय-पिण्डितेन) भरे हुए तीनों जगत् के पिण्ड अवस्था को प्राप्त (स्वेन कान्ति-प्रताप – यशसाम् सञ्चयेन इव) अपने कान्ति, प्रताप और यश के समूह के समान (माणिक्यहेमरजतप्रविनिर्मितेन) माणिक्य, सुवर्ण और चाँदी से बने हुए (सालत्रयेण ) तीनों कोटों से (विभासि) शोभायमान होते हैं ।

भावार्थ– हे भगवन्! समवसरण भूमि में जो आपके चारों ओर माणिक्य सुवर्ण और चाँदी के बने हुए तीन कोट हैं वे मानों आपकी कांति प्रताप और यश का वह समूह है जो कि तीनों जगत् में फैला हुआ है।

( इन्द्रों द्वारा वन्दनीय )

दिव्यस्रजो जिन! नमत्रिदशाधि पाना-
मुत्सृज्य रत्नरचितानपि मौलिबन्धान् ।
पादौ श्रयन्ति भवतो यदि वा परत्र,
त्वत्सङ्गमे सुमनसो न रमन्त एव॥२८॥

अन्वयार्थ – (जिन!) हे जिनेन्द्र ! (दिव्यस्रजः ) दिव्य पुष्पों की मालाएँ (नमत् त्रिदशाधिपानाम् ) नमस्कार करते हुए इन्द्रों के (रत्नरचितान् अपि मौलिबन्धान्) रत्नों से बने हुए मुकुटों के बंधनों को भी (उत्सृज्य) छोड़कर (भवतः पादौ श्रयन्ति) आपके चरणों का आश्रय लेती हैं (यदि वा) अथवा ठीक है कि ( त्वत्सङ्गमे ‘सति’) आपका समागम होने पर (सुमनसः ) पुष्प मालाएँ या उत्तम हृदय वाले मनुष्य (परत्र) किसी दूसरी जगह (न एव रमन्ते) नहीं रमण करते हैं ।

भावार्थ – श्लोक में आये हुए सुमनस् शब्द के दो अर्थ हैं- एक पुष्प और दूसरा विद्वान् पुरुष । हे भगवन्! नमस्कार करते समय देवों के मुकुटों में लगी हुई फूलों की मालाएँ जो आपके चरणों में गिर जाती हैं सो मानों वे पुष्पमालाएँ आपसे इतना अधिक प्रेम करती हैं कि उनके पीछे देवों के रत्नों से बने हुए मुकुटों को भी छोड़ देती हैं । सुमनस=फूलों का (दूसरे पक्ष में- विद्वानों का) आप में अगाध प्रेम होना उचित ही है । श्लोक का तात्पर्य यह है कि आपके लिए बड़े इन्द्र भी नमस्कार करते हैं ।

( संसार समुद्र तारक विभु ) 

त्वं नाथ! जन्मजलधेर्विपराङ्मुखोऽपि,
यत्तारयस्यसुमतो निजपृष्ठलग्नान्।
युक्तं हि पार्थिवनृपस्य सतस्तवैव,
चित्रं विभो ! यदसि कर्मविपाकशून्यः ॥२९॥

अन्वयार्थ – (नाथ!) हे नाथ! (त्वम्) आप (जन्म – जलधे:) संसाररूप समुद्र से (विपराङ्मुखः अपि सन्) पराङ्मुख होते हुए भी (यत्) जो (निज-पृष्ठलग्नान्) अपने पीछे लगे हुए अनुयायी (असुमतः ) जीवों को (तारयसि ) तार देते हो (‘तत्’) वह (पार्थिवनृपस्य सतः ) राजाधिराज अथवा मिट्टी के पके हुए घड़े की तरह परिणमन करने वाले (तव) आपको (युक्तम् एव) उचित ही है, परन्तु (विभो ) हे प्रभो ! (तत् चित्रम्) वह आश्चर्य की बात है (यत्) जो आप (कर्मविपाकशून्यः असि) कर्मों के उदयरूप पाक क्रिया से रहित हो ।

भावार्थ– जिस तरह घड़ा पानी में अधोमुख होकर अपनी पीठ पर स्थित लोगों को नदी आदि से पार कर देता है, उसी तरह आप यद्यपि राग न होने से संसार – समुद्र से पराङ्मुख रहते हैं तथापि अपने अनुयायियों को उससे पार लगा देते हैं – मोक्ष प्राप्त करा देते हैं । पर जब घड़ा अग्नि से पकाया हुआ हो तभी पानी में तैर कर दूसरों को पार करता है। कच्चा घड़ा पानी में गल कर घुल जाता है, किन्तु आप पाक रहित हो यह आश्चर्य की बात है। उसका परिहार यह है कि आप कर्मों के उदय से रहित हैं। श्लोक में आये हुए विपाक शब्द के दो अर्थ हैं- अग्नि से किसी कोमल मिट्टी की वस्तु का कठोर होना और कर्मों का उदय आना ।

( विरोधाभास गुण स्तुति )

विश्वेश्वरोऽपि जनपालक ! दुर्गतस्त्वम्,
किं वाक्षरप्रकृतिरप्यलिपिस्त्वमीश ! |
अज्ञान वत्यपि सदैव कथञ्चिदेव,
ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्वविकासहेतुः ॥३०॥

अन्वयार्थ – (जनपालक!) हे जीवों के रक्षक ! (त्वम्) आप (विश्वेश्वरः अपि दुर्गतः) तीन लोक के स्वामी होकर भी दरिद्र हैं, (किं वा) और (अक्षरप्रकृतिः अपि त्वम् अलिपिः) अक्षरस्वभाव होकर भी लेखन क्रिया से रहित हैं (ईश!) हे स्वामिन्! (कथञ्चित्) किसी प्रकार से (अज्ञानवति अपि त्वयि ) अज्ञानवान् होने पर भी आपमें (विश्व – विकासहेतुः ज्ञानम् सदा एव स्फुरति ) सब पदार्थों को प्रकाशित करने वाला ज्ञान हमेशा स्फुरायमान रहता है ।

भावार्थ – इस श्लोक में विरोधाभास अलंकार है । विरोधाभास अलंकार में शब्द के सुनते समय तो विरोध मालूम होता है पर अर्थ विचारने पर बाद में उसका परिहार हो जाता है । जहाँ इस अलंकार का मूल श्लेष होता है वहाँ बहुत ही अधिक चमत्कार पैदा हो जाता है। देखिये-भगवन्! आप विश्वेश्वर होकर भी दुर्गत हैं। यह पूरा विरोध है भला, जो (जगत् का ईश्वर है वह दरिद्र कैसे हो सक्ता है ? विश्वेश्वर होकर भी दुर्गत = कठिनाई से जाने जा सकते हैं। इसी तरह आप अक्षर प्रकृति- अक्षर स्वभाव वाले होकर भी अलिपि लिखे नहीं जा सकते यह विरोध है । जो क ख आदि अक्षरों जैसा है वह लिखा क्यों न जायेगा ?) परन्तु दोनों शब्दों का श्लेष विरोध को दूर कर देता है । आप अक्षर प्रकृति-अविनश्वर स्वभाववाले होकर भी अलिपि = आकार रहित हैं-निराकार हैं। इसी प्रकार अज्ञानवति अपि अज्ञान युक्त होने पर भी आपमें विश्वविकाशि ज्ञानं स्फुरति संसार के सब पदार्थों को जानने वाला ज्ञान स्फुरायमान होता है, यह विरोध है । जो अज्ञानयुक्त है उसमें पदार्थों का ज्ञान कैसा? पर इसका भी नीचे लिखे अनुसार परिहार हो जाता है – अज्ञान अवति अपि त्वयि – अज्ञानी मनुष्यों की रक्षा करने वाले आप में हमेशा केवलज्ञान जगमगाता रहता है।

