Powerful Shri Jinshastranaam Stotra -1008 मंत्र अर्थ सहित
(Shri Jinshastranaam Stotra) : पूज्यवर आचार्य श्री जिनसेन स्वामी द्वारा रचित आदिपुराण नामक ग्रन्थ के भाग १ के अध्याय / सर्ग – 25 के 66 वे श्लोक – 227 में उद्धृत भगवान आदिनाथ जी को समर्पित यह 1008 नाम वाला इस जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र को प्रतिदिन पढ़ने व् सुनने से निश्चित ही जीवों को व्यावहारिक और आंतरिक सुख-शांति प्राप्ति होती है।इस स्तोत्र का हिंदी अर्थ ग्रन्थ से ही लिया गया है सम्पूर्ण रूप से , और 1008 मंत्र भी यहाँ प्रस्तुत किये गए है। जो सभी भव्य जीवो के मुक्ति मार्ग में सहायक हो। इस स्तोत्र का पाठ कोशिश करके प्रातः काल की बेला में ही पढ़े और सुने। सुबह -सुबह पढ़ने एवं सुनने का लाभ आपको ज्यादा दृष्टिगोचर होगा।
Shri Jinshastranaam Stotra Arth Sahit
Sanskrit / संस्कृत – Shri Jinshastranaam Stotra
स्वयंभुवे नमस्तुभ्यमुत्पाद्यात्मानमात्मनि |
स्वात्मनैव तथोद्भूतवृत्तयेऽचिन्त्यवृत्तये ||१||
हिंदी अर्थ : हे नाथ ! आप अपने आत्मा में अपनी हीआत्मा के द्वारा अपने आत्मा को उत्पन्न कर प्रकट हुए हैं, इसीलिए आप स्वयंभू अर्थात अपने – आप उत्पन्न हुए कहलाते हैं। इसके सिवाय आपका माहात्म्य भी अचिन्त्य है अतः आपके लिए नमस्कार हो।
नमस्ते जगतां पत्ये लक्ष्मीभर्त्रे नमोऽस्तु ते |
विदांवर नमस्तुभ्यं नमस्ते वदतांवर ||२||
हिंदी अर्थ : आप तीनों लोकों के स्वामी है इसीलिए आपको नमस्कार हो, आप लक्ष्मी के भर्ता है इसीलिए आपको नमस्कार हो, आप विद्वानों में श्रेष्ठ है इसीलिए आपको नमस्कार हो और आप वक्ताओं में श्रेष्ठ है इसीलिए आपको नमस्कार हो।
कर्म-शत्रुहणं देवमामनन्ति मनीषिण: |
त्वामानमत्सुरेण्मौलि-भा-मालाभ्यर्चित-क्रमम् ||३||
हिंदी अर्थ : हे देव, बुद्धिमान लोग आपको कामरूपी शत्रु को नष्ट करने वाला मानते है, और आपके चरण कमल इंद्रों के मुकुटों की कान्ति के समूह से पूजित है इसीलिए हम लोग आपको नमस्कार करते है।
ध्यानद्रुघण-निर्भिन्न घन-घाति-महातरु: |
अनंत-भव-संतान-जयादासीरनंतजित् ||४||
हिंदी अर्थ : अपने ध्यान रूपी कुठार से अतिशय मजबूत घातियाकर्म रुपी बड़े भारी वृक्ष को काट डाला है तथा अनन्त संसार की संतति को भी आपने जीत लिया है इसीलिए आप अनंतजित कहलाते है।
त्रैलोक्य-निर्जयावाप्त-दुर्दर्प्यमति-दुर्जयम् |
मृत्युराजं विजित्यासीज्जिन मृत्युंजयो भवान् ||५||
हिंदी अर्थ : हे जिनेन्द्र ! तीनों लोकों को जीत लेने से जिसे भारी अंहकार उत्पन्न हुआ है और जो अत्यंत दुर्जय है ऐसे मृत्युराज को भी आपने जीत लिया है इसीलिए आप मृत्युंजय कहलाते है।
Shri Jinshastranaam Stotra- जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र
विधूताशेष-संसार-बंधनो भव्य-बांधव: |
त्रिपुरारिस्त्वमीशोऽसि जन्म-मृत्यु-जरान्तकृत् ||६||
हिंदी अर्थ : आपने संसाररूपी समस्त बंधन नष्ट कर दिए है , आप भव्य जीवों के बंधु है और आप जन्म, मरण तथा बुढ़ापा इन तीनो का नाश करने वाले है इसीलिए आप ही ‘त्रिपुरारि‘ कहलाते है।
त्रिकाल-विजयाशेष-तत्त्वभेदात् त्रिधोत्थितम् |
केवलाख्यं दधच्चक्षुस्त्रिनेत्रोऽसि त्वमीशिता ||७||
हिंदी अर्थ : हे ईश्वर ! जो तीनों कालविषयक समस्त पदार्थों को जानने के कारण तीन प्रकार से उत्पन्न हुआ कहलाता है ऐसे केवलज्ञान नामक नेत्र को आप धारण करते है इसीलिए आप ही ‘त्रिनेत्र’ कहे जाते है।
त्वामंधकांतकं प्राहुर्मोहांधासुर-मर्द्दनात् |
अर्द्धं ते नारयो यस्मादर्धनारीश्वरोऽस्यत: ||८||
हिंदी अर्थ : आपने मोहरूपी अन्धासुर को नष्ट कर दिया है इसीलिए विद्वान लोग आपको ही ‘ अन्धकान्तक ‘ कहते है , आठ कर्मरूपी शत्रुओं में से आपके आधे अर्थात चार घातियाकर्मरूपी शत्रुओं के ईश्वर नहीं है इसीलिए ‘अर्धनारीश्वर’ कहलाते है।
शिव: शिव-पदाध्यासाद् दुरितारि-हरो हर: |
शंकर: कृतशं लोके शम्भवस्त्वं भवन्सुखे ||९||
हिंदी अर्थ : आप शिवपद अर्थात मोक्षस्थान में निवास करते है इसीलिए ‘शिव’ कहलाते है, पापरूपी शत्रुओं का नाश करने वाले है इसीलिए ‘हर ‘ कहलाते है, लोक में शान्ति करने वाले है इसीलिए ‘शंकर’ कहलाते है और सुख से उत्पन्न हुए है इसीलिए ‘शम्भव’ कहलाते है।
वृषभोऽसि जगज्ज्येष्ठ: पुरु: पुरु-गुणोदयै: |
नाभेयो नाभि-सम्भूतेरिक्ष्वाकु-कुल-नन्दन: ||१०||
हिंदी अर्थ : जगत में श्रेष्ठ है इसीलिए ‘वृषभ’ कहलाते है, अनेक उत्तम गुणों का उदय होने से ‘पुरु ‘ कहलाते है, नाभिराजा से उत्पन्न हुए है इसीलिए ‘नाभेय’ कहलाते है और इक्ष्वाकु -कुल में उत्पन्न हुए है इसीलिए ‘इक्ष्वाकुकुलनन्दन’ कहलाते है।
त्वमेक: पुरुषस्कंधस्त्वं द्वे लोकस्य लोचने |
त्वं त्रिधा बुद्ध-सन्मार्गस्त्रिज्ञस्त्रिज्ञान-धारक: ||११||
हिंदी अर्थ : समस्त पुरुषों में श्रेष्ठ आप एक ही है , लोगों के नेत्र होने से आप दो रूप धारण करने वाले है तथा आप सम्यकदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र के भेद से तीन प्रकार का मोक्षमार्ग जानते है अथवा भूत, भविष्यत् और वर्तमानकाल सम्बन्धी तीन प्रकार का ज्ञान धारण करते है इसीलिए आप ‘त्रिज्ञ’ भी कहलाते है।
चतु:शरण-मांगल्य-मूर्तिस्त्वं चतुरस्र-धी: |
पंच-ब्रह्ममयो देव: पावनस्त्वं पुनीहि माम् ||१२||
हिंदी अर्थ : अरहंत, सिद्ध, साधु और केवली भगवान् के द्वारा कहा हुआ धर्म ये चार शरण तथा मंगल कहलाते है आप इन चारों ओर की समस्त वस्तुओं को जानने वाले है, पञ्चपरमेष्ठीरूप है और अत्यन्त पवित्र है। इसीलिए हे देव ! मुझे भी पवित्र कीजिये।
स्वर्गावतरणे तुभ्यं सद्योजातात्मने नम: |
जन्माभिषेक-वामाय वामदेव नमोऽस्तु ते ||१३||
हिंदी अर्थ (Shri Jinshastranaam Stotra) : हे नाथ ! आप स्वर्गावतरण के समय सद्योजात अर्थात शीघ्र ही उत्पन्न होने वाले कहलाये थे इसीलिए आपको नमस्कार हो, आप जन्माभिषेक के समय बहुत सुन्दर जान पड़ते थे इसीलिए हे वामदेव , आपके लिए नमस्कार हो।
सन्निष्क्रान्तावघोराय परं प्रशममीयुषे |
केवलज्ञान-संसिद्धावीशानाय नमोऽस्तु ते ||१४||
हिंदी अर्थ : दीक्षा कल्याणक के समय आप परम शान्ति को प्राप्त हुए और केवलज्ञान के प्राप्त होने पर परम पद को प्राप्त हुए तथा ईश्वर कहलाये इसीलिए आपको नमस्कार हो।
पुरस्तत्पुरुषत्वेन विमुक्ति-पद-भागिने |
नमस्तत्पुरुषाऽवस्थां भाविनीं तेऽद्य बिभ्रते ||१५||
हिंदी अर्थ : अब आगे शुद्ध आत्मस्वरूप के द्वारा मोक्षस्थान को प्राप्त होंगे , इसीलिए आगामी काल में प्राप्त होने वाली सिद्ध अवस्था को धारण करने वाले आपके लिए मेरा आज ही नमस्कार हो।
ज्ञानावरणनिर्ह्रासान्नमस्तेऽनन्त-चक्षुषे |
दर्शनावरणोच्छेदान्नमस्ते विश्वदृश्वने ||१६||
हिंदी अर्थ : ज्ञानावरण कर्म का नाश होने से जो अनन्तचक्षु अर्थात अनंतज्ञानी कहलाते है ऐसे आपके लिए नमस्कार हो और दर्शनावरण कर्म का विनाश हो जाने से जो विश्वदृश्वा अर्थात समस्त संसार को देखने वाले कहलाते है ऐसे आपके लिए नमस्कार हो।
नमो दर्शन-मोहघ्ने क्षायिकामलदृष्टये |
नमश्चारित्रमोहघ्ने विरागाय महौजसे ||१७||
हिंदी अर्थ : हे भगवन , आप दर्शन मोहनीय कर्म को नष्ट करने वाले तथा निर्मल क्षायिकसम्यग्दर्शन को धारण करने वाले है इसीलिए आप को नमस्कार हो इसी प्रकार आप चारित्रमोहनीय कर्म को नष्ट करने वाले वीतराग और अतिशय तेजस्वी है इसीलिए आप को नमस्कार हो।
नमस्तेऽनन्तवीर्य्याय नमोऽनन्तसुखात्मने |
नमस्तेऽनन्तलोकाय लोकालोकावलोकिने ||१८||
हिंदी अर्थ : आप अनन्तवीर्य को धारण करने वाले है इसीलिए आपको नमस्कार हो, आप अनन्तसुख रूप है इसीलिए आपको नमस्कार हो, आप अनन्तप्रकाश से सहित तथा लोक और अलोक को देखने वाले है इसीलिए आपको नमस्कार हो।
नमस्तेऽनन्तदानाय नमस्तेऽनन्तलब्धये |
नमस्तेऽनन्तभोगाय नमोऽनन्तोपभोगिने ||१९||
हिंदी अर्थ : अनंतदान को धारण करने वाले आपके लिए नमस्कार हो, अनंतलाभ को धारण करने वाले आपके लिए नमस्कार हो , अनंतभोग को धारण करने वाले आपके लिए नमस्कार हो , और अनंतउपभोग को धारण करने वाले आपके लिए नमस्कार हो।
नम: परमयोगाय नमस्तुभ्यमयोनये |
नम: परमपूताय नमस्ते परमर्षये ||२०||
हिंदी अर्थ (Shri Jinshastranaam Stotra) : हे भगवन ! आप परम ध्यानी है इसीलिए आपको नमस्कार हो , आप अयोनि अर्थात योनि भ्रमण से रहित है इसीलिए आपको नमस्कार हो, आप अत्यंत पवित्र है इसीलिए आपको नमस्कार हो , और आप परमऋषि है इसीलिए आपको नमस्कार हो।
नम: परमविद्याय नम: पर-मतच्छिदे |
नम: परमतत्त्वाय नमस्ते परमात्मने ||२१||
हिंदी अर्थ : आप परमविद्या अर्थात केवलज्ञान को धारण करने वाले है , अन्य सब मतों का खंडन करने वाले है , परमतत्व स्वरुप है और परमात्मा है इसीलिए आपको नमस्कार हो।
नम: परमरूपाय नम: परमतेजसे |
नम: परममार्गाय नमस्ते परमेष्ठिने ||२२||
