श्री वीतराग स्तोत्र। Shri Veetrag Stotra

यह श्री वीतराग स्तोत्र एक आध्यत्मिकता से परिपूर्ण स्तोत्र है।  आत्मा के गुण धर्म एवं तत्वों के अत्यंत सुन्दरतम शैली इस स्तोत्र में अभिभूत है।

( श्री वीतराग स्तोत्र )

शिवं शुद्धबुद्धं परं विश्वनाथं, न देवो न बन्धु:, न कर्ता न कर्मं।
न अंगं न संगं, न स्वेच्छा न कायं, चिदानंदरूपं, नमो वीतरागं।।

न बन्धो न मोक्षो, न रागादिलोभं, न योगं न भोगं, न व्याधि न शोकं।
न कोपं न मानं, न माया न लोभं, चिदानंदरूपं, नमो वीतरागं।।

न हस्तौ न पादौ, न घ्राणं न जिह्वा, न चक्षु: न कर्णं, न वक्त्रं न निद्रा।
न स्वामी न भृत्यं, न देवो न मर्त्य:, चिदानंदरूपं, नमो वीतरागं।।

न जन्म न मृत्यु:, न मोदो न चिन्ता, न क्षुद्रो न भीतो, न कार्श्यं न तन्द्रा।
न स्वेदं न खेदं, न वर्णं न मुद्रा, चिदानंदरूपं, नमो वीतरागं।।

त्रिदण्डे त्रिखण्डे, हरे विश्वनाथं, ऋषिकेश-विश्वस्त-परमारि-जालम्।
न पुण्यं न पापं, न चाक्षादि गात्रं, चिदानंदरूपं, नमो वीतरागं।।

न बालो न वृद्धो, न तुच्छो न मूढो, न खेदं न भेदं, न मूर्तिं न स्वेद:।
न कृष्णं न शुक्लं, न मोहं न तन्द्रा, चिदानंदरूपं, नमो वीतरागं।।

न आद्यं न मध्यं, न अन्तं न अन्य:, न द्रव्यं न क्षेत्रं, न कालं न भाव:।
गुरु: न शिष्यो, न हीनं न दीनं, चिदानंदरूपं नमो वीतरागं।।

ज्ञानस्वरूपं, स्वयं तत्त्ववेदी, न पूर्णं न शून्यं, न चैत्यस्वरूपी।
न चान्यो न भिन्नं, न परमार्थमेकं, चिदानंदरूपं नमो वीतरागं।।

[शार्दूलविक्रीडित]

आत्माराम-गुणाकरं गुण-निधिं, चैतन्य-रत्नाकरं।
सर्वे भूतगतागते सुख-दु:खे, सन्ति त्वया सर्वगे।।

त्रैलोक्याधिपते स्वयं स्वमनसा ध्यायन्ति योगीश्वरा:।
वन्दे तं हरिवंश-हर्ष-हृदयं, श्रीमान् हृदाभ्युद्यतां।।

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