( उपसर्ग विजेता पार्श्वनाथ )

प्राग्भार-सम्भृत-नभांसि रजांसि रोषा -,
दुत्थापितानि कमठेन शठेन यानि ।
छायापि तैस्तव न नाथ! हता हताशो,
ग्रस्तस्त्वमीभिरयमेव परं दुरात्मा ॥३१॥

अन्वयार्थ – (नाथ) हे स्वामिन्! (शठेन कमठेन) दुष्ट कमठ के द्वारा (रोषात्) क्रोध से (प्राग्भार – सम्भृतनभांसि) सम्पूर्णरूप से आकाश को व्याप्त करने वाली (यानि) जो ( रजांसि ) धूल (उत्थापितानि) आपके ऊपर उड़ाई गई थी (तै: तु) उससे तो (तव) आपकी ( छाया अपि) छाया भी (न हता) नहीं नष्ट हुई थी (परम् ) किन्तु (अयमेव दुरात्मा) यही दुष्ट (हताश:) हताश हो ( अमीभि:) इन कर्मरूप रजों से (ग्रस्तः ) जकड़ा गया था।

भावार्थ– जब भगवान् पार्श्वनाथ तपस्या कर रहे थे तब उनके पूर्वभव के वैरी कमठ के जीव ने उन पर धूल उड़ाकर भारी उपसर्ग किया था। लोक में यह देखा जाता है कि जो सूर्य पर धूल फेंकता है उससे सूर्य की जरा भी कान्ति नष्ट नहीं होती, पर वही धूली फेंकने वाले के ऊपर गिरती है। श्लोक में आये हुए रज शब्द के दो अर्थ हैं – एक धूलि, दूसरा कर्म। कमठ के जीव ने भगवान् पर उपसर्ग कर कर्मों का बन्ध किया था इस बात को कवि ने लोक-प्रचलित उक्त उदाहरण से स्पष्ट किया है।

( जलवृष्टि उपसर्ग )

यद्गर्जदूर्जित— घनौघ मदभ्रभीम्,
भ्रश्यत्तडिन्मुसल- मांसल – घोरधारम् ॥
दैत्येन मुक्तमथ दुस्तरवारि दधे,
तेनैव तस्य जिन ! जिन! दुस्तरवारिकृत्यम् ॥३२॥

अन्वयार्थ – (अथ) और (जिन!) हे जिनेश्वर ! (दैत्येन) उस कमठ ने (गर्जदूर्जितघनौघम् ) खूब गरज रहे हैं बलिष्ठ – मेघ – समूह जिसमें (भ्रश्यत् – तडित् ) गिर रही है बिजली जिसमें और ( मुसलमांसल – घोर- धारम्) मूसल के समान बड़ी मोटी है धारा जिसमें ऐसा तथा (अदभ्रभीमम्) अत्यन्त भयंकर (यत्) जो (दुस्तर – वारि) अथाह जल (मुक्तम्) वर्षाया था, (तेन) उस जलवृष्टि से ( तस्य एव ) उस कमठ ने ही अपने लिए (दुस्तरवारिकृत्यम् दध्रे) तीक्ष्ण तलवार के कार्य को धारण किया अर्थात् उससे वह कमठ स्वयं ही घायल हो गया ।

भावार्थ– हे भगवन्! आप पर मूसलधार पानी वर्षाकर कमठ के जीव ने जो उपसर्ग किया था उससे आपका क्या बिगड़ा? परंतु उसी ने अपने लिए ‘दुस्तरवारिकृत्यं’ दुष्ट तलवार का कार्य अर्थात् घाव कर लिया-ऐसे कर्मों का बन्ध किया जो तलवार के घाव के समान दुःखदायी हुए थे । श्लोक में ‘दुस्तरवारि’ शब्द दो वार आया है उनमें से पहले का अर्थ कठिनाई से तरने योग्य जल है और दूसरे का अर्थ दुष्ट तरवारि- तलवार है।

( भूत पिशाचों के द्वारा उपसर्ग )

ध्वस्तोर्ध्व-केश-विकृताकृति – मर्त्य-मुण्ड-
प्रालम्बभृद्भयद वक्त्र विनिर्यदग्निः ।
प्रेतव्रजः प्रति भवन्तमपीरितो यः,
सोऽस्याभवत्प्रतिभवं भवदुःखहेतुः॥३३॥

अन्वयार्थ– (ध्वस्तोर्ध्वकेशविकृताकृतिमर्त्यमुण्ड – प्रालम्बभृद्) मुंडे हुए तथा विकृत आकृति वाले नर कपालों की माला को धारण करने वाला और (भयद-वक्त्रविनिर्यदग्निः) जिसके भयंकर मुख से अग्नि निकल रही है, ऐसा (यः) जो (प्रेतव्रजः) पिशाचों का समूह ( भवन्तम् प्रति) आपके प्रति (ईरितः ) प्रेरित किया गया था – दौड़ाया गया था (सः) वह (अस्य) उस असुर को (प्रतिभवम्) प्रत्येक भव में (भव-दुःखहेतुः) संसार के दुःखों का कारण (अभवत्) हुआ था ।

भावार्थ– हे भगवन्! कमठ के जीव ने आपको तपस्या से विचलित करने के लिए जो पिशाच दौड़ाये थे उनसे आपका कुछ भी बिगाड़ नहीं हुआ परंतु उस पिशाच को ही भारी कर्म – बंध हुआ जिससे उसे अनेक भवों में दुःख उठाने पड़े ।

( प्रभु भक्त धन्यवाद का पात्र )

धन्यास्त एव भुवनाधिप ! ये त्रिसन्ध्य-
माराधयन्ति विधिवद् विधुतान्य- कृत्याः ।
भक्त्योल्लसत्पुलक – पक्ष्मल – देह – देशा:,
पादद्वयं तव विभो ! भुवि जन्मभाजः ॥३४॥