हिंदी अर्थ : आप उत्कृष्ट रूप को धारण करने वाले है , परम तेजस्वी है , उत्कृष्ट मार्गस्वरूप है और परमेष्ठी है इसीलिए आपको नमस्कार हो।
परमं भेजुषे धाम परमज्योतिषे नम: |
नम: पारेतम: प्राप्त-धाम्ने परतरात्मने ||२३||
हिंदी अर्थ : आप सर्वोत्कृष्ट मोक्षस्थान की सेवा करने वाले है , परम ज्योति: स्वरुप है , आपका ज्ञानरूपी तेज अन्धकार से परे है और आप सर्वोत्कृष्ट है इसीलिए आपको नमस्कार हो।
नम: क्षीणकलंकाय क्षीणबन्ध नमोऽस्तु ते |
नमस्ते क्षीणमोहाय क्षीणदोषाय ते नम: ||२४||
हिंदी अर्थ : आप कर्मरूपी कलंक से रहित है इसीलिए आपको नमस्कार हो , आपका कर्मबन्धन क्षीण हो गया है इसीलिए आपको नमस्कार हो , आपका मोहकर्म नष्ट हो गया है इसीलिए आपको नमस्कार हो और आपके समस्त राग आदि दोष नष्ट हो गए है इसीलिए आपको नमस्कार हो।
नम: सुगतये तुभ्यं शोभनां गतिमीयुषे |
नमस्तेऽतीन्द्रिय-ज्ञान-सुखायानिन्द्रियात्मने ||२५||
हिंदी अर्थ : आप मोक्षरुपी उत्तम गति को प्राप्त होने वाले है इसीलिए सुगति है अतः आपको नमस्कार हो , आप अतीन्द्रियज्ञान और सुख से सहित है तथा इन्द्रियों से रहित अथवा इन्द्रियों के अगोचर है इसीलिए आपको नमस्कार हो।
काय-बन्धन-निर्मोक्षादकायाय नमोऽस्तु ते |
नमस्तुभ्यमयोगाय योगिनामधियोगिने ||२६||
हिंदी अर्थ : आप शरीररूपी बन्धन के नष्ट हो जाने से अकाय कहलाते है इसीलिए आपको नमस्कार हो , आप योगरहित है और योगियों अर्थात मुनियों में सबसे उत्कृष्ट है इसीलिए आपको नमस्कार हो।
अवेदाय नमस्तुभ्यमकषायाय ते नम: |
नम: परम-योगीन्द्र-वन्दितांघ्रि-द्वयाय ते ||२७||
हिंदी अर्थ : आप वेदरहित है, कषायरहित है , और बड़े – बड़े योगिराज भी आपके चरणयुगल की वंदना करते है इसीलिए आपको नमस्कार हो।
नम: परमविज्ञान नम: परमसंयम |
नम: परमदृग्दृष्ट-परमार्थाय तायिने ||२८||
(Shri Jinshastranaam Stotra) हिंदी अर्थ : हे परमविज्ञान , अर्थात उत्कृष्ट केवलज्ञान को धारण करने वाले आपको नमस्कार हो , हे परम संयम , अर्थात उत्कृष्ट यथाख्यात चारित्र को धारण करने वाले आपको नमस्कार हो। हे भगवन आपने उत्कृष्ट केवलदर्शन के द्वारा परमार्थ को देख लिया है तथा आप सबकी रक्षा करने वाले है इसलिए आपको नमस्कार हो।
नमस्तुभ्यमलेश्याय शुक्ललेश्यांशक-स्पृशे |
नमो भव्येतरावस्थाव्यतीताय विमोक्षिणे ||२९||
हिंदी अर्थ : आप यद्यपि लेश्यायों से रहित है तथापि उपचार से शुद्ध शुक्ललेश्या के अंशों का स्पर्श करने वाले है , भव्य तथा अभव्य दोनों ही अवस्थाओं से रहित है और मोक्ष रूप है इसीलिए आपको नमस्कार हो।
संज्ञ्यसंज्ञि-द्वयावस्था-व्यतिरिक्तामलात्मने |
नमस्ते वीतसंज्ञाय नम: क्षायिकदृष्टये ||३०||
हिंदी अर्थ : आप संज्ञी और असंज्ञी दोनों अवस्थाओं से रहित निर्मल आत्मा को धारण करने वाले है, आपकी आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चारों संज्ञाएँ नष्ट हो गयी है तथा क्षायिकसम्यग्दर्शन को धारण कर रहे है इसीलिए आपको नमस्कार हो।
अनाहाराय तृप्ताय नम: परम-भा-जुषे |
व्यतीताशेषदोषाय भवाब्धे: पारमीयुषे ||३१||
हिंदी अर्थ : आप आहार रहित होकर भी सदा तृप्त रहते है , परम दीप्ती को प्राप्त है , आपके समस्त दोष नष्ट हो गए है और आप संसार रूपी समुद्र के पार को प्राप्त हुए है इसीलिए आपको नमस्कार हो।
अजराय नमस्तुभ्यं नमस्ते स्तादजन्मने |
अमृत्यवे नमस्तुभ्यमचलायाक्षरात्मने ||३२||
हिंदी अर्थ : आप बुढ़ापा रहित है , जन्मरहित है , मृत्यु रहित है , अचलरूप है और अविनाशी है इसीलिए आपको नमस्कार हो।
अलमास्तां गुणस्तोत्रमनन्तास्तावका गुणा: |
त्वां नामस्मृतिमात्रेण पर्युपासिसिषामहे ||३३||
हिंदी अर्थ : हे भगवन , आपके गुणों का स्तवन दूर रहे , क्योंकि आपके अनंतगुण है उन सबका स्तवन होना कठिन है इसीलिए केवल आपके नामों का स्मरण करके ही हम लोग आपकी उपासना करना चाहते है।
एवं स्तुत्वा जिनं देवं भक्त्या परमया सुधी: |
पठेदष्टोत्तरं नाम्नां सहस्रं पाप-शान्तये ||34||
हिंदी अर्थ : इस प्रकार यह जिनेन्द्र देव की १००८ नाम से युक्त स्तोत्र भक्ति बुद्धिजन (अगर कहीं त्रुटि हो तो ) उसे सुधारकर पढ़े। यह स्तोत्र सहस्त्र पापों को शांत करने वाला है।
।। इति प्रस्तावना ।।
Shri Jinshastranaam Stotra – श्रीमद् आदिशतम्
प्रसिद्धाष्ट-सहस्रेद्धलक्षणं त्वां गिरांपतिम् |
नाम्नामष्टसहस्रेण तोष्टुमोऽभीष्टसिद्धये ||१||
हिंदी अर्थ (Shri Jinshastranaam Stotra) : आपके देदीप्यमान एक हज़ार आठ लक्षण अतिशय प्रसिद्ध है और आप समस्त वाणियों के स्वामी है इसीलिए हम लोग अपनी अभीष्टसिद्धि के लिए एक हज़ार आठ नामों से आपकी स्तुति करते है।
जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र भगवान नाम – 1 से 11 का अर्थ
श्रीमान् स्वयंभूर्वृषभ: शम्भव: शम्भुरात्मभू: |
स्वयंप्रभ: प्रभुर्भोक्ता विश्वभूरपुनर्भव: ||२||
हिंदी अर्थ : आप अनन्तचतुष्टय रूप अन्तरङ्गलक्ष्मी और अष्ट प्रातिहार्य रूप बहिरंग लक्ष्मी से सहित है इसीलिए श्रीमान १ कहलाते है , आप अपने आप उत्पन्न हुए है किसी गुरु के उपदेश की सहायता के बिना अपने आप ही सम्बुद्ध हुए है इसीलिए आप स्वयंभू २ कहलाते है, आप वृष अर्थात धर्म से सुशोभित है इसीलिए वृषभ ३ कहलाते है , आपके स्वयं अनंत सुख की प्राप्ति हुई है तथा आपके द्वारा संसार के अन्य अनेक प्राणियों को सुख प्राप्त हुआ है इसीलिए शंभव ४ कहलाते है , आप परमानन्दरूप सुख के देने वाले है इसीलिए शंभु ५ कहलाते है , आपने यह उत्कृष्ट अवस्था अपने ही द्वारा प्राप्त की है अथवा योगीश्वर अपनी आत्मा में ही आपका साक्षात्कार कर सकते है इसिलए आप आत्मभू ६ कहलाते है।, आप होने आप ही प्रकाशमान होते है इसी-लिए स्वयंप्रभ ७ है , आप समर्थ अथवा सबके स्वामी है इसीलिए प्रभु ८ है , अनन्त – आत्मोत्थ सुख का अनुभव करने वाले है इसीलिए भोक्ता ९ है , केवलज्ञान की अपेक्षा सब जगह व्याप्त है अथवा ध्यानादि के द्वारा सब जगह प्रत्यक्ष रूप से प्रकट होते है इसीलिए विश्वभू १० है, अब आप पुनः संसार में आकर जन्म धारण नहीं करेंगे इसलिए अपुनर्भव ११ है।
जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र भगवान नाम – 12 से 19 का अर्थ
विश्वात्मा विश्वलोकेशो विश्वतश्चक्षुरक्षर: |
विश्वविद्विश्वविद्येशो विश्वयोनिरनश्वर: ||३||
हिंदी अर्थ (Shri Jinshastranaam Stotra): संसार के समस्त पदार्थ आपकी आत्मा में प्रतिबिंबित हो रहे है इसीलिए आप विश्वात्मा १२ कहलाते है , आप समस्त लोक के स्वामी है इसलिए विश्वलोकेश १३ कहलाते है , आपके ज्ञानदर्शनरूपी नेत्र संसार में सभी ओर अप्रतिहत है इसलिए आप विश्वतश्चक्षु १४ कहलाते है , अविनाशी है इसलिए अक्षर १५ कहे जाते है , समस्त पदार्थों को जानते है इसलिए विश्वविद १६ कह- लाते है , समस्त विद्याओं के स्वामी है इसलिए विश्वविद्येश १७ कहे जाते है , समस्त पदार्थों की उत्पत्ति के कारण है अर्थात उपदेश देने वाले है इसलिए विश्वयोनि १८ कहलाते है ,आपके स्वरुप का कभी नाश नहीं होता इसलिए अनश्वर १९ कहे जाते है।
जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र भगवान नाम – 20 से 29 का अर्थ
विश्वदृश्वा विभुर्धाता विश्वेशो विश्वलोचन: |
विश्वव्यापी विधिर्वेधा: शाश्वतो विश्वतोमुख: ||४||
हिंदी अर्थ : समस्त पदार्थों को देखने वाले है इसलिए विश्वदृश्वा २० है , केवलज्ञान की अपेक्षा सब जगह व्याप्त है अथवा सब जीवों को संसार से पार करने में समर्थ है अथवा परमोत्कृष्ट विभूति से सहित है इसलिए विभु २१ है , संसारी जीवों का उद्धार कर उन्हें मोक्षस्थान में धारण करने वाले है – पहुंचाने वाले है अथवा सब जीवों का पोषण करने वाले है अथवा मोक्षमार्ग की सृष्टि करने वाले है इसलिए धाता २२ कहलाते है , समस्त जगत के ईश्वर है इसलिए विश्वेश २३ कहलाते है , सब पदार्थों को देखने वाले है अथवा सबके हित सन्मार्ग का उपदेश देने के कारण सब जीवों के नेत्रों के समान है इसलिए विश्वलोचन २४ कहे जाते है , संसार के समस्त पदार्थों को जानने के कारण आपका ज्ञान सब जगह व्याप्त है इसलिए आप विश्वव्यापी २५ कहलाते है , आप समीचीन मोक्षमार्ग का विधान करने से विधि २६ कहलाते है। धर्मरूप जगत की सृष्टि करने वाले है इसलिए वेधा २७ कहलाते है , सदा विद्यमान रहते है इसलिए शाश्वत २८ कहे जाते है , समवसरण सभा में आपके चारों दिशाओं से दिखते है अथवा आप विश्वतोमुख अर्थात जल की तरह पापरूपी पंक को दूर करने वाले , स्वच्छ तथा तृष्णा को नष्ट करने वाले है इसलिए विश्वतोमुख २९ कहे जाते है।
जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र भगवान नाम – 30 से 37 का अर्थ
विश्वकर्मा जगज्ज्येष्ठो विश्वमूर्तिर्जिनेश्वर: |
विश्वदृग् विश्वभूतेशो विश्वज्योतिरनीश्वर: ||५||