अन्वयार्थ – (भुवनाधिप ! ) हे त्रिलोकीनाथ! (ये) जो (जन्म- भाजः) प्राणी, (विधुतान्यकृत्याः) जिन्होंने अन्य काम छोड़ दिए हैं और (भक्त्या) भक्ति से (उल्लसत् – पुलक- पक्ष्मल – देहदेशाः ‘सन्तः’) प्रकट हुए रोमाञ्चों से जिनके शरीर का प्रत्येक अवयव व्याप्त है, ऐसे होते हुए (विधिवत्) विधिपूर्वक (त्रिसन्ध्यम्) तीनों कालों में (तव) आपके (पादद्वयम् आराधयन्ति) चरणयुगल की आराधना करते हैं (विभो !) हे स्वामिन्! (भुवि) संसार में (ते एव) वे ही (धन्याः) धन्य हैं ।

भावार्थ– हे भगवन्! संसार में उन्हीं का जन्म सफल है जो भक्तिपूर्वक आपके चरणों की आराधना करते हैं ।

( प्रभु नाम श्रवण से विपदा मुक्ति )

अस्मिन्त्रपार – भव – वारि निधौ मुनीश !,
मन्ये न मे श्रवण गोचरतां गतोऽसि ।
आकर्णिते तु तव गोत्र – पवित्र – मन्त्रे,
किं वा विपद् – विषधरी सविधं समेति ॥ ३५ ॥

अन्वयार्थ – ( मुनीश ! ) हे मुनीन्द्र ! ( मन्ये) मैं समझता हूँ कि (अस्मिन् अपारभव- वारिनिधौ) इस अपार संसाररूप समुद्र में कभी भी आप (मे) मेरे (श्रवणगोचरतां न गतः असि) कानों की विषयता को प्राप्त नहीं हुए हो क्योंकि (तु) निश्चय से (तव गोत्रपवित्रमन्त्रे आकर्णिते ‘सति’) आपके नामरूपी पवित्र मन्त्र के सुने जाने पर ( विपद् – विषधरी) विपत्तिरूपी नागिन (किम् वा ) क्या (सविधम् ) समीप (समेति) आती है? अर्थात् नहीं ।

भावार्थ– हे प्रभो ! जो मैं संसार में अनेक दुःख उठा रहा हूँ उससे विश्वास होता है कि मैंने कभी भी आपका पवित्र नाम नहीं सुना।

( प्रभुपद पूजे बिन मिले विपद )

जन्मान्तरेऽपि तव पादयुगं न देव!,
मन्ये मया महितमीहित – दान दक्षम्।
तेनेह जन्मनि मुनीश ! पराभवानां,
जातो निकेतनमहं मथिताशयानाम्॥३६॥

अन्वयार्थ— (देव!) हे देव! (मन्ये) मैं मानता हूँ कि मैंने (जन्मान्तरे अपि) दूसरे जन्म में भी (ईहितदानदक्षम्) मनोवांछित फल देने में समर्थ (तव पादयुगम्) आपके चरणयुगल (न महितम्) नहीं पूजे, (तेन) उसी से (इह जन्मनि) इस भव में (मुनीश ! ) हे मुनीश ! (अहम् ) मैं (मथिताशयानाम्) हृदयभेदी – मनोरथों को नष्ट करने वाले (पराभवानाम्) तिरस्कारों का (निकेतनम् ) घर (जातः) हुआ हूँ ।

भावार्थ – हे भगवन्! जो मैं तरह तरह के तिरस्कारों का पात्र हो रहा हूँ उससे स्पष्ट पता चलता है कि मैंने आपके चरणों की पूजा नहीं की। क्योंकि आपके चरणों के पुजारियों का कभी किसी जगह भी तिरस्कार नहीं होता ।

( दर्शन बिन दुःख पाये )

नूनं न मोह – तिमिरावृतलोचनेन,
पूर्वं विभो ! सकृदपि प्रविलोकितोऽसि ।
मर्माविधो विधुरयन्ति हि मामनर्थाः,
प्रोद्यत्प्रबन्ध गतयः कथमन्यथैते ॥३७॥

अन्वयार्थ – (विभो ) हे स्वामिन्! ( मोहतिमिरावृतलोचनेन ) मोहरूपी अन्धकार से आच्छादित हैं नेत्र जिसके ऐसे (मया) मेरे द्वारा आप (पूर्वम्) पहले कभी (सकृद् अपि) एक बार भी (नूनम् ) निश्चय से (प्रविलोकितः न असि) अच्छी तरह अवलोकित नहीं हुए हो अर्थात् मैंने आपके दर्शन नहीं किए (अन्यथा हि) नहीं तो जो (प्रोद्यत्प्रबन्धगतयः) जिनमें कर्मबन्ध की गति बढ़ रही है ऐसे (एते) ये (मर्माविध:) मर्मभेदी (अनर्थाः) अनर्थ (माम्) मुझे ( कथम्) क्यों (विधुरयन्ति) दुःखी करते ?

भावार्थ– भगवन्! मैंने मिथ्यात्व के उदय से अन्धे होकर कभी भी आपके दर्शन नहीं किये। यदि दर्शन किये होते तो आज ये दुःख मुझे दुःखी कैसे करते? क्योंकि आपके दर्शन करने वालों को कभी कोई भी अनर्थ दुःख नहीं पहुँचा सकते ।

( भाव शून्य करनी फलदायक नहीं )

आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षतोऽपि,
नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या ।
जातोऽस्मि तेन जनबान्धव! दुःखपात्रं,
यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः ॥३८॥

अन्वयार्थ – अथवा (जनबान्धव !) हे जगत् बन्धु ! (मया) मेरे द्वारा आप (आकर्णित: अपि) सुने हुए भी हैं (महित: अपि ) पूजित भी हुए हैं और (निरीक्षित: अपि) अवलोकित भी हुए हैं अर्थात् मैंने आपका नाम भी सुना है, पूजा भी की है और दर्शन भी किए हैं, फिर भी ( नूनम् ) निश्चय है कि (भक्त्या) भक्तिपूर्वक (चेतसि) चित्त में (न विधृतः असि) धारण नहीं किए गए हो (तेन) उसी से मैं (दुःखपात्रम् जातः अस्मि) दुःखों का पात्र हो रहा हूँ ( यस्मात् ) क्योंकि ( भावशून्याः) भाव रहित (क्रिया:) क्रियाएँ (न प्रतिफलन्ति) सफल नहीं होतीं ।

भावार्थ – इससे पहले तीन श्लोकों में कहा गया था कि हे भगवन् ! मैंने “ आपका नाम नहीं सुना’ “” चरणों की पूजा नहीं की” और ” दर्शन नहीं किये” इसलिए मैं दुःख उठा रहा हूँ । अब इस श्लोक में पक्षान्तर रूपसे कहते हैं कि मैंने आपका नाम भी सुना, पूजा भी की और दर्शन भी किये, फिर भी दुःख मेरा पिण्ड नहीं छोड़ते उसका कारण सिर्फ यही मालूम होता है कि मैंने भक्तिपूर्वक आपका ध्यान नहीं किया । केवल आडम्बर रूप से ही उन कामों को किया है न कि भावपूर्वक भी । यदि भाव से करता तो कभी दुःख नहीं उठाने पड़ते ।

( दुःख नाशक प्रार्थना )

त्वं नाथ! दुःखि-जन-वत्सल! हे शरण्य!
कारुण्य- पुण्य- वसते! वशिनां वरेण्य ! |
भक्त्या नते मयि महेश! दयां विधाय,
दुःखाङ्कुरोद्दलन-तत्परतां विधेहि ॥ ३९ ॥

अन्वयार्थ – (नाथ!) हे नाथ! (दुःखिजनवत्सल!) दुखियों पर प्रेम करने वाले ! ( हे शरण्य!) हे शरणागत प्रतिपालक ! (कारुण्य- पुण्यवसते!) हे दया की पवित्र भूमि ! ( वशिनाम् वरेण्य!) हे जितेन्द्रियों में श्रेष्ठ ! और (महेश) हे महेश्वर ! ( भक्त्या) भक्ति में (नते मयि ) नम्रीभूत मुझ पर (दयाम् विधाय) दया करके (दुःखाडुरोद्दलन-तत्परताम्) मेरे दुःखाङ्कुर के नाश करने में तत्परता/ तल्लीनता (विधेहि) कीजिए ।

भावार्थ- आप शरणागत प्रतिपालक है, दयालु हैं और समर्थ भी हैं। इसलिए आपसे विनम्र प्रार्थना करता हूँ कि आप मेरे दुःखों को दूर करने के लिए तत्पर होइये ।

( प्रभु चिन्तन बिन जीवन निस्सार )

निः संख्य – सार – शरणं शरणं शरण्य-,
मासाद्य सादित – रिपुः प्रथिता वदानम् !
त्वत्पाद – पङ्कजमपि प्रणिधान – वन्ध्यो,
वन्ध्योऽस्मि चेद्भुवन-पावन! हा हतोऽस्मि ॥४०॥

अन्वयार्थ – (भुवनपावन!) हे संसार को पवित्र करने वाले भगवन्! (निःसंख्य-सारशरणम्) असंख्यात श्रेष्ठ पदार्थों के घर की (शरणम्) रक्षा करने वाले (शरण्यम्) शरणागत प्रतिपालक और (सादितरिपु प्रथिता-वदानम्) कर्म-शत्रुओं के नाश से प्रसिद्ध है पराक्रम जिनका ऐसे (त्वत्पाद-पङ्कजम्) आपके चरणकमलों को (आसाद्य अपि ) पाकर भी (प्रणिधान – वन्ध्यः) उनके ध्यान से रहित हुआ मैं (वन्ध्यः अस्मि) अभागा-फलहीन हूँ और (तत्) उससे (हा) खेद है कि मैं (हतः अस्मि) नष्ट हुआ जा रहा हूँ अर्थात् कर्म मुझे दुःखी कर रहे हैं ।

भावार्थ– हे भगवन्! आपके पवित्र और दयालु चरणों को पाकर भी जो मैं उनका ध्यान नहीं कर रहा हूँ उससे मेरा जन्म निष्फल जा रहा है और मैं कर्मों के द्वारा दुःखी किया जा रहा हूँ ।

( रक्षा प्रार्थना )

देवेन्द्रवंद्य ! विदिताखिल वस्तुसार!
संसारतारक! विभो ! भुवनाधिनाथ ! |
त्रायस्व देव! करुणा – हृद! मां पुनीहि,
सीदन्त – मद्य भयद-व्यसनाम्बुराशेः॥४१॥

अन्वयार्थ– (देवेन्द्रवन्द्य!) हे इन्द्रों के वन्दनीय ! (विदिताखिल- वस्तुसार!) हे सब पदार्थों के रहस्य को जानने वाले (संसारतारक ! ) संसार सागर से तारने वाले ! (विभो ) हे प्रभो ! (भुवनाधिनाथ!) हे तीनों लोक के स्वामिन्! (करुणाहृद!) हे दया के सरोवर ! (देव !) देव ! (अद्य) आज (सीदन्तम्) दु:खी होते हुए (माम्) मुझको (भयद- व्यसनाम्बुराशेः ) भयंकर दुःखों के सागर से ( त्रायस्व) बचाओ और (पुनीहि) पवित्र करो।

भावार्थ – हे भगवन्! आप हरएक तरह से समर्थ हैं इसलिए आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप मुझे इस दुःख – समुद्र में डूबने से बचाइये और हमेशा के लिए कर्म-मैल से रहित कर दीजिये ।

( भक्ति फल की याचना )

यद्यस्ति नाथ! भवदङ्गि — सरोरुहाणां,
भक्तेः फलं किमपि सन्तत – सञ्चितायाः।
तन्मे त्वदेक – शरणस्य शरण्य! भूयाः,
स्वामी! त्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेऽपि ॥४२॥

अन्वयार्थ – ( नाथ !) हे नाथ! (त्वदेकशरणस्य) केवल आप ही की है शरण जिसको ऐसे (मे) मुझे ( सन्ततसञ्चितायाः ) चिरकाल से सञ्चित-एकत्रित हुई (भवद् अङ्गिसरोरुहाणाम्) आपके चरण कमलों की (भक्तेः ) भक्ति का (यदि) यदि (किमपि फलम् अस्ति ) कुछ भी फल है (तत्) तो उससे (शरण्य!) हे शरणागत प्रतिपालक ! (त्वम् एव) आप ही (अत्र भुवने) इहलोक में और ( भवान्तरे अपि) परलोक में भी ( मे स्वामी) मेरे स्वामी (भूयाः ) होवें ।

भावार्थ – हे भगवन् ! स्तुति कर मैं आपसे अन्य किसी फलकी चाह नहीं रखता। सिर्फ यह चाहता हूँ कि आप ही मेरे हमेशा स्वामी रहें । अर्थात् जब तक मुझे मोक्ष प्राप्त नहीं हुआ है तब तक आप ही मेरे स्वामी रहें।‘“तुम होहु भवभव स्वामि मेरे, मैं सदा सेवक रहूँ”।

( भक्ति की विधि )

इत्थं समाहित – धियो विधिवज्जिनेन्द्र !
सान्द्रोल्लसत्पुलक-कञ्चुकिताङ्ग – भागाः ।
त्वद्विम्ब – निर्मल मुखाम्बुज – बद्धलक्ष्याः,
ये संस्तवं तव विभो ! रचयन्ति भव्याः ॥४३॥

अन्वयार्थ – (जिनेन्द्र !) हे जिनेन्द्र ! (ये भव्याः) जो भव्यजन (इत्थम्) इस तरह (समाहितधियः) सावधान बुद्धि से युक्त हो (त्वद् बिम्बनिर्मल-मुखाम्बुजबद्धलक्ष्याः) आपके निर्मल मुखकमल की ओर अपलक लक्ष्य करके ( सान्द्र – उल्लसत्पुलककञ्चुकिताङ्गभागाः) सघन रूप से उठे हुए रोमांचों से व्याप्त शरीर के अवयव जिनके ऐसे ( सन्तः ) होते हुए ( विधिवत् ) विधिपूर्वक (तव) आपका (संस्तवम् ) स्तवन ( रचयन्ति) रचते हैं।

( भक्ति का फल स्वर्ग मोक्षसंपद )