हिंदी अर्थ : आपने कर्मभूमि की व्यवस्था करते समय लोगों की आजीविका के लिए असि -मसि आदि सभी कर्मों -कार्यों का उपदेश दिया था इसलिए आप विश्वकर्मा ३० कहलाते है , आप जगत में सबसे ज्येष्ठ अर्थात श्रेष्ठ है इसलिए जगज्ज्येष्ठ ३१ कहे जाते है , आप अनंत गुणमय है अथवा समस्त पदार्थों के आकार आप के ज्ञान में प्रतिफलित हो रहे है इसलिए आप विश्वमूर्ति ३२ है, कर्मरूप शत्रुओं को जीतने वाले सम्यग्दृष्टि आदि जीवों के आप ईश्वर है इसलिए जिनेश्वर ३३ कहलाते है, आप संसार के समस्त पदार्थों का सामन्यावलोकन करते है इसलिए विश्वदृक ३४ कहलाते है , समस्त प्राणियों के ईश्वर है इसलिए विश्वभूतेश ३५ कहे जाते है , आपकी केवलज्ञानरूपी ज्योति अखिल संसार में व्याप्त है इसलिए आप विश्वज्योति ३६ कहलाते है , आप सबके स्वामी है किन्तु आपका कोई भी स्वामी नहीं है इसलिए आप अनीश्वर ३७ कहे जाते है।
Shri Jinshastranaam Stotra भगवान नाम – 38 से 46 का अर्थ
जिनो जिष्णुरमेयात्मा विश्वरीशो जगत्पति: |
अनन्तजिदचिन्त्यात्मा भव्यबन्धुरबन्धन: ||6||
हिंदी अर्थ : आपने घातियाकर्मरूपी शत्रुओं को जीत लिया है इससे आप जिन ३८ कहलाते है , कर्मरूपी शत्रुओं को जीतना ही आपका शील अर्थात स्वभाव है इसलिए आप जिष्णु ३९ कहे जाते है , आपकी आत्मा को अर्थात आपके अनंतगुणों को कोई नहीं जान सका है इसलिए आप अमेयात्मा ४० है , पृथिवी के ईश्वर है इसलिए विश्वरीश ४१ कहलाते है , तीनों लोकों के स्वामी है इसलिए जगत्पति ४२ कहे जाते है , अनंत संसार अथवा मिथ्यादर्शन को जीत लेने के कारण आप अनंतजित ४३ कहलाते है , आपकी आत्मा का चिंतवन मन से भी नहीं किया जा सकता इसलिए आप अचिन्त्यात्मा ४४ है , भव्य जीवों के हितैषी है इसलिए भव्यबन्धु ४५ कहलाते है , कर्मबन्धन से रहित होने के कारण अबन्धन ४६ कहलाते है।
Shri Jinshastranaam Stotra भगवान नाम – 47 से 55 का अर्थ
युगादिपुरुषो ब्रह्मा पंचब्रह्ममय: शिव: |
पर: परतर: सूक्ष्म: परमेष्ठी सनातन: ||7||
हिंदी अर्थ : आप इस कर्मभूमिरूपी युग के प्रारम्भ में उत्पन्न हुए थे इसलिए युगादिपुरुष ४७ कहलाते है , केवलज्ञान आदि गुण आप में बृहण अर्थात वृद्धि को प्राप्त हो रहे है , इसलिए आप ब्रह्मा ४८ कहे जाते है , आप पञ्चपरमेष्ठी स्वरुप है इसलिए पंचब्रह्ममय ४९ कहलाते है , शिव अर्थात मोक्ष अथवा आनन्दरूप होने से शिव ५० कहे जाते है , आप सब जीवों का पालन अथवा समस्तज्ञान आदि गुणों को पूर्ण करने वाले है इसलिए पर ५१ कहलाते है , संसार में सबसे श्रेष्ठ है इसलिए परतर ५२ कहलाते है , इन्द्रियों के द्वारा आपका आकार नहीं जाना जा सकता अथवा नामकर्म क्षय हो जाने से आप में बहुत शीघ्र सूक्ष्मत्व गुण प्रकट होने वाला है इसलिए आपको सूक्ष्म ५३ कहते है , परमपद में स्थित है इसलिए परमेष्ठी ५४ कहलाते है , और सदा एक से ही विद्यमान रहते है इसलिए सनातन ५५ कहे जाते है।
jin sahasranama Stotra भगवान नाम – 56 से 64 का अर्थ
स्वयंज्योतिरजोऽजन्मा ब्रह्मयोनिरयोनिज: |
मोहारिविजयी जेता धर्मचक्री दयाध्वज: ||8||
जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र हिंदी अर्थ : आप स्वयं प्रकाशमान है इसलिए स्वयंज्योति ५६ कहलाते है , संसार में उत्पन्न नहीं होते इसलिए अज ५७ कहे जाते है , जन्मरहित है इसलिए अजन्मा ५८ कहलाते है , आप ब्रह्म अर्थात वेद ( द्वादशांग शास्त्र ) की उत्पत्ति के कारण है इसलिए ब्रह्मयोनि ५९ कहलाते है , चौरासी लाख योनियों में उत्पन्न नहीं होते इसलिए अयोनिज ६० कहे जाते है , मोहरूपी शत्रु को जीतने वाले है इससे मोहारिविजयी ६१ कहलाते है , सर्वदा सर्वोत्कृष्ट रूप से विद्यमान रहते है इसलिए जेता ६२ कहे जाते है , आप धर्मचक्र को प्रवर्तित करते है इसलिए धर्मचक्री ६३ कहलाते है , दया ही आपकी ध्वजा है इसलिए आप दयाध्वज ६४ कहे जाते है।
jin sahasranama Stotra भगवान नाम – 65 से 72 का अर्थ
प्रशान्तारिरनन्तात्मा योगी योगीश्वरार्चित: |
ब्रह्मविद् ब्रह्मतत्त्वज्ञो ब्रह्मोद्याविद्यतीश्वर: ||9||
हिंदी अर्थ : आपके समस्त कर्मरूप शत्रु शांत हो गए है इसलिए आप प्रशान्तारि ६५ कहलाते है , आपकी आत्मा का अंत कोई नहीं पा सका है इसलिए आप अनन्तात्मा ६६ है , आप योग अर्थात केवलज्ञान आदि अपूर्व अर्थों की प्राप्ति से सहित है अथवा ध्यान से युक्त है अथवा मोक्षप्राप्ति के उपायभूत सम्यग्दर्शनादि उपायों से सुशोभित है इसलिए योगी ६७ कहलाते है , योगियों अर्थात मुनियों के अधीश्वर आपकी पूजा करते है इसलिए योगीश्वरार्चित ६८ है , ब्रह्म अर्थात शुद्ध आत्मस्वरूप को जानते है इसलिए ब्रह्मविद ६९ कहलाते है , ब्रह्मचर्य अथवा आत्मारुपी तत्व के रहस्य को जानने वाले है इसलिए ब्रह्मतत्वज्ञ ७० कहे जाते है, पूर्व ब्रह्मा के द्वारा कहे हुए समस्त तत्व अथवा केवलज्ञानरूपी आत्मविद्या को जानते है इसलिए ब्रह्मोद्यावित् ७१ कहे जाते है , मोक्ष प्राप्त करने के लिए यत्न करने वाले संयमी मुनियों के स्वामी है इसलिए यतीश्वर ७२ कहलाते है।
jin sahasranama Stotra भगवान नाम – 73 से 82 का अर्थ
शुद्धो बुद्ध: प्रबुद्धात्मा सिद्धार्थ: सिद्धशासन: |
सिद्ध: सिद्धान्तविद् ध्येय: सिद्धसाध्यो जगद्धित: ||10||
जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र हिंदी अर्थ : आप राग द्वेषादि भाव कर्ममल कलंक से रहित होने के कारण शुद्ध ७३ है , संसार के समस्त पदार्थों को जाननेवाली केवलज्ञान रूपी बुद्धि से संयुक्त होने के कारण बुद्ध ७४ कहलाते है , आपकी आत्मा सदा शुद्ध ज्ञान से जगमगाती रहती है इसलिए आप प्रबुद्धात्मा ७५ है , आपके सब प्रयोजन सिद्ध हो चुके है इसलिए आप सिद्धार्थ ७६ कहलाते है , आपका शासन सिद्ध अर्थात प्रसिद्ध हो चुका है इसलिए आप सिद्धशासन ७७ है , आप अपने अनंतगुणों को प्राप्त कर चुके है अथवा बहुत शीघ्र मोक्ष अवस्था प्राप्त करने वाले है इसलिए सिद्ध ७८ कहलाते है , आप द्वादशांगरूप सिद्धांत को जानने वाले है इसलिए सिद्धांतविद ७९ कहे जाते है , सभी लोग आपका ध्यान करते है इसलिए आप ध्येय ८० कहलाते है , आपके समस्त साध्य अर्थात करने योग्य कार्य सिद्ध हो चुके है इसलिए आप सिद्धसाध्य ८१ कहलाते है , आप जगत के समस्त जीवों का हित करने वाले है इससे जगद्धित ८२ कहे जाते है।
jin sahasranama Stotra भगवान नाम – 83 से 93 का अर्थ
सहिष्णुरच्युतोऽनन्त: प्रभविष्णुर्भवोद्भव: |
प्रभूष्णुरजरोऽजर्यो भ्राजिष्णुर्धीश्वरोऽव्यय: ||11||
हिंदी अर्थ : सहनशील है अर्थात क्षमा गुण के भण्डार है इसलिए सहिष्णु ८३ कहलाते है , ज्ञानादि गुणों से कभी च्युत नहीं होते इसलिए अच्युत ८४ कहे जाते है , विनाशरहित है इसलिए अनन्त ८५ कहलाते है , प्रभावशाली है इसलिए प्रभविष्णु ८६ कहे जाते है , संसार में आपका जन्म सबसे उत्कृष्ट माना जाता गया है इसलिए आप भवोद्भव ८७ कहलाते है , आप शक्तिशाली है इसलिए प्रभूष्णु ८८ कहे जाते है, वृद्धावस्था से रहित होने के कारण अजर ८९ है , आप कभी जीर्ण नहीं होते इसलिए अजर्य ९० है , ज्ञानादि गुणों से अतिशय देदीप्यमान हो रहे है इसलिए भ्राजिष्णु ९१ है , केवलज्ञानरूपी बुद्धि के ईश्वर है इसलिए धीश्वर ९२ कहलाते है , कभी आपका व्यय अर्थात नाश नहीं होता इसलिए आप अव्यय ९३ कहलाते है।
जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र भगवान नाम – 94 से 100 का अर्थ
विभावसुरसंभूष्णु: स्वयंभूष्णु: पुरातन: |
परमात्मा परंज्योतिस्त्रिजगत्परमेश्वर: ||१२||
जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र हिंदी अर्थ : आप कर्मरूपी ईंधन को जलाने के लिए अग्नि के समान है अथवा मोहरूपी अन्धकार को नष्ट करने के लिए सूर्य के समान है इसलिए विभावसु ९४ कहलाते है , आप संसार में पुनः उत्पन्न नहीं होंगे इसलिए असम्भूष्णु ९५ कहे जाते है , आप अपने आप ही इस अवस्था को प्राप्त हुए है इसलिए स्वयम्भूष्णु ९६ है , प्राचीन है – द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा अनादिसिद्ध है इसलिए पुरातन ९७ कहलाते है , आपकी आत्मा अतिशय उत्कृष्ट है इसलिए आप परमात्मा ९८ कहे जाते है , उत्कृष्ट ज्योति: स्वरुप है इसलिए परंज्योति ९९ कहलाते है , तीनों लोकों के ईश्वर है इसलिए त्रिजगतपरमेश्वर १०० कहे जाते है।
ॐ ह्रीं श्रीमदादिशतम् नमः ।१।
।। Shri Jinshastranaam Stotra- इति श्रीमदादिशतं ।।
जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र भगवान नाम – 101 से 108 का अर्थ
दिव्यभाषापतिर्दिव्य: पूतवाक्पूतशासन: |
पूतात्मा परमज्योतिर्धर्माध्यक्षो दमीश्वर: ||१||
हिंदी अर्थ : आप दिव्य -ध्वनि के पति है इसलिए आपको दिव्यभाषापति 101 कहते है , अत्यंत सुंदर है इसलिए आप दिव्य 102 कहलाते है , आपके वचन अतिशय पवित्र है इसलिए आप पूतवाक् 103 कहे जाते है, आपका शासन पवित्र होने से आप पूतशासन 104 कहलाते है , आपकी आत्मा पवित्र है इसलिए आप पूतात्मा 105 कहे जाते है, उत्कृष्ट ज्योतिस्वरूप है इसलिए परमज्योति 106 कहलाते है, धर्म के अध्यक्ष है इसलिए धर्माध्यक्ष 107 कहे जाते है , इंद्रियों को जीतने वालों में श्रेष्ठ है इसलिए दमीश्वर 108 कहलाते है ।
जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र भगवान नाम – 109 से 120 का अर्थ
श्रीपतिर्भगवानर्हन्नरजा विरजा: शुचि: |
तीर्थकृत्केवलीशान: पूजार्ह: स्नातकोऽमल: ||२||
हिंदी अर्थ : मोक्षरूपी लक्ष्मी के अधिपति है इसलिए श्रीपति 109 कहलाते है, अष्टप्रातिहार्यरूप उत्तम ऐश्वर्य से सहित है इसलिए भगवान् 110 कहे जाते है, सबके द्वारा पूज्य है इसलिए अर्हन् 111 कहलाते है , कर्मरूपी धूलि से रहित है इसलिए अरजा: 112 कहे जाते है, आपके द्वारा भव्य जीवों के कर्ममल दूर होते है अथवा आप ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण कर्म से रहित है इसलिए विरजा: 113 कहलाते है, अतिशय पवित्र है इसलिए शुचि 114 कहे जाते है, धर्मरूप तीर्थ के करने वाले है इसलिये तीर्थकृत् 115 कहलाते है, केवलज्ञान से सहित होने के कारण केवली 116 कहे जाते है, अनन्त सामर्थ्य से युक्त होने के कारण ईशान 117 कहलाते है, पूजा के योग्य होने से पूजार्ह 118 है, घातियाकर्मों के नष्ट होने अथवा पूर्णज्ञान होने से आप स्नातक 119 कहलाते है, आपका शरीर मलरहित है अथवा आत्मा राग – द्वेष आदि दोषों से वर्जित है इसलिए आप अमल 120 कहे जाते है ।
जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र भगवान नाम – 121 से 129 का अर्थ
अनन्तदीप्तिर्ज्ञानात्मा स्वयंबुद्ध: प्रजापति: |
मुक्त: शक्तो निराबाधो निष्कलो भुवनेश्वर: ||३||
हिंदी अर्थ : आप केवलज्ञानरूपी अनन्त दीप्ति अथवा शरीर की अपरिमित प्रभा के धारक है इसलिए अनन्तदीप्ति 121 कहलाते है, आपकी आत्मा ज्ञानस्वरूप है इसलिए आप ज्ञानात्मा 122 है, आप स्वयं संसार से विरक्त होकर मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हुए है अथवा आपने गुरुओं की सहायता के बिना ही समस्त पदार्थों का ज्ञान प्राप्त किया है इसलिए स्वयंबुद्ध 123 कहलाते है, समस्त जनसमूह के रक्षक होने से आप प्रजापति 124 है, कर्मरूप बन्धन से रहित है इसलिए मुक्त 125 कहलाते है, अनन्त बल से सम्पन्न होने के कारण शक्त126 कहे जाते है, बाधा – उपसर्ग आदि से रहित है इसलिए निराबाध 127 कहलाते है, शरीर अथवा माया से रहित होने के कारण निष्कल 128 कहे जाते है, और तीनों लोकों के ईश्वर होने से भुवनेश्वर 129 कहलाते है ।
जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र भगवान नाम – 130 से 138 का अर्थ
निरंजनो जगज्ज्योतिर्निरुक्तोक्तिरनामय: |
अचलस्थितिरक्षोभ्य: कूटस्थ: स्थाणुरक्षय: ||४||
हिंदी अर्थ : आप कर्मरूपी अंजन से रहित है इसलिए निरञ्जन 130 कहलाते है, जगत को प्रकाशित करने वाले है इसलिए जगज्ज्योति 131 कहे जाते है, आपके वचन सार्थक है अथवा पूर्वापर विरोध से रहित है इसलिए आप निरुक्तोक्ति 132 कहलाते है, रोग रहित होने से अनामय 133 है, आपकी स्थिति अचल है इसलिए अचलस्थिति 134 कहलाते है, आप कभी क्षोभ को प्राप्त नही होते इसलिए अक्षोभ्य 135 है, नित्य होने से कूटस्थ 136 है, गमनागमन से रहित होने के कारण स्थाणु 137 है और क्षयरहित होने के कारण अक्षय 138 है ।
जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र भगवान नाम – 139 से 148 का अर्थ
अग्रणीर्ग्रामणीर्नेता प्रणेता न्यायशास्त्रकृत् |
शास्ता धर्मपतिर्धर्म्यो धर्मात्मा धर्मतीर्थकृत् ||५||
हिंदी अर्थ : आप तीनों लोकों में सबसे श्रेष्ठ है इसलिए अग्रणी 139 कहलाते है, भव्य जीवों के समूह को मोक्ष प्राप्त कराने वाले है इसलिए ग्रामणी 140 है, सब जीवों को हित के मार्ग में प्राप्त कराते है इसलिए नेता 141 है, द्वादशांगरूप शास्त्र की रचना करने वाले है इसलिए प्रणेता 142 है, न्यायशास्त्र का उपदेश देने वाले है इसलिए न्यायशास्त्रकृत 143 कहे जाते है, हित का उपदेश देने के कारण शास्ता 144 कहलाते है, उत्तम क्षमा आदि धर्मों के स्वामी है इसलिए धर्मपति 145 कहे जाते है, धर्म से सहित है इसलिये धमर्य 146 कहलाते है, आपकी आत्मा धर्मरूप अथवा धर्म से उपलक्षित है इसलिए आप धर्मात्मा 147 कहलाते है और आप धर्मरूपी तीर्थ के करने वाले है इसलिए धर्मतीर्थकृत 148 कहे जाते है ।
जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र भगवान नाम – 149 से 157 का अर्थ
वृषध्वजो वृषाधीशो वृषकेतुर्वृषायुध: |
वृषो वृषपतिर्भर्त्ता वृषभांको वृषोद्भव: ||६||
हिंदी अर्थ : आपकी ध्वजा में वृष अर्थात बैल का चिन्ह है अथवा धर्म ही आपकी ध्वजा है अथवा आप वृषभ चिन्ह से अंकित है इसलिए वृषध्वज 149 कहलाते है , आप वृष अर्थात धर्म के पति है इसलिए वृषाधीश 150 कहे जाते है, आप धर्म की पताका स्वरूप है इसलिए लोग आपको वृषकेतु 151 कहते है, आपने कर्मरूप शत्रुओं को नष्ट करने के लिए धर्मरूप शस्त्र धारण किये है इसलिए आप वृषायुध 152 कहे जाते है, आप धर्मरूप इसलिए वृष 153 कहलाते है, धर्म के स्वामी है इसलिए वृषपति 154 कहे जाते है, समस्त जीवों का भरण – पोषण करते है इसलिए भर्ता 155 कहलाते है , वृषभ अर्थात बैल के चिन्ह से सहित है इसलिए वृषभांक 156 कहे जाते है, और पूर्व पर्याय में उत्तम धर्म करने से ही आप तीर्थंकर होकर उत्पन्न हुए है इसलिए आप वृषोद्भव 157 कहलाते है ।
जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र भगवान नाम – 158 से 167 का अर्थ
हिरण्यनाभिर्भूतात्मा भूतभृद् भूतभावन: |
प्रभवो विभवो भास्वान् भवो भावो भवान्तक: ||७||
हिंदी अर्थ : सुंदर नाभि होने से आप हिरण्यनाभि 158 कहलाते है, आपकी आत्मा सत्यरूप है इसलिए भूतात्मा 159 कहे जाते है, आप समस्त जीवों की रक्षा करते है इसलिए पण्डितजन आपको भूतभृत 160 कहते है , आपकी भावनाएं बहुत ही उत्तम है इसलिए आप भूतभावन 161 कहलाते है, आप मोक्षप्राप्ति के कारण है अथवा आपका जन्म प्रशंसनीय है इसलिए प्रभव 162 कहे जाते है , संसार से रहित होने के कारण आप विभव 163 कहलाते है, देदीप्यमान होने से भास्वान् 164 है, उत्पाद , व्यय तथा ध्रौव्य रूप से सदा उत्पन्न होते रहते है इसलिए भव 165 कहलाते है , अपने चैतन्यरूप भाव मे लीन रहते है इसलिए भाव 166 कहे जाते है और संसार भ्रमण के अन्त करने वाले है इसलिए भवान्तक 167 कहलाते है ।
जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र भगवान नाम – 168 से 175 का अर्थ
हिरण्यगर्भ: श्रीगर्भ: प्रभूतविभवोऽभव: |
स्वयंप्रभु: प्रभूतात्मा भूतनाथो जगत्पति: ||८||
हिंदी अर्थ : जब आप गर्भ में थे तभी पृथिवी सुवर्णमय हो गयी थी और आकाश से देव ने भी सुवर्ण की वृष्टि की थी इसलिए आप हिरण्यगर्भ 168 कहे जाते है , आपके अन्तरंग में अनन्तचतुष्ट्य रूपी लक्ष्मी देदीप्यमान हो रही है इसलिए आप श्रीगर्भ 169 कहलाते है , आपका विभव बड़ा भारी है इसलिए आप प्रभूतविभव 170 कहे जाते है , जन्मरहित होने के कारण अभव 171 कहलाते है, स्वयं समर्थ होने से स्वयंप्रभु 172 कहे जाते है, केवलज्ञान की अपेक्षा आपकी आत्मा सर्वत्र व्याप्त है इसलिए आप प्रभुतात्मा 173 है, समस्त जीवों के स्वामी होने से भूतनाथ 174 है, और तीनों लोकों के स्वामी होने से जगत्प्रभु 175 है ।
जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र भगवान नाम – 176 से 184 का अर्थ
सर्वादि: सर्वदृक् सार्व: सर्वज्ञ: सर्वदर्शन: |
सर्वात्मा सर्वलोकेश: सर्ववित्सर्वलोकजित् ||९||
हिंदी अर्थ : सबसे मुख्य होने के कारण सर्वादि 176 हैं, सब पदार्थों के देखने के कारण सर्वदृक 177 है, सबका हित करने वाले हैं इसलिए सार्व 178 कहलाते हैं, सब पदार्थों को जानते हैं इसलिए सर्वज्ञ 179 कहे जाते हैं, आपका दर्शन अर्थात सम्यक्त्व अथवा केवल दर्शन पूर्ण अवस्था को प्राप्त हुआ है इसलिए आप सर्वदर्शन 180 कहलाते हैं, आप सबका भला चाहते हैं सबको अपने समान समझते हैं अथवा संसार के समस्त पदार्थ आपके आत्मा में प्रतिबिंबित हो रहे हैं इसलिए आप सर्वात्मा 181 कहे जाते हैं, सब लोगों के स्वामी हैं इसलिए सर्वलोकेश 182 कहलाते हैं, सब पदार्थों को जानते है इसलिए सर्वविद 183 है, और समस्त लोकों को जीतने वाले हैं- सबसे बढ़कर हैं इसलिए सर्वलोकजित 184 कहलाते है ।
जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र भगवान नाम – 185 से 194 का अर्थ
सुगति: सुश्रुत: सुश्रुक् सुवाक् सूरिर्बहुश्रुत: |
विश्रुतो विश्वत:पादो विश्वशीर्ष: शुचिश्रवा: ||१०||