जननयनकुमुदचन्द्र! प्रभास्वराः स्वर्गसम्पदो भुक्त्वा ।
विगलित-मल- निचया अचिरान् मोक्षं प्रपद्यन्ते ॥ ४४ ॥

अन्वयार्थ— (ते) वे (जननयनकुमुदचन्द्र !) हे प्राणियों के नेत्ररूपी कुमुदों-कमलों को विकसित करने के लिए चन्द्रमा की तरह शोभायमान देव ! (प्रभास्वराः) देदीप्यमान (स्वर्गसम्पदः) स्वर्ग की विभूतियों को (भुक्त्वा) भोगकर (विगलितमलनिचयाः ‘सन्तः ‘) कर्मरूपी मल – समूह से रहित हो (अचिरात्) शीघ्र ही (मोक्षम् प्रपद्यन्ते) मुक्ति को प्राप्त करते हैं।

भावार्थ- हे भगवन्! जो भक्ति से गद्गद चित्त हो आपकी स्तुति करते हैं वे स्वर्ग के सुख भोग बहुत जल्दी आठ कर्मों का नाश कर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । ” स्वर्गन के सुख भोगकर, पावे मोक्ष निदान ।”

॥ इति श्री कल्याण मंदिर स्तोत्रम संस्कृत ॥


श्री कल्याण मंदिर स्तोत्र हिन्दी पद्यानुवाद

( लेखक अज्ञात अभी तक ) 

अनुपम करुणा की सु-मूर्ति शुभ, शिव मन्दिर अघनाशक मूल ।
भयाकुलित व्याकुल मानव के, अभयप्रदाता अति- अनुकूल ॥
बिन कारन भवि जीवन तारन, भवसमुद्र में यान-समान।
ऐसे पद्मप्रभु पारस, के पद अर्चू मैं नित अम्लान॥१॥

जिसकी अनुपम गुणगरिमा का, अम्बुराशि सा है विस्तार |
यश-सौरभ सु-ज्ञान आदि का, सुरगुरु भी नहिं पाता पार ॥
हठी कमठ शठ के मदमर्दन, को जो धूमकेतु-सा शूर ।
अति आश्चर्य कि स्तुति करता, उसी तीर्थपति की भरपूर ॥२॥

अगम अथाह सुखद शुभ सुन्दर, सत्स्वरूप तेरा अखिलेश !
क्यों कर कह सकता है मुझसा, मन्दबुद्धि मूरख करुणेश ! ॥
सूर्योदय होने पर जिसको, दिखता निज का गात नहीं ।
दिवाकीर्ति क्या कथन करेगा, मार्तण्ड का नाथ ! कहीं ? ॥३ ॥

यद्यपि अनुभव करता है नर, मोहनीय – विधि के क्षय से ।
तो भी गिन न सकेँ गुण तुव सब, मोहेतर कर्मोदय से ॥
प्रलयकाल में जब जलनिधि का, बह जाता है सब पानी ।
रत्नराशि दिखने पर भी क्या, गिन सकता कोई ज्ञानी ? ॥४ ॥

तुम अतिसुन्दर शुद्ध अपरिमित, गुणरत्नों की खानिस्वरूप ।
वचननि करि कहने को उमगा, अल्पबुद्धि मैं तेरा रूप ॥
यथा मन्दमति लघुशिशु अपने, दोऊ कर को कहै पसार ।
जल – निधि को देखहु रे मानव, है इसका इतना आकार ॥५ ॥

हे प्रभु! तेरे अनुपम सब गुण, मुनिजन कहने में असमर्थ ।
मुझसा मूरख औ अबोध क्या, कहने को हो सके समर्थ ॥
पुनरपि भक्तिभाव से प्रेरित, प्रभु-स्तुति को बिना विचार ।
करता हूँ, पंछी ज्यों बोलत, निश्चित बोली के अनुसार ॥६॥

है अचिन्त्य महिमा स्तुति की, वह तो रहे आपकी दूर।
जब कि बचाता भव- दुःखों से, मात्र आपका ‘नाम’ जरूर ॥
ग्रीष्म कु-ऋतु के तीव्र ताप से, पीड़ित पन्थी हुये अधीर ।
पद्म-सरोवर दूर रहे पर, तोषित करता सरस- समीर ॥७ ॥

मन-मन्दिर में वास करहिं जब, अश्वसेन- वामा-नन्दन ।
ढीले पड़ जाते कर्मों के, क्षण भर में दृढ़तर बन्धन ॥
चन्दन के विटपों पर लिपटे, हों काले विकराल भुजङ्ग ।
वन-मयूर के आते ही ज्यों, होते उनके शिथिलित अङ्ग ॥८ ॥

बहु विपदाएँ प्रबल वेग से, करें सामना यदि भरपूर ।
प्रभु दर्शन से निमिषमात्र में, हो जातीं वे चकनाचूर ॥
जैसे गो-पालक दिखते ही, पशु-कुल को तज देते चोर ।
भयाकुलित हो करके भागें, सहसा समझ हुआ अब भोर ॥९ ॥

भक्त आपके भव-पयोधि से, तिर जाते तुमको उर धार ।
फिर कैसे कहलाते जिनवर, तुम भक्तों की दृढ़ पतवार ॥
वह ऐसे, जैसी तिरती है, चर्म- मसक जल के ऊपर ।
भीतर उसमें भरी वायु का, ही केवल यह विभो ! असर ॥१० ॥

जिसने हरिहरादि देवों का, खोया यश-गौरव- सम्मान ।
उस मन्थन का हे प्रभु! तुमने, क्षण में मेट दिया अभिमान ॥
सच है जिस जल से पल-भर में, दावानल हो जाता शान्त ।
क्यों न जला देता उस जल को ? बडवानल होकर अश्रांत ॥ ११ ॥

छोटी-सी मन की कुटिया में, हे प्रभु! तेरा ज्ञान अपार ।
धार उसे कैसे जा सकते, भविजन भव-सागर के पार ॥
पर लघुता से वे तिर जाते, दीर्घभार से डूबत नाहिं ।
प्रभु की महिमा ही अचिन्त्य है, जिसे न कवि कह सकैं बनाहिं ॥१२ ॥

क्रोध शत्रु को पूर्व शमन कर, शान्त बनायो मन- आगार ।
कर्म-चोर जीते फिर किस विध, हे प्रभु अचरज अपरम्पार ॥
लेकिन मानव अपनी आँखों, देखहु यह पटतर संसार ।
क्यों न जला देता वन-उपवन, हिम-सा शीतल विकट तुषार ॥१३॥

शुद्धस्वरूप अमल अविनाशी, परमातम सम ध्यावहिं तोय।
निजमन कमल-कोष मधि ढूंढ़हिं, सदा साधु तजि मिथ्या-मोह ॥
अतिपवित्र निर्मल सु-कांति युत, कमलकर्णिका बिन नहिं और ।
निपजत कमलबीज उसमें ही, सब जग जानहिं और न ठौर ॥१४ ॥

जिस कुधातु से सोना बनता, तीव्र अग्नि का पाकर ताव।
शुद्ध स्वर्ण हो जाता जैसे, छोड़ उपलता पूर्व विभाव ॥
वैसे ही प्रभु के सु-ध्यान से, वह परिणति आ जाती है।
जिसके द्वारा देह त्याग, परमात्मदशा पा, जाती है ॥१५ ॥

जिस तन से भवि चिन्तन करते, उस तन को करते क्यों नष्ट ।
अथवा ऐसा ही स्वरूप है, है दृष्टान्त एक उत्कृष्ट ॥
जैसे बीचवान बन सज्जन, बिना किए ही कुछ आग्रह ।
झगड़े की जड़ प्रथम हटाकर, शांत किया करते विग्रह ॥ १६ ॥

हे जिनेन्द्र ! तुम में अभेद रख, योगीजन निज को ध्याते ।
तव प्रभाव से तज विभाव वे, तेरे ही सम हो जाते ॥
केवल जल को दृढ़-श्रद्धा से, मानत है जो सुधासमान ।
क्या न हटाता विष विकार वह, निश्चय से करने पर पान ॥ १७ ॥

मिथ्या-तन-अज्ञान रहित, सुज्ञानमूर्ति हे परम यती ।
हरिहराद ही मान अर्चना करते तेरी मन्दमती ॥
है यह निश्चय प्यारे मित्रो, जिनके होत पीलिया रोग ।
श्वेत शंख को विविध वर्ण, विपरीत रूप देखे वे लोग ॥ १८ ॥

धर्म देशना के सुकाल में, जो समीपता पा जाता ।
मानव की क्या बात कहूँ तरु, तक अ-शोक है हो जाता ॥
जीव-वृन्द नहिं केवल जाग्रत, रवि के प्रकटित ही होते ।
तरु तक सजग होत अति हर्षित, निद्रा तज आलस खोते ॥१९॥

है विचित्रता सुर बरसाते, सभी ओर से सघन – सुमन ।
नीचे डंठल ऊपर पंखुरी, क्यों होते हैं हे भगवान ॥
है निश्चित, सुजनों सुमनों के नीचे को होते बन्धन ।
तेरी समीपता की महिमा है, हे वामा देवी नन्दन ॥ २० ॥

अति गम्भीर हृदय-सागर से, उपजत प्रभु के दिव्यवचन ।
अमृततुल्य मान कर मानव, करते उनका अभिनन्दन ॥
पी-पीकर जग-जीव वस्तुतः, पा लेते आनन्द अपार ।
अजर अमर हो फिर वे जग की, हर लेते पीड़ा का भार ॥२१॥

दुरते चारु- चँवर अमरों से, नीचे से ऊपर जाते ।
भव्यजनों को विविधरूप से, विनय सफल वे दर्शाते ॥
शुद्धभाव से नतशिर हो जो, तव पदाब्ज में झुक जाते ।
परमशुद्ध हो ऊर्ध्वगती को, निश्चय करि भविजन पाते ॥२२॥

उज्ज्वल हेम सुरत्न पीठ पर, श्याम सु-तन शोभित अनुरूप ।
अतिगंभीर सु-निःसृत वाणी, बतलाती है सत्य स्वरूप ॥
ज्यों सुमेरु पर ऊँचे स्वर से, गरज गरज घन बरसें घोर ।
उसे देखने सुनने को जन, उत्सुक होते जैसे मोर ॥२३॥

वतन भा-मण्डल से होते, सुरतरु के पल्लव छवि – छीन ।
प्रभु प्रभाव को प्रकट दिखाते हो जड़ रूप चेतना-हीन ॥
जब जिनवर की समीपतातैं, सुरतरु हो जाता गत- राग ।
तब न मनुज क्यों होवेगा जप, वीतराग खो करके राग ॥ २४ ॥

नभ-मण्डल में गूँज गूँज कर, सुरदुन्दुभि कर रही निनाद ।
रे रे प्राणी आतम हित नित, भज ले प्रभु को तज परमाद ॥
मुक्ति धाम पहुँचाने में जो, सार्थवाह बन तेरा साथ।
देंगे त्रिभुवनपति परमेश्वर, विघ्नविनाशक पारसनाथ ॥२५ ॥

अखिल विश्व में हे प्रभु! तुमने, फैलाया है विमल – प्रकाश ।
अतः छोड़कर स्वाधिकार को, ज्योतिर्गण आया तव पास ॥
मणिमुक्ताओं की झालर युत, आतपत्र का मिस लेकर ।
त्रिविध-रूप धर प्रभु को सेवे, निशिपति तारान्वित होकर ॥२६ ॥

हेम-रजत- माणिक से निर्मित, कोट तीन अति शोभित से।
तीन लोक एकत्रित होके, किये प्रभु को वेष्ठित से ॥
अथवा कान्ति-प्रताप – सुयश के, संचित हुए सुकृत से ढेर ।
मानो चारों दिशि से आके, लिया इन्होंने प्रभु को घेर ॥ २७ ॥

झुके हुये इन्द्रों मुकुटों, को तज करके सुमनों के हार ।
रह जाते जिन चरणों में ही, मानो समझा श्रेष्ठ आधार ॥
प्रभु का समागम सुन्दर तज, सु-मनस कहीं न जाते हैं।
तव प्रभाव से वे त्रिभुवनपति ! भव-समुद्र तिर जाते हैं ॥ २८ ॥

भव-सागर से तुम पराङ्मुख, भक्तों को तारो कैसे ।
यदि तारो तो कर्म-पाक के रस से शून्य अहो कैसे ॥
अधोमुखी परपक्व कलश ज्यों, स्वयं पीठ पर रख करके ।
जाता है पार सिन्धु के, तिरकर और तिरा करके ॥ २९ ॥

जगनायक जगपालक होकर, तुम कहलाते दुर्गत क्यों ।
यद्यपि अक्षर मय स्वभाव है तो, फिर अलिखित अक्षत क्यों ॥
ज्ञान झलकता सदा आप में, फिर क्यों कहलाते अनजान ।
स्व-पर प्रकाशक अज्ञ जनों को, हे प्रभु! तुम ही सूर्य समान ॥३०॥

पूरव वैर विचार क्रोध करि, कमठ धूलि बहु बरसाई ।
कर न सका प्रभु तव तन मैला, हुआ मलिन खुद दुखदाई ॥
कर करके उपसर्ग घनेरे, थक कर फिर वह हार गया ।
कर्मबन्ध कर दुष्ट प्रपंची, मुँह की खाकर भाग गया ॥ ३१ ॥

उमड़ घुमड़ कर गर्जत बहुविध, तड़कत बिजली भयकारी ।
बरसा अति घनघोर दैत्य ने, प्रभु के सिर पर कर डारी ॥
प्रभु का कुछ न बिगाड़ सकी वह, मूसल सी मोटी धारा ।
स्वयं कमठ ने हठधर्मी वश, निग्रह अपना कर डारा ॥ ३२ ॥