हिंदी अर्थ : आपकी मोक्ष रूपी गति अतिशय सुंदर है अथवा आपका ज्ञान बहुत ही उत्तम है इसलिए आप सुगति 185 कहलाते हैं, अतिशय प्रसिद्ध है अथवा उत्तम शास्त्रों को धारण करने वाले हैं इसलिए सुश्रुत 186 कहे जाते हैं, सब जीवों की प्रार्थनाएं सुनते हैं इसलिए सुश्रुत: 187 कहलाते है, आपके वचन बहुत ही उत्तम निकलते हैं इसलिए आप सुवाक 188 कहलाते है, सबके गुरु हैं अथवा समस्त विद्याओं को प्राप्त हैं इसलिए सूरि 189 कहे जाते है, बहुत शास्त्रों के पारगामी होने से बहुश्रुत 190 है, बहुत प्रसिद्ध है अथवा केवलज्ञान होने के कारण आपका क्षायोपशमिक श्रुतज्ञान नष्ट हो गया है इसलिए आप विश्रुत 191 कहलाते है, आपका संचार प्रत्येक विषयों में होता है अथवा आपकी केवलज्ञान रूपी किरणें संसार में सभी और फैली हुई है इसलिए आप विश्वत:पाद 192 कहलाते है, लोक के शिखर पर विराजमान है इसलिए विश्वशीर्ष 193 कहे जाते है, और आपकी श्रवण शक्ति अत्यंत पवित्र है इसलिए शुचिश्रवा 194 कहलाते है ।।
जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र भगवान नाम – 195 से 200 का अर्थ
सहस्रशीर्ष: क्षेत्रज्ञ: सहस्राक्ष: सहस्रपात् |
भूतभव्यभवद्भर्त्ता विश्वविद्यामहेश्वर: || ११ ||
हिंदी अर्थ : अनंत सुखी होने से सहस्त्रशीर्ष 195 कहलाते है, क्षेत्र अर्थात आत्मा को जानने से क्षेत्रज्ञ 196 कहलाते है, अनन्त पदार्थों को जानते है इसलिए सहस्त्राक्ष 197 कहे जाते है, अनन्त बल के धारक है इसलिए सहस्त्रपात 198 कहलाते है , भूत, भविष्यत और वर्तमान काल के स्वामी है इसलिए भूतभव्यभवद्भर्ता 199 कहे जाते है, समस्त विद्याओं के प्रधान स्वामी है इसलिए विश्वविद्यामहेश्वर 200 कहलाते है ।
ॐ ह्रीं श्री दिव्यादिशतं नमः ।२।
Shri Jinshastranaam Stotra- स्थविष्ठादिशतं
Shri Jinshastranaam Stotra भगवान नाम – 201 से 212 का अर्थ
स्थविष्ठ: स्थविरो ज्येष्ठ: प्रष्ठ: प्रेष्ठो वरिष्ठधी: |
स्थेष्ठो गरिष्ठो बंहिष्ठ: श्रेष्ठोऽणिष्ठो गरिष्ठगी: ||१||
हिंदी अर्थ : आप समीचीन गुणों की अपेक्षा अतिशय स्थूल है इसलिए स्थविष्ठ 201 कहे जाते है, ज्ञानादि गुणों के द्वारा वृद्ध है इसलिए स्थविर 202 कहलाते है, तीनों लोकों में अतिशय प्रशस्त होने के कारण ज्येष्ठ 203 है, सबके अग्रगामी होने के कारण प्रष्ठ 204 कहलाते है, सबको अतिशय प्रिय है इसलिए प्रेष्ठ 205 कहे जाते है, आपकी बुद्धि अतिशय श्रेष्ठ है इसलिए वरिष्ठधि 206 कहलाते है, अत्यन्त स्थिर अर्थात नित्य है इसलिए स्थेष्ठ 207 कहलाते है, अत्यंत गुरु है इसलिए गरिष्ठ 208 कहे जाते है, गुणों की अपेक्षा अनेक रूप धारण करने से बंहिष्ठ 209 कहलाते है, अतिशय प्रशस्त है इसलिए श्रेष्ठ 210 है, अतिशय सूक्ष्म होने के कारण अणिष्ठ 211 कहे जाते है , और आपकी वाणी अतिशय गौरव से पूर्ण है इसलिए आप गरिष्ठगीः 212 कहलाते है ।
Shri Jinshastranaam Stotra भगवान नाम – 213 से 221 का अर्थ
विश्वभृद्विश्वसृड् विश्वेट् विश्वभुग्विश्वनायक: |
विश्वाशीर्विश्वरूपात्मा विश्वजिद्विजितान्तक: ||२||
हिंदी अर्थ : चतुर्गति संसार को नष्ट करने के कारण आप विश्वभृद 213 कहे जाते है, समस्त संसार की व्यवस्था करने वाले है इसलिए विश्वसृद 214 कहलाते है, सब लोक के ईश्वर है इसलिए विश्वेट 215 कहे जाते है, समस्त संसार की रक्षा करने वाले है इसलिए विश्वभुक 216 कहलाते है , अखिल लोक के स्वामी है इसलिए विश्वनायक 217 कहे जाते है, समस्त संसार मे व्याप्त होकर रहते है इसलिए विश्वासी 218 कहलाते है, विश्वरूप अर्थात केवलज्ञान ही आपका स्वरूप है अथवा आपका आत्मा अनेकरूप है इसलिए आप विश्वरूपात्मा 219 कहे जाते है, सबको जीतने वाले है इसलिए विश्वजित 220 कहे जाते है, और अन्तक अर्थात मृत्यु को जीतने वाले है इसलिए विजितान्तक 221 कहलाते है ।
Shri Jinshastranaam Stotra भगवान नाम – 222 से 232 का अर्थ
विभवो विभयो वीरो विशोको विजरो जरन् |
विरागो विरतोऽसंगो विविक्तो वीतमत्सर: ||३||
हिंदी अर्थ : आपका संसार भ्रमण नष्ट हो गया है इसलिए विभव 222 कहलाते है , भय दूर हो गया है इसलिए विभय 223 कहे जाते है, अनन्त बलशाली है इसलिए वीर 224 कहलाते है , शोक रहित है इसलिए विशोक 225 कहे जाते है, जरा अर्थात बुढ़ापा से रहित है इसलिए विजर 226 कहलाते है, जगत के सब जीवों में प्राचीन है इसलिए जरन 227 कहे जाते है , राग रहित है इसलिए विराग 228 कहलाते है, समस्त पापों से विरत् हो चुके है इसलिए विरत 229 कहे जाते है , परिग्रह रहित है इसलिए असंग 230 कहलाते है, एकाकी अथवा पवित्र होने से विविक्त 231 है और मात्सर्य से रहित होने के कारण वीतमत्सर 232 है ।
Shri Jinshastranaam Stotra भगवान नाम – 233 से 240 का अर्थ
विनेय-जनताबन्धुर्विलीनाशेष-कल्मष: |
वियोगो योगविद्विद्वान्विधाता सुविधि: सुधी: ||४||
हिंदी अर्थ : आप अपने शिष्य जनों के हितैषी है इसलिए विनेयजनताबन्धु 233 कहलाते है, आपके समस्त पाप कर्म विलीन – नष्ट हो गए है इसलिए विलीनाशेषकल्मष 234 कहे जाते है, आप योग अर्थात मन,वचन, काय के निमित्त से होने वाले आत्मप्रदेश परिस्पन्द से रहित है इसलिए वियोग 235 कहलाते है, योग अर्थात ध्यान के स्वरूप को जानने वाले है इसलिए योगविद 236 कहे जाते है, समस्त पदार्थों को जानते है इसलिए विद्वान 237 कहलाते है, धर्मरूप सृष्टि के कर्त्ता होने से विधाता 238 कहे जाते है, आपका कार्य बहुत ही उत्तम है इसलिए सुविधि 239 कहलाते है, और आपकी बुद्धि उत्तम है इसलिए सुधी 240 कहे जाते है ।
Shri Jinshastranaam Stotra भगवान नाम – 241 से 248 का अर्थ
क्षान्तिभाक्पृथिवीमूर्ति: शान्तिभाक् सलिलात्मक: |
वायुमूर्तिरसंगात्मा वह्निर्मूर्तिरधर्मधक् ||५||
हिंदी अर्थ : उत्तम क्षमा को धारण करने वाले है इसलिए क्षान्तिभाक 241 कहलाते है, पृथिवी के समान सहनशील है इसलिए पृथ्वीमूर्ति 242 कहे जाते है, शान्ति के उपासक है इसलिए शान्तिभाक 243 कहलाते है, जल के समान शीतलता उत्त्पन्न करने वाले है इसलिए सलिलात्मक 244 कहे जाते है, वायु के समान पर पदार्थ के संसर्ग से रहित होने के कारण वायुमूर्ति 245 कहलाते है, परिग्रह रहित होने के कारण असंगात्मा 246 कहे जाते है, अग्नि के समान कर्मरूपी ईंधन को जलाने वाले है इसलिए वह्निमूर्ति 247 है, और अधर्म को जलाने वाले है इसलिए अधर्मधक 248 कहलाते है ।
Shri Jinshastranaam Stotra भगवान नाम – 249 से 258 का अर्थ
सुयज्वा यजमानात्मा सुत्वा सुत्रामपूजित: |
ऋत्विग्यज्ञपतिर्याज्यो यज्ञांगममृतं हवि: ||६||
हिंदी अर्थ : कर्मरूपी सामग्री का अच्छी तरह होम करने से सुयज्वा 249 है, निज स्वभाव का आराधन करने से यजमानात्मा 250 है, आत्मसुखरूप सागर के अभिषेक करने से सुत्वा 251 है, इंद्र के द्वारा पूजित होने के कारण सूत्रामपूजित 252 है, ज्ञानरूपी यज्ञ करने में आचार्य कहलाते है इसलिए ऋत्विक 253 है, यज्ञ के प्रधान अधिकारी होने से यज्ञपति 254 कहलाते है, पूजा के योग्य है इसलिए याज्य 255 कहलाते है, याज्य के अंग होने से यज्ञांग 256 कहलाते है, विषय तृष्णा को नष्ट करने के कारण अमृत 257 कहे जाते है, और आपने ज्ञानयज्ञ में अपनी ही अशुद्ध परिणीति को होम दिया है इसलिए आप हवि 258 कहलाते है ।
Shri Jinshastranaam Stotra भगवान नाम – 259 से 267 का अर्थ
व्योममूर्तिरमूर्त्तात्मा निर्लेपो निर्मलोऽचल: |
सोममूर्ति: सुसौम्यात्मा सूर्यमूर्तिर्महाप्रभ: ||७||
हिंदी अर्थ : आप आकाश के समान निर्मल अथवा केवलज्ञान की अपेक्षा लोक – अलोक में व्याप्त है इसलिए व्योममूर्ति 259 है , रूप, रस, गन्ध और स्पर्श से रहित होने के कारण अमूर्तात्मा 260 है, कर्मरूप लेप से रहित है इसलिए निर्लेप 261 है, मल रहित है इसलिए निर्मल 262 कहलाते है, सदा एक रूप से विद्यमान रहते है इसलिए अचल 263 कहे जाते है, चंद्रमा के समान शान्त, सुंदर अथवा प्रकाशमान रहते है इसलिए सोममूर्ति 264 कहलाते है, आपकी आत्मा अतिशय सौम्य है इसलिए सुसौम्यात्मा 265 कहे जाते है, सूर्य के समान तेजस्वी है इसलिए सूर्यमूर्ति 266 कहलाते है और अतिशय प्रभा के धारक है इसलिए महाप्रभ 267 कहलाते है ।
Shri Jinshastranaam Stotra भगवान नाम – 268 से 277 का अर्थ
मन्त्रविन्मन्त्रकृन्मन्त्री मन्त्रमूर्तिरनन्तग: |
स्वतन्त्रस्तन्त्रकृत्स्वान्त: कृतान्तान्त: कृतान्तकृत् ||८||
हिंदी अर्थ : मंत्र के जानने वाले है इसलिए मंत्रवित 268 कहे जाते है , अनेक मंत्रों के करने वाले है इसलिए मंत्रकृत 269 कहलाते है, मंत्रों से युक्त है इसलिए मंत्री 270 कहलाते है, मंत्ररूप है इसलिए मंत्रमूर्ति 271 कहे जाते है, अनन्त पदार्थों को जानते है इसलिए अनन्तग 272 कहलाते है, कर्मबन्धन से रहित होने के कारण स्वतंत्र 273 कहलाते है, शास्त्रों के करने वाले है इसलिए तन्त्रकृत 274 कहे जाते है, आपका अन्त:करण उत्तम है इसलिए स्वन्तः 275 कहलाते है, आपने कृतान्त अर्थात यमराज मृत्यु का अन्त कर दिया है इसलिए लोग आपको कृतान्तान्त 276 कहते है, और आप कृतान्त अर्थात आगम की रचना करने वाले है इस- लिए कृतान्तकृत 277 कहे जाते है ।
Shri Jinshastranaam Stotra भगवान नाम – 278 से 287 का अर्थ
कृती कृतार्थ: सत्कृत्य: कृतकृत्य: कृतक्रतु: |
नित्यो मृत्युंजयोऽमृत्युरमृतात्माऽमृतोद्भव: ||९||
हिंदी अर्थ : आप अत्यन्त कुशल अथवा पुण्यवान है इसलिए कृती 278 कहलाते है, आपने आत्मा के सब पुरुषार्थ सिद्ध कर चुके है इसलिए कृतार्थ 279 है, संसार के समस्त जीवों के द्वारा सत्कार करने के योग्य है इसलिए सत्कृत्य 280 है, समस्त कार्य कर चुके है इसलिए कृतकृत्य 281 है, आप ज्ञान अथवा तपश्चरणरूपी यज्ञ कर चुके है इसलिए कृतक्रतु 282 कहलाते है, सदा विद्यमान रहने से नित्य 283 है, मृत्यु को जीतने से मृत्युंजय 284 है, मृत्यु से रहित होने के कारण अमृत्यु 285 है, आपका आत्मा अमृत के समान सदा शान्तिदायक है इसलिए अमृतात्मा 286 है, और अमृत अर्थात मोक्ष में आपकी उत्कृष्ट उत्पत्ति होने वाली है इसलिए आप अमृतोद्भव 287 कहलाते है ।
Shri Jinshastranaam Stotra भगवान नाम – 288 से 294 का अर्थ
ब्रह्मनिष्ठ: परंब्रह्म ब्रह्मात्मा ब्रह्मसम्भव: |
महाब्रह्मपतिर्ब्रह्मेट् महाब्रह्मपदेश्वर: ||१०||
हिंदी अर्थ : आप सदा शुद्ध आत्मस्वरूप में लीन रहते है इसलिए ब्रह्मनिष्ठ 288 कहलाते है, उत्कृष्ट ब्रह्मरूप है इसलिए परब्रह्म 289 कहे जाते है, ब्रह्म अर्थात ज्ञान अथवा ब्रह्मचर्य ही आपका स्वरूप है इसलिए ब्रह्मात्मा 290 कहलाते है, आपको स्वयं शुद्धात्मस्वरूप की प्राप्ति हुई है तथा आपसे दूसरों को होती है इसलिए आप ब्रह्मसम्भव 291 कहलाते है, गणधर आदि महाब्रह्माओं के भी अधिपति है इसलिए आप महाब्रह्मपति 292 कहे जाते है, आप केवलज्ञान के स्वामी है इसलिए ब्रह्मेट 293 कहलाते है , महाब्रह्मपद अर्थात आर्हन्त्य और सिद्धत्व अवस्था के ईश्वर है इसलिए महाब्रह्मपदेश्वर 294 कहे जाते है ।
Shri Jinshastranaam Stotra भगवान नाम – 295 से 300 का अर्थ
सुप्रसन्न: प्रसन्नात्मा ज्ञानधर्मदमप्रभु: |
प्रशमात्मा प्रशान्तात्मा पुराणपुरुषोत्तम: ||११||
हिंदी अर्थ :आप सदा प्रसन्न रहते है इसलिए सुप्रसन्न 295 कहे जाते है, आपकी आत्मा कषायों का अभाव हो जाने के कारण सदा प्रसन्न रहती है इसलिए लोग आपको प्रसन्नात्मा 296 कहते है, आप केवलज्ञान् उत्तम क्षमा आदि धर्म और इन्द्रियनिग्रह रूप दम के स्वामी है इसलिए ज्ञानधर्मदमप्रभु 297 कहे जाते है, आपकी आत्मा उत्कृष्ट शान्ति से सहित है इसलिए आप प्रशमात्मा 298 कहलाते है, आपकी आत्मा कषायों का अभाव हो जाने से अतिशय शान्त हो चुकी है इसलिए आप प्रशान्तात्मा 299 कहलाते है , और शलाका पुरुषों में सबसे उत्कृष्ट है इसलिए विद्वान लोग आपको पुराणपुरुषोत्तम 300 कहते है ।
|| ॐ ह्रीं श्री स्थविष्ठादिशतं नमः ।३।
Shri Jinshastranaam Stotra- श्रीमहाऽशोकध्वजादिशतम्
महाऽशोकध्वजोऽशोक: क: स्रष्टा पद्मविष्टर: |
पद्मेश: पद्मसम्भूति: पद्मनाभिरनुत्तर: ||१||
हिंदी अर्थ : बड़ा भारी अशोकवृक्ष ही आपका चिन्ह है इसलिए आप महाशोकध्वज 301 कहलाते है, शोक से रहित होने के कारण अशोक 302 कहलाते है , सबको सुख देने वाले है इसलिए ‘क’ 303 कहलाते है, स्वर्ग और मोक्ष के मार्ग की सृष्टि करते है इसलिए स्त्रष्टा 304 कहलाते है, आप कमलरूप आसन् पर विराजमान है इसलिए पद्मविष्टर 305 कहलाते है, पद्मा अर्थात लक्ष्मी के स्वामी है इसलिए पद्मेश 306 कहलाते है, विहार के समय देव लोग आपके चरणों के नीचे कमलों की रचना कर देते है इसलिए आप पद्मसम्भूति 307 कहे जाते है , आपकी नाभि कमल के समान है इसलिए लोग आपको पद्मनाभि 308 कहते है , तथा आपसे श्रेष्ठ अन्य कोई नही है इसलिए आप अनुत्तर 309 कहलाते है ।
पद्मयोनिर्जगद्योनिरित्य: स्तुत्य: स्तुतीश्वर: |
स्तवनार्हो हृषीकेशो जितजेय: कृतक्रिय: ||२||
हिंदी अर्थ : हे भगवन ! आपका यह शरीर माता के पद्माकार गर्भाशय में उत्पन्न हुआ था इसलिए आप पद्मयोनि 310 कहलाते है, धर्मरूप जगत की उत्पत्ति के कारण होने से जगद्योनि 311 है, भव्य जीव तपश्चरण आदि के द्वारा आपको ही प्राप्त करना चाहते है इसलिए आप इत्य 312 कहलाते है, इन्द्र आदि देवों के द्वारा स्तुति करने योग्य है इसलिए स्तुत्य 313 कहलाते है , स्तुतियों के स्वामी होने से स्तुतीश्वर 314 कहे जाते है, स्तवन करने के योग्य है इसलिए स्तवनार्ह 315 कहलाते है , इंद्रियों के ईश अर्थात वश करने वाले स्वामी है इसलिए हृषिकेश 316 कहे जाते है, आपने जीतने योग्य समस्त मोहादि शत्रुओं को जीत लिया है इसलिए आप जितजेय 317 कहलाते है, और आप करने योग्य समस्त क्रियाएं कर चुके है इसलिए कृतक्रिय 318 कहे जाते है ।
गणाधिपो गणज्येष्ठो गण्य: पुण्यो गणाग्रणी: |
गुणाकरो गुणाम्भोधिर्गुणज्ञो गुणनायक: ||३||
हिंदी अर्थ : आप बारह सभारूप गण के स्वामी होने से गणाधिप 319 कहलाते है, समस्त गणों में श्रेष्ठ होने के कारण गणज्येष्ठ 320 कहे जाते है, तीनों लोकों में आप ही गणना करने के योग्य है इसलिए गण्य 321 कहलाते है, पवित्र है इसलिए पुण्य 322 है, समस्त सभा मे स्थित जीवों को कल्याण के मार्ग में आगे ले जाने वाले है इसलिए गणाग्रणी 323 कहलाते है, गुणों की खान है इसलिए गुणाकर 324 कहे जाते है, आप गुणों के समूह है इसलिए गुणाम्भोधि 325 कहलाते है, आप गुणों को जानते है इसलिए गुणज्ञ 326 कहे जाते है, और गुणों के स्वामी है इसलिए गणधर आपको गुणनायक 327 कहते है ।
गुणादरी गुणोच्छेदी निर्गुण: पुण्यगीर्गुण: |
शरण्य: पुण्यवाक्पूतो वरेण्य: पुण्यनायक: ||४||
हिंदी अर्थ : गुणों का आदर करते है इसलिए गुणादरी 328 कहलाते है, सत्व, रज, तम अथवा काम , क्रोध आदि वैभाविक गुणों को नष्ट करने वाले है इसलिए आप गुणोच्छेदी 329 कहे जाते है, आप वैभाविक गुणों से रहित है इसलिए निर्गुण 330 कहलाते है, पवित्र वाणी के धारक है इसलिए पुण्यगी 331 कहे जाते है, गुणों से युक्त है इसलिए गुण 332 कहलाते है, शरण मे आये हुए जीवों की रक्षा करने वाले है इसलिए शरण्य 333 कहे जाते है, आपके वचन पवित्र है इसलिए पूतवाक् 334 कहलाते है, स्वयं पवित्र है इसलिए पूत 335 कहे जाते है, श्रेष्ठ है इसलिए वरेण्य 336 कहलाते है, और पुण्य के अधिपति है इसलिए पुण्यनायक 337 कहे जाते है ।
अगण्य: पुण्यधीर्गुण्य: पुण्यकृत्पुण्यशासन: |
धर्मारामो गुणग्राम: पुण्यापुण्य-निरोधक: ||५||
हिंदी अर्थ : आपकी गणना नही हो सकती अर्थात आप अपरिमित गुणों के धारक है इसलिए अगण्य 338 कहलाते है, पवित्र बुद्धि के धारक होने से पुण्यधी 339 कहे जाते है, गुणों से सहित है इसलिए गुण्य 340 कहलाते है , पुण्य को करने वाले है इसलिए पुण्यकृत 341 कहे जाते है , आपका शासन पुण्यरूप अर्थात पवित्र है इसलिए आप पुण्यशासन 342 माने जाते है , धर्म के उपवन स्वरूप होने से धर्माराम 343 कहे जाते है , आप मे अनेक गुणों का ग्राम अर्थात समूह पाया जाता है इसलिए आप गुणग्राम 344 कहलाते है, आपने शुद्धोपयोग में लीन होकर पुण्य और पाप दोनों का निरोध कर दिया है इसलिए आप पुण्यापुण्यनिरोधक 345 कहे जाते है।
पापापेतो विपापात्मा विपाप्मा वीतकल्मष: |
निर्द्वन्द्वो निर्मद: शान्तो निर्मोहो निरुपद्रव: ||६||
हिंदी अर्थ : आप हिंसादि पापों से रहित है इसलिए पापापेत 346 माने गए है, आपकी आत्मा से समस्त पाप विगत हो गए है इसलिए आप विपापात्मा 347 कहे जाते है , आपने पापकर्म नष्ट कर दिए है इसलिए विपाप्मा 348 कहलाते है, आपके समस्त कल्मष अर्थात राग – द्वेषादि भाव कर्मरूपी मल नष्ट हो चुके है इसलिए वीतकल्मष 349 माने जाते है, परिग्रह रहित होने से निर्द्वन्द 350 है, अहंकार से रहित होने के कारण निर्मद 351 कहलाते है, आपका मोह निकल चुका है इसलिए आप निर्मोह 352 है और उपद्रव उपसर्ग आदि से रहित है इसलिए निरूपद्रव 353 कहलाते है ।
निर्निमेषो निराहारो निष्क्रियो निरुपप्लव: |
निष्कलंको निरस्तैना निर्धूतागो निरास्रव: ||७||
हिंदी अर्थ : आपके नेत्रों के पलक नही झपते इसलिए आप निर्निमेष 354 कहलाते है, आप कवलाहार नही करते इसलिए निराहार 355 है, सांसारिक क्रियाओं से रहित है इसलिए निष्क्रिय 356 है, बाधा रहित है इसलिए निरूपल्लव 358 है, कलंक रहित होने से निष्कलंक 359 है, आपने समस्त एनस अर्थात पापों को दूर हटा दिया है इसलिए निरस्तैना 360 कहलाते है, समस्त अपराधों को आपने दूर कर दिया है इसलिए निर्द्धूतागस 361 कहे जाते है, और कर्मों के आश्रव से रहित होने के कारण निरास्त्रव 362 कहलाते है ।
विशालो विपुलज्योतिरतुलोऽचिन्त्यवैभव: |
सुसंवृत: सुगुप्तात्मा सुभुत् सुनयतत्त्ववित् ||८||
हिंदी अर्थ : आप सबसे महान है इसलिए विशाल 363 कहे जाते है, केवलज्ञानरूपी विशाल ज्योति को धारण करने वाले है इसलिए विपुलज्योति 364 माने जाते है , उपमारहित होने से अतुल 365 है, आपका वैभव अचिन्त्य है इसलिए अचिंत्यवैभव 366 कहलाते है, आप नवीन कर्मों का आश्रव रोककर पूर्ण संवर कर चुके है इसलिए सुसंवृत 367 कहलाते है , आपकी आत्मा अतिशय सुरक्षित है अथवा मनोगुप्ति आदि गुप्तियों से युक्त है इसलिए विद्वान लोग आपको सुगुप्तात्मा 368 कहते है, आप समस्त पदार्थों को अच्छी तरह जानते है इसलिए सुभूत 369 कहलाते है, और आप समीचीन नयों के यथार्थ रहस्य को जानते है इसलिए सुनयतत्वविद 370 कहलाते है ।
एकविद्यो महाविद्यो मुनि: परिवृढ: पति: |
धीशो विद्यानिधि: साक्षी विनेता विहतान्तक: ||९||
हिंदी अर्थ : आप केवलज्ञानरूपी एक विद्या को धारण करने से एकविद्य 371 कहलाते है, अनेक बड़ी – बड़ी विद्याएं धारण करने से महाविद्य 372 कहे जाते है, प्रत्यक्षज्ञानी होने से मुनि 373 है, सबके स्वामी है इसलिए परिवृढ़ 374 कहलाते है, जगत के जीवों की रक्षा करते है इसलिए पति 375 है, बुद्धि के स्वामी है इसलिए धीश 376 कहलाते है, विद्यायों के भंडार है इसलिए विद्यानिधि 377 माने जाते है , समस्त पदार्थों को प्रत्यक्ष जानते है इसलिए साक्षी 378 कहलाते है, मोक्षमार्ग को प्रकट करने वाले है इसलिए विनेता 379 कहे जाते है , और यमराज अर्थात मृत्यु को नष्ट करने वाले है इसलिए विहतान्तक 380 कहलाते है ।
पिता पितामह: पाता पवित्र: पावनो गति: |
त्राता भिषग्वरो वर्यो वरद: परम: पुमान् ||१०||
हिंदी अर्थ :आप सब जीवों की नरकादि गतियों से रक्षा करते है इसलिए पिता 381 कहलाते है, सबके गुरु है इसलिए पितामह 382 कहे जाते है , सबका पालन करने से पाता 383 कहलाते है, अतिशय शुद्ध है इसलिए पवित्र 384 कहे जाते है, सबको शुद्ध या पवित्र करते है इसलिए पावन 385 माने जाते है , समस्त भव्य तपस्या करके आपके ही अनुरूप होना चाहते है इसलिए आप सबकी गति 386 अथवा खण्डाकार छेद निकालने पर गतिरहित होने से अगति कहलाते है ,समस्त जीवों की रक्षा करने से त्राता 387 कहलाते है, जन्म – जरा मरणरूपी रोग को नष्ट करने के लिए उत्तम वैद्य है इसलिए भिषग्वर 388 कहे जाते है , श्रेष्ठ होने से वर्य 389 है, इच्छानुकूल पदार्थों को प्रदान करते है इसलिए वरद 390 कहलाते है, आपकी ज्ञानादि लक्ष्मी अतिशय श्रेष्ठ है इसलिए परम 391 कहे जाते है, और आत्मा तथा पर पुरुषों को पवित्र करने के कारण पुमान 392 कहलाते है ।
कवि: पुराणपुरुषो वर्षीयान्वृषभ: पुरु: |
प्रतिष्ठा-प्रसवो हेतुर्भुवनैकपितामह: ||११||
हिंदी अर्थ : द्वादशांग का वर्णन करने वाले है इसलिए कवि 393 कहलाते है , अनादिकाल होने से पुराणपुरुष 394 कहे जाते है, ज्ञानादि गुणों की अपेक्षा अतिशय वृद्ध है इसलिए वर्षीयान् 395 कहलाते है, श्रेष्ठ होने से ऋषभ 396 कहलाते है, तीर्थंकरों में आदिपुरुष होने से पुरु 397 कहे जाते है, आप प्रतिष्ठा अर्थात सम्मान अथवा स्थिरता के कारण है इसलिए प्रतिष्ठाप्रसव 398 कहलाते है, समस्त उत्तम कार्यों के कारण है इसलिए हेतु 399 कहे जाते है, और संसार के एकमात्र गुरु है इसलिए भुवनैकपितामह 400 कहलाते है ।
ॐ ह्रीं श्रीमहाऽशोकध्वजादिशतम् नमः ।४।
Shri Jinshastranaam Stotra – श्री वृक्षलक्षणादिशतम्
श्रीवृक्षलक्षण: श्लक्ष्णो लक्षण्य: शुभलक्षण: |
निरक्ष: पुण्डरीकाक्ष: पुष्कल: पुष्करेक्षण: ||१||
हिंदी अर्थ : श्रीवृक्ष के चिन्ह से चिन्हित है इएलिये श्रीवृषलक्षण 401 कहे जाते है , सूक्ष्मरूप होने से श्लक्षण 402 कहलाते है, लक्षणों से अनपेत् अर्थात सहित है इसलिए लक्षण्य कहे जाते है, आपके शरीर मे अनेक शुभ लक्षण विद्यमान है इसलिए शुभलक्षण 404 कहलाते है, आप समस्त पदार्थों का निरीक्षण करने वाले है अथवा आप नेत्रेन्द्रीय के द्वारा दर्शन क्रिया नही करते इसलिए निरीक्ष 405 कहलाते है, आपके नेत्र पुण्डरीककमल के समान सुंदर है इसलिए आप पुण्डरीकाक्ष 406 कहलाते है, आत्म गुणों से खूब ही परिपुष्ट है इसलिए पुष्कल 407 कहे जाते है, और कमलदल के समान लम्बे नेत्रों को धारण करने वाले होने से पुष्करेक्षण 408 कहे जाते है ।
सिद्धिद: सिद्धसंकल्प: सिद्धात्मा सिद्धसाधन: |
बुद्धबोध्यो महाबोधिर्वर्धमानो महर्द्धिक: ||२||
हिंदी अर्थ : सिद्धि को देने वाले है इसलिए सिद्धिद 409 कहलाते है, आपके सब संकल्प सिद्ध हो चुके है इसलिए सिद्धसंकल्प 410 कहे जाते है, आपकी आत्मा सिद्ध अवस्था को प्राप्त हो चुकी है इसलिए सिद्धात्मा 411 कहलाते है, आपको सम्यग्दर्शन , सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपी मोक्ष साधन प्राप्त हो चुके है इसलिए आप सिद्धसाधन 412 कहलाते है, आपने जानने योग्य सब पदार्थों को जान लिया है इसलिए बुद्धबौध्य 413 कहे जाते है, आपकी रत्नत्रयरूपी विभूति बहुत ही प्रशंसनीय है इसलिए आप महाबोधि 414 कहलाते है, आपके गुण उत्तरोत्तर बढ़ते रहते है इसलिए आप वर्धमान 415 है, और बड़ी – बड़ी ऋद्धियों को धारण करने वाले है इसलिए महर्द्धिक 416 कहलाते है ।
वेदांगो वेदविद्वेद्यो जातरूपो विदांवर: |
वेदवेद्य: स्वसंवेद्यो विवेदो वदतांवर: ||३||
हिंदी अर्थ : आप अनुयोगरूपी वेदों के अंग अर्थात कारण है इसलिए वेदांग 417 कहे जाते है, वेद को जानने वाले है इसलिए वेदवित 418 कहलाते है, ऋषियों के द्वारा जानने योग्य है इसलिए वेद्य 419 कहे जाते है, आप दिगम्बररूप है इसलिए जातरूप 420 कहे जाते है, जानने वालों में श्रेष्ठ है इसलिए विदांवर 421 कहलाते है, आगम अथवा केवलज्ञान के द्वारा जानने योग्य है इसलिए वेदवेद्य 422 कहे जाते है, अनुभवगम्य होने से स्वसंवेद्य 423 कहलाते है, आप तीन प्रकार के वेदों से रहित है इसलिए विवेद 424 कहे जाते है, और वक्ताओं में श्रेष्ठ होने से वदतांवर 425 कहलाते है ।
अनादिनिधनो व्यक्तो व्यक्तवाग्व्यक्तशासन: |
युगादिकृद्युगाधारो युगादिर्जगदादिज: ||४||
हिंदी अर्थ : आदि – अन्त रहित होने से अनादिनिधन 426 कहे जाते है, ज्ञान के द्वारा अत्यन्त स्पष्ट है इसलिए व्यक्त 427 कहलाते है, आपके वचन अतिशय स्पष्ट है इसलिए अव्यक्तवाक 428 कहे जाते है, आपका शासन अत्यंत स्पष्ट या प्रकट है इसलिए आपको व्यक्तशासन 429 कहते है, कर्मभूमिरुपी युग के आदि व्यवस्थापक होने से आप युगादिकृत 430 कहलाते है, युग की समस्त व्यवस्था करने वाले है इसलिए युगाधार 431 कहे जाते है, इस कर्मभूमिरूप युग का प्रारम्भ आप से ही हुआ था इसलिए आप युगादि 432 माने जाते है, और आप जगत के प्रारम्भ में उत्पन्न हुए थे इसलिए जगदादिज 433 कहलाते है ।
अतीन्द्रोऽतीन्द्रियो धीन्द्रो महेन्द्रोऽतीन्द्रियार्थदृक् |
अनिन्द्रियोऽहमिन्द्रार्च्यो महेन्द्रमहितो महान् ||५||
हिंदी अर्थ : आपने अपने प्रभाव या ऐश्वर्य से इन्द्रों को भी अतिक्रान्त कर दिया है इसलिए अतीन्द्र 434 कहे जाते है, इन्द्रियगोचर न होने से अतीन्द्रिय 435 है, बुद्धि के स्वामी होने से धीन्द्र 436 है, परम ऐश्वर्य का अनुभव करते है इसलिए महेन्द्र 437 कहलाते है, अतीन्द्रिय ( सूक्ष्म – अन्तरित – दुरार्थ ) पदार्थों को देखने वाले होने से अतींद्रियार्थदृक 438 कहे जाते है , इंद्रियों से रहित है इसलिए अनिन्द्रीय 439 कहलाते है, अहमिन्द्रों के द्वारा पूजित होने से अहमिन्द्रार्च्य 440 कहे जाते है, बड़े – बड़े इन्द्रों के द्वारा पूजित होने से महेन्द्रमहित 441 कहलाते है, और स्वयं सबसे बड़े है इसलिए महान 442 कहे जाते है ।
उद्भव: कारणं कर्त्ता पारगो भवतारक: |
अगाह्यो गहनं गुह्यं परार्ध्य: परमेश्वर: ||६||
हिंदी अर्थ : आप समस्त संसार से बहुत ऊंचे उठे हुए है अथवा आपका जन्म संसार मे सबसे उत्कृष्ट है इसलिए उद्भव 443 कहलाते है, मोक्ष के कारण होने से कारण 444 कहे जाते है, शुद्ध भावों को करते है इसलिए कर्त्ता 445 कहलाते है, संसाररूपी समुद्र के पार को प्राप्त होने से पारग 446 माने जाते है, आप भव्यजीवों को संसार रूपी समुद्र से तारने वाले है इसलिए भवतारक 447 कहलाते है, आप किसी के भी द्वारा अवगाहन करने योग्य नही है अर्थात आपके गुणों को कोई नही समझ सकता है इसलिए आप अगाह्य 448 कहे जाते है , आपका स्वरूप अतिशय गंभीर या कठिन है इसलिए गहन 449 कहलाते है, गुप्तरूप होने से गुह्य 450 है , सबसे उत्कृष्ट होने के कारण परार्घ्य 451 है , और सबसे अधिक समर्थ होने के कारण परमेश्वर 452 माने जाते है ।
अनन्तर्द्धिरमेयर्द्धिरचिन्त्यर्द्धि: समग्रधी: |
प्राग्रयः: प्राग्रहरोऽभ्यग्र: प्रत्यग्रोऽग्रयोऽग्रिमोऽग्रज: ||७||
हिंदी अर्थ : आपकी ऋद्धियाँ अनन्त, अमेय और अचिन्त्य है इसलिए आप अनन्तर्द्धि 453, अमेयर्द्धि 454 और अचिन्त्यर्द्धि 455 कहलाते है, आपकी बुद्धि पूर्ण अवस्था को प्राप्त हुई है इसलिए आप समग्रधी 456 है , सबमें मुख्य होने से प्राग्य 457 है, प्रत्येक मांगलिक कार्यों में सर्वप्रथम आपका स्मरण किया जाता है इसलिए प्राग्रहर 458 है , लोकालोक अग्रभाग प्राप्त करने के सम्मुख है इसलिए अम्यग्र 459, आप समस्त लोगों से विलक्षण नूतन है इसलिए प्रत्यग्र 460 कहलाते है, सबके स्वामी है इसलिए अग्य् 461 कहे जाते है, सबके अग्रेसर होने से अप्रिम 462 कहलाते है, और सबसे ज्येष्ठ होने के कारण अग्रज 463 कहे जाते है ।
महातपा: महातेजा महोदर्को महोदय: |
महायशा महाधामा महासत्त्वो महाधृति: ||८||
हिंदी अर्थ : आपने बड़ा कठिन तपश्चरण किया है इसलिए महातपा 464 कहलाते है, आपका बड़ा भारी तेज चारों ओर फैल रहा है इसलिए आप महातेजा 465 है, आपकी तपश्चर्या का उदर्क अर्थात फल बड़ा भारी है इसलिए आप महोदर्क 466 कहलाते है, आपका ऐश्वर्य बड़ा भारी है इसलिए आप महोदय 467 माने जाते है, आपका बड़ा भारी यश चारों ओर फैल रहा है इसलिए आप महायशा 468 माने जाते है, आप विशाल तेजप्रताप अथवा ज्ञान के धारक है इसलिए महाधामा 469 कहलाते है, आपकी शक्ति अपार है इसलिए विद्वान लोग आपको महासत्व 470 कहते है, और आपका धीरज महान है इसलिए आप महाधृति 471 कहलाते है ।
महाधैर्यो महावीर्यो महासम्पन्महाबल: |
महाशक्ति-र्महाज्योति-र्महाभूति-र्महाद्युति: ||९||
हिंदी अर्थ :आप कभी अधीर नही होते इसलिए आप महाधैर्य 472 कहे जाते है , अनन्त वीर्य के धारक होने से महावीर्य 473 कहलाते है, समवसरण रूप अद्वितीय विभूति को धारण करने से महासम्पत 474 माने जाते है, अत्यन्त बलवान होने से महाबल 475 कहलाते है, बड़ी भारी शक्ति के धारक होने से महाशक्ति 476 माने जाते है, अतिशय कान्ति अथवा केवलज्ञान से सहित होने के कारण महाज्योति 477 कहलाते है, आपका वैभव अपार है इसलिए आपको महाभूति 478 कहते है, और आपके शरीर की द्युति बड़ी भारी है इसलिए आप महाद्युति 479 कहे जाते है ।
महामति-र्महानीति-र्महाक्षान्ति-र्महादय: |
महाप्राज्ञो महाभागो महानन्दो महाकवि: ||१०||
हिंदी अर्थ : अतिशय बुद्धिमान है इसलिए महामति 480 कहलाते है, अतिशय न्यायवान है इसलिए महानीति 481 कहे जाते है, अतिशय क्षमावान है इसलिए महाक्षान्ति 482 माने जाते है, अतिशय दयालु है इसलिए महादय 483 कहलाते है, अत्यन्त विवेकवान होने से महाप्राज्ञ 484, अत्यन्त भाग्यशाली होने से महाभाग 485, अत्यन्त आनंद होने से महानंद 486 और सर्वश्रेष्ठ कवि होने से महाकवि 487 माने जाते है ।
महामहा महाकीर्ति-र्महाकान्ति-र्महावपु: |
महादानो महाज्ञानो महायोगो महागुण: ||११||
हिंदी अर्थ : अत्यंत तेजस्वी होने से महामहा 488, विशालकीर्ति के धारक होने से महाकिर्ती 489, अदभुत कान्ति से युक्त होने के कारण महाकान्ति 490, उत्तुंग शरीर के होने से महावपु 491, बड़े दानी होने से महादान 492, केवलज्ञानी होने से महाज्ञान 493, बड़े ध्यानी होने से महायोग 494, और बड़े – बड़े गुणों के धारक होने से महागुण 495 कहलाते है ।
महामहपति: प्राप्त-महाकल्याण-पंचक: |
महाप्रभुर्महाप्रातिहार्याधीशो महेश्वर: ||१२||
हिंदी अर्थ : आप अनेक बड़े – बड़े उत्सवों के स्वामी है इसलिए महामहपति 496 कहलाते है, आपने गर्भ आदि पाँच कल्याणकों प्राप्त किया है इसलिए प्राप्तमहाकल्याणपंचक 497 कहे जाते है, आप सबसे बड़े स्वामी है इसलिए महाप्रभु 498 कहलाते है, अशोकवृक्ष आदि आठ महाप्रतिहार्यों के स्वामी है इसलिए महाप्रातिहार्याधीश 499 कहे जाते है, और आप सब देवों के अधीश्वर है इसलिए महेश्वर 500 कहलाते है ।
ॐ ह्रीं श्री वृक्षलक्षणादिशतम् नमः ।५।
Shri Jinshastranaam Stotra – श्री महामुन्यादिशतम्
महामुनिर्महामौनी महाध्यानी महादम: |
महाक्षमो महाशीलो महायज्ञो महामख: ||१||
हिंदी अर्थ :
महाव्रतपतिर्मह्यो महाकान्तिधरोऽधिप: |
महामैत्रीमयोऽमेयो महोपायो महोमय: ||२||
हिंदी अर्थ :
महाकारुणिको मंता महामंत्रो महायति: |
महानादो महाघोषो महेज्यो महसांपति: ||३||
हिंदी अर्थ :
महाध्वरधरो धुर्यो महौदार्यो महिष्ठवाक् |
महात्मा महसांधाम महर्षिर्महितोदय: ||४||
हिंदी अर्थ :
महाक्लेशांकुश: शूरो महाभूतपतिर्गुरु: |
महापराक्रमोऽनन्तो महाक्रोधरिपुर्वशी ||५||
हिंदी अर्थ :
महाभवाब्धि-संतारी महामोहाद्रिसूदन: |
महागुणाकर: क्षान्तो महायोगीश्वर: शमी ||६||
हिंदी अर्थ :
महाध्यानपर्तिध्यातमहाधर्मा महाव्रत: |
महाकर्मारिहाऽत्मज्ञो महादेवो महेशिता ||७||
हिंदी अर्थ :
सर्वक्लेशापह: साधु: सर्वदोषहरो हर: |
असंख्येयोऽप्रमेयात्मा शमात्मा प्रशमाकर: ||८||
हिंदी अर्थ :
सर्वयोगीश्वरोऽचिन्त्य: श्रुतात्मा विष्टरश्रवा: |
दान्तात्मा दमतीर्थेशो योगात्मा ज्ञानसर्वग: ||९||
हिंदी अर्थ :
प्रधानमात्मा प्रकृति: परम: परमोदय: |
प्रक्षीणबन्ध: कामारि: क्षेमकृत्क्षेमशासन: ||१०||
हिंदी अर्थ :
प्रणव: प्रणत: प्राण: प्राणद: प्रणतेश्वर: |
प्रमाणं प्रणिधिर्दक्षो दक्षिणोऽध्वर्युरध्वर: ||११||
हिंदी अर्थ :
आनन्दो नन्दनो नन्दो वन्द्योऽनिन्द्योऽभिनन्दन: |
कामहा कामद: काम्य: कामधेनुररिंजय: ||१२||
हिंदी अर्थ :
ॐ ह्रीं श्री महामुन्यादिशतम् नमः ।६।
Shri Jinshastranaam Stotra- श्री असंस्कृतादिशतम्
असंस्कृत सुसंस्कार: प्राकृतो वैकृतान्तकृत् |
अन्तकृत्कान्तगु: कान्तष्चिन्तामणिरभीष्टद: ||१||
हिंदी अर्थ :
अजितो जितकामारिरमितोऽमितशासन: |
जितक्रोधो जितामित्रो जितक्लेशो जितान्तक: ||२||
हिंदी अर्थ :
जिनेन्द्र: परमानन्दो मुनीन्द्रो दुन्दुभिस्वन: |
महेन्द्रवन्द्यो योगीन्द्रो यतीन्द्रो नाभिनन्दन: ||३||
हिंदी अर्थ :
नाभेयो नाभिजोऽजात: सुव्रतो मनुरुत्तम: |
अभेद्योऽनत्ययोऽनाश्वानधिकोऽधिगुरु: सुधी: ||४||
हिंदी अर्थ :
सुमेधा विक्रमी स्वामी दुराधर्षो निरुत्सुक: |
विशिष्ट: शिष्टभुक् शिष्ट: प्रत्यय: कामनोऽनघ: ||५||
हिंदी अर्थ :
क्षेमी क्षेमङकरोऽक्षय्य: क्षेमधर्मपति: क्षमी |
अग्राह्यो ज्ञाननिग्राह्यो ध्यानगम्यो निरुत्तर: ||६||
हिंदी अर्थ :
सुकृती धातुरिज्यार्ह: सुनयश्चतुरानन: |
श्रीनिवासश्चतुर्वक्त्रश्चतुरास्यश्चतुर्मुख: ||७||
हिंदी अर्थ :
सत्यात्मा सत्यविज्ञान: सत्यवाक्सत्यशासन: |
सत्याशी: सत्यसन्धान: सत्य: सत्यपरायण: ||८||
हिंदी अर्थ :
स्थेयान् स्थवीयान् नेदीयान् दवीयान् दूरदर्शन: |
अणोरणीयाननणुर्गुरुराद्यो गरीयसाम् ||९||
हिंदी अर्थ :
सदायोग: सदाभोग: सदातृप्त: सदाशिव: |
सदागति: सदासौख्य: सदाविद्य: सदोदय: ||१०||
हिंदी अर्थ :
सुघोष: सुमुख: सौम्य: सुखद: सुहित: सुहृत् |
सुगुप्तो गुप्तिभृद् गोप्ता लोकाध्यक्षो दमीश्वर: ||११||
हिंदी अर्थ :
ॐ ह्रीं श्री असंस्कृतादिशतम् नमः ।७।
Shri Jinshastranaam Stotra – श्री वृहदादिशतम्
वृहद्बृहस्पतिर्वाग्मी वाचस्पतिरुदारधी: |
मनीषी धिषणो धीमान् शेमुषीशो गिरांपति: ||१||
हिंदी अर्थ :
नैकरूपो नयोत्तुंगो नैकात्मा नैकधर्मकृत् |
अविज्ञेयोऽप्रतर्क्यात्मा कृतज्ञ: कृतलक्षण: ||२||
हिंदी अर्थ :
ज्ञानगर्भो दयागर्भो रत्नगर्भ: प्रभास्वर: |
पद्मगर्भो जगद्गर्भो हेमगर्भ: सुदर्शन: ||३||
हिंदी अर्थ :
लक्ष्मीवांस्त्रिदशाध्यक्षो दृढीयानिन ईशिता |
मनोहरो मनोज्ञांगो धीरो गम्भीरशासन: ||४||
हिंदी अर्थ :
धर्मयूपो दयायागो धर्मनेमिर्मुनीश्वर: |
धर्मचक्रायुधो देव: कर्महा धर्मघोषण: ||५||
हिंदी अर्थ :
अमोघवागमोघाज्ञो निर्मलोऽमोघशासन: |
सुरूप: सुभगस्त्यागी समयज्ञ: समाहित: ||६||
हिंदी अर्थ :
सुस्थित: स्वास्थ्यभाक् स्वस्थो नीरजस्को निरुद्धव: |
अलेपो निष्कलंकात्मा वीतरागो गतस्पृह: ||७||
हिंदी अर्थ :
वश्येन्द्रियो विमुक्तात्मा नि:सपत्नो जितेन्द्रिय: |
प्रशान्तोऽनन्तधामर्षि-र्मंगलं मलहानघ: ||८||
हिंदी अर्थ :
अनीदृगुपमाभूतो दिष्टिर्दैवमगोचर: |
अमूर्त्तो मूर्तिमानेको नैको नानैकतत्त्वदृक् ||९||
हिंदी अर्थ :
अध्यात्मगम्योगम्यात्मा योगविद्योगिवन्दित: |
सर्वत्रग: सदाभावी त्रिकालविषयार्थदृक् ||१०||
हिंदी अर्थ :
शंकर: शंवदो दान्तो दमी क्षान्तिपरायण: |
अधिप: परमानन्द: परात्मज्ञ: परात्पर: ||११||
हिंदी अर्थ :
त्रिजगद्वल्लभोऽभ्यर्च्यस्त्रिजगन्मंगलोदय: |
त्रिजगत्पतिपूज्यांघ्रिस्त्रिलोकाग्रशिखामणि: ||१२||
हिंदी अर्थ :
ॐ ह्रीं श्री वृहदादिशतम् नमः ।८।
Shri Jinshastranaam Stotra- श्री त्रिकालदर्श्यादिशतम्
त्रिकालदर्शी लोकेशो लोकधाता दृढव्रत: |
सर्वलोकातिग: पूज्य: सर्वलोकैकसारथि: ||१||
हिंदी अर्थ :
पुराण: पुरुष: पूर्व: कृतपूर्वांगविस्तर: |
आदिदेव: पुराणाद्य: पुरुदेवोऽधिदेवता ||2||
हिंदी अर्थ :
युगमुखो युगज्येष्ठो युगादिस्थितिदेशक: |
कल्याणवर्ण: कल्याण: कल्य: कल्याणलक्षण: ||3||
हिंदी अर्थ :
कल्याणप्रकृतिर्दीप्तकल्याणात्मा विकल्मष: |
विकलंक: कलातीत: कलिलघ्न: कलाधर: ||4||
हिंदी अर्थ :
देवदेवो जगन्नाथो जगद्बन्धुर्जगद्विभु: |
जगद्धितैषी लोकज्ञ: सर्वगो जगदग्रग: ||5||
हिंदी अर्थ :
चराचर-गुरुर्गोप्यो गूढात्मा गूढगोचर: |
सद्योजात: प्रकाशात्मा ज्वलज्ज्वलनसप्रभ: ||6||
हिंदी अर्थ :
आदित्यवर्णो भर्माभ: सुप्रभ: कनकप्रभ: |
सुवर्णवर्णो रुक्माभ: सूर्यकोटिसमप्रभ: ||7||
हिंदी अर्थ :
तपनीयनिभस्तुंगो बालार्काभोऽनलप्रभ: |
सन्ध्याभ्रबभ्रुर्हेमाभस्तप्तचामीकरच्छवि: ||8||
हिंदी अर्थ :
निष्टप्तकनकच्छाय: कनत्काञ्चनसन्निभ: |
हिरण्यवर्ण: स्वर्णाभ: शातकुंभनिभप्रभ: ||9||
हिंदी अर्थ :
द्युम्नाभो जातरूपाभस