कालरूप विकराल वृक्ष विच, मृतमुंडन की धरि माला ।
अधिक भयावह जिनके मुख से निकल रही अग्निज्वाला ॥
अगणित प्रेत पिशाच असुर ने, तुम पर स्वामिन भेज दिये।
भव भव के दुख हेतु क्रूर ने, कर्म अनेकों बांध लिए ॥ ३३ ॥

पुलकित वदन सु-मन हर्षित हो, जो जन तज मायाजंजाल ।
त्रिभुवनपति के चरण-कमल की, सेवा करते तीनों काल ॥
तुव प्रसाद भविजन सारे, लग जाते भवसागर पार ।
मानव जीवन सफल बनाते, धन्य-धन्य उनका अवतार ॥३४॥

इस असीम भव-सागर में नित, भ्रमत अकथ बहु दुख पायो ।
तोऊ सु-वश तुम्हारो सांचो, नहिं कानों मैं सुन पायो ॥
प्रभु का नाम – मंत्र यदि सुनता, चित्त लगा करके भरपूर ।
तो यह विपदारूपी नागिन, पास न आती रहती दूर ॥ ३५ ॥

पूरव भव में तव चरनन की, मनवांछित फल की दातार ।
की न कभी सेवा भावों से, मुझ को हुआ आज निरधार ॥
अत: रंक जन मेरा करते, हास्य सहित अपमान अपार ।
सेवक अपना मुझे बना लो, अब तो हे प्रभु जगदाधार ॥३६ ॥

दृढ़ निश्चय करि मोह- तिमिर से, मुँदे -मुँदे से थे लोचन ।
देख सका ना उनसे तुमको, एक बार हे दुःखमोचन ॥
दर्शन कर लेता गर पहिले, तो जिसकी गति प्रबल अरोक ।
मर्मच्छेदी महा अनर्थक, माना कभी न दुख के थोक ॥३७||

देखा भी है, पूजा भी है, नाम आपका श्रवण किया।
भक्तिभाव अरु श्रद्धापूर्वक, किन्तु न तेरा ध्यान किया ॥
इसीलिए तो दुखों का मैं, गेह बना हूँ निश्चित ही ।
फलै न किरिया बिना भाव के, है लोकोक्ति सुप्रचलित ही ॥ ३८ ॥

दीन दुखी जीवों के रक्षक, हे करुणा सागर प्रभुवर ।
शरणागत के हे प्रतिपालक, हे पुण्योत्पादक! जिनेश्वर ॥
हे जिनेश! मैं भक्तिभाव वश, शिर धरता तुमरे पग पर ।
दुःख मूल निर्मूल करो प्रभु, करुणा करके अब मुझ पर ॥ ३९ ॥

हे शरणागत के प्रतिपालक, अशरण जन को एक शरण ।
कर्मविजेता त्रिभुवन नेता, चारु चन्द्रसम विमल चरण ॥
तव पद- पङ्कजपा करके हे, प्रतिभाशाली बड़भागी।
कर न सका यदि ध्यान आपका, हूँ अवश्य तब हतभागी ॥ ४० ॥

अखिल वस्तु के जान लिए हैं, सर्वोत्तम जिसने सब सार ।
हे जगतारक! हे जगनायक! दुखियों के हे करुणागार ॥
वन्दनीय हे दयासरोवर ! दीन दुखी का हरना त्रास ।
महा-भयङ्कर भवसागर से, रक्षा कर अब दो सुखवास ॥ ४१ ॥

एक मात्र है शरण आपकी, ऐसा मैं हूँ दीनदयाल ।
पाऊँफल यदि किञ्चित करके, चरणों की सेवा चिरकाल ॥
तो हे तारनतरन नाथ हे अशरण शरण मोक्षगामी ।
बने रहें इस परभव में बस, मेरे आप सदा स्वामी ॥४२ ॥

हे जिनेन्द्र ! जो एकनिष्ठ तव, निरखत इकटक कमल-वदन ।
भक्तिसहित सेवा से पुलकित, रोमाञ्चित है जिनका तन ॥
अथवा रोमावलि के ही जो, पहिने हैं कमनीय वसन ।
यों विधिपूर्वक स्वामिन् तेरा, करते हैं जो अभिनन्दन ॥ ४३ ॥

जन- दृगरूपी ‘कुमुद’ वर्ग के, विकसावनहारे राकेश ।
भोग भोग स्वर्गों के वैभव, अष्टकर्मफल कर निःशेष ॥
स्वल्पकाल में मुक्तिधाम की, पाते हैं वे दशाविशेष ।
जहाँ सौख्यसाम्राज्य अमर है, आकुलता का नहीं प्रवेश ॥४४॥


( श्री कल्याण मंदिर स्तोत्र – कविश्री बनारसीदास )

(दोहा)

परम-ज्योति परमात्मा, परम-ज्ञान परवीन |

वंदूँ परमानंदमय घट-घट-अंतर-लीन ||१||

(चौपाई )

निर्भयकरन परम-परधान, भव-समुद्र-जल-तारन-यान |

शिव-मंदिर अघ-हरन अनिंद, वंदूं पार्श्व-चरण-अरविंद ||२||

कमठ-मान-भंजन वर-वीर, गरिमा-सागर गुण-गंभीर |

सुर-गुरु पार लहें नहिं जास, मैं अजान जापूँ जस तास ||३||

प्रभु-स्वरूप अति-अगम अथाह, क्यों हम-सेती होय निवाह |

ज्यों दिन अंध उल्लू को होत, कहि न सके रवि-किरण-उद्योत ||४||

मोह-हीन जाने मनमाँहिं, तो हु न तुम गुन वरने जाहिं |

प्रलय-पयोधि करे जल गौन, प्रगटहिं रतन गिने तिहिं कौन ||५||

तुम असंख्य निर्मल गुणखान, मैं मतिहीन कहूँ निज बान|

ज्यों बालक निज बाँह पसार, सागर परमित कहे विचार ||६||

जे जोगीन्द्र करहिं तप-खेद, तेऊ न जानहिं तुम गुनभेद |

भक्तिभाव मुझ मन अभिलाष, ज्यों पंछी बोले निज भाष ||७||

तुम जस-महिमा अगम अपार, नाम एक त्रिभुवन-आधार |

आवे पवन पदमसर होय, ग्रीषम-तपन निवारे सोय ||८||

तुम आवत भवि-जन मनमाँहिं, कर्मनि-बन्ध शिथिल ह्वे जाहिं |

ज्यों चंदन-तरु बोलहिं मोर, डरहिं भुजंग भगें चहुँ ओर ||९||

तुम निरखत जन दीनदयाल, संकट तें छूटें तत्काल |

ज्यों पशु घेर लेहिं निशि चोर, ते तज भागहिं देखत भोर ||१०||

तुम भविजन-तारक इमि होहि, जे चित धारें तिरहिं ले तोहि |

यह ऐसे करि जान स्वभाव, तिरहिं मसक ज्यों गर्भित बाव ||११||

जिहँ सब देव किये वश वाम, तैं छिन में जीत्यो सो काम |

ज्यों जल करे अगनि-कुल हान, बडवानल पीवे सो पान ||१२||

तुम अनंत गुरुवा गुन लिए, क्यों कर भक्ति धरूं निज हिये |

ह्वै लघुरूप तिरहिं संसार, प्रभु तुम महिमा अगम अपार ||१३||

क्रोध-निवार कियो मन शांत, कर्म-सुभट जीते किहिं भाँत |

यह पटुतर देखहु संसार, नील वृक्ष ज्यों दहै तुषार ||१४||

मुनिजन हिये कमल निज टोहि, सिद्धरूप सम ध्यावहिं तोहि |

कमल-कर्णिका बिन-नहिं और, कमल बीज उपजन की ठौर ||१५||

जब तुव ध्यान धरे मुनि कोय, तब विदेह परमातम होय |

जैसे धातु शिला-तनु त्याग, कनक-स्वरूप धवे जब आग ||१६||

जाके मन तुम करहु निवास, विनशि जाय सब विग्रह तास |

ज्यों महंत ढिंग आवे कोय, विग्रहमूल निवारे सोय ||१७||

करहिं विबुध जे आतमध्यान, तुम प्रभाव तें होय निदान |

जैसे नीर सुधा अनुमान, पीवत विष विकार की हान ||१८||

तुम भगवंत विमल गुणलीन, समल रूप मानहिं मतिहीन |

ज्यों पीलिया रोग दृग गहे, वर्ण विवर्ण शंख सों कहे ||१९||

(दोहा)

निकट रहत उपदेश सुन, तरुवर भयो ‘अशोक’ |

ज्यों रवि ऊगत जीव सब, प्रगट होत भुविलोक ||२०||

‘सुमन वृष्टि’ ज्यों सुर करहिं, हेठ बीठमुख सोहिं |

त्यों तुम सेवत सुमन जन, बंध अधोमुख होहिं ||२१||

उपजी तुम हिय उदधि तें, ‘वाणी’ सुधा समान |

जिहँ पीवत भविजन लहहिं, अजर अमर-पदथान ||२२||

कहहिं सार तिहुँ-लोक को, ये ‘सुर-चामर’ दोय |

भावसहित जो जिन नमहिं, तिहँ गति ऊरध होय ||२३||

‘सिंहासन’ गिरि मेरु सम, प्रभु धुनि गरजत घोर |

श्याम सुतनु घनरूप लखि, नाचत भविजन मोर ||२४||

छवि-हत होत अशोक-दल, तुम ‘भामंडल’ देख |

वीतराग के निकट रह, रहत न राग विशेष ||२५||

सीख कहे तिहुँ-लोक को, ये ‘सुर-दुंदुभि’ नाद |

शिवपथ-सारथ-वाह जिन, भजहु तजहु परमाद ||२६||

‘तीन छत्र’ त्रिभुवन उदित, मुक्तागण छवि देत |

त्रिविध-रूप धर मनहु शशि, सेवत नखत-समेत ||२७||

(पद्धरि छन्द)

प्रभु तुम शरीर दुति रतन जेम,परताप पुंज जिम शुद्ध-हेम |

अतिधवल सुजस रूपा समान, तिनके गुण तीन विराजमान ||२८||

सेवहिं सुरेन्द्र कर नमत भाल, तिन सीस मुकुट तज देहिं माल |

तुम चरण लगत लहलहे प्रीति, नहिं रमहिं और जन सुमन रीति ||२९||

प्रभु भोग-विमुख तन करम-दाह, जन पार करत भवजल निवाह |

ज्यों माटी-कलश सुपक्व होय, ले भार अधोमुख तिरहिं तोय ||३०||

तुम महाराज निरधन निराश,तज तुम विभव सब जगप्रकाश |

अक्षर स्वभाव-सु लिखे न कोय, महिमा भगवंत अनंत सोय ||३१||

कोपियो कमठ निज बैर देख, तिन करी धूलि वरषा विशेष |

प्रभु तुम छाया नहिं भर्इ हीन, सो भयो पापी लंपट मलीन ||३२||

गरजंत घोर घन अंधकार, चमकंत-विज्जु जल मूसल-धार |

वरषंत कमठ धर ध्यान रुद्र, दुस्तर करंत निज भव-समुद्र ||३३||

(वास्तु छन्द)

मेघमाली मेघमाली आप बल फोरि |

भेजे तुरत पिशाच-गण, नाथ-पास उपसर्ग कारण |

अग्नि-जाल झलकंत मुख, धुनिकरत जिमि मत्त वारण |

कालरूप विकराल-तन, मुंडमाल-हित कंठ |

ह्वे निशंक वह रंक निज, करे कर्म दृढ़-गंठ ||३४||

(चौपार्इ छन्द)

जे तुम चरण-कमल तिहुँकाल, सेवहिं तजि माया जंजाल |

भाव-भगति मन हरष-अपार, धन्य-धन्य जग तिन अवतार ||३५||

भवसागर में फिरत अजान, मैं तुव सुजस सुन्यो नहिं कान |

जो प्रभु-नाम-मंत्र मन धरे, ता सों विपति भुजंगम डरे ||३६||

मनवाँछित-फल जिनपद माहिं, मैं पूरब-भव पूजे नाहिं |

माया-मगन फिर्यो अज्ञान, करहिं रंक-जन मुझ अपमान ||३७||

मोहतिमिर छायो दृग मोहि, जन्मान्तर देख्यो नहिं तोहि |

जो दुर्जन मुझ संगति गहें, मरम छेद के कुवचन कहें ||३८||

सुन्यो कान जस पूजे पायँ, नैनन देख्यो रूप अघाय |

भक्ति हेतु न भयो चित चाव, दु:खदायक किरिया बिनभाव ||३९||

महाराज शरणागत पाल, पतित-उधारण दीनदयाल |

सुमिरन करहूँ नाय निज-शीश, मुझ दु:ख दूर करहु जगदीश ||40||

कर्म-निकंदन-महिमा सार, अशरण-शरण सुजस विस्तार |

नहिं सेये प्रभु तुमरे पाय, तो मुझ जन्म अकारथ जाय ||४१||

सुर-गन-वंदित दया-निधान, जग-तारण जगपति अनजान |

दु:ख-सागर तें मोहि निकासि, निर्भय-थान देहु सुख-रासि ||४२||

मैं तुम चरण कमल गुणगाय, बहु-विधि-भक्ति करी मनलाय |

जनम-जनम प्रभु पाऊँ तोहि, यह सेवाफल दीजे मोय ||४३||

(बेसरी छंद – षड्पद)

इहविधि श्री भगवंत, सुजस जे भविजन भाषहिं |

ते निज पुण्यभंडार, संचि चिर-पाप प्रणासहिं ||

रोम-रोम हुलसंति अंग प्रभु-गुण मन ध्यावहिं |

स्वर्ग संपदा भुंज वेगि पंचमगति पावहिं ||

यह कल्याणमंदिर कियो, कुमुदचंद्र की बुद्धि |

भाषा कहत ‘बनारसी’, कारण समकित-शुद्धि ||४४||

|| कवि श्री बनारसीदास जी कृत कल्याणमन्दिर स्तोत्र हिंदी सम्पूर्णम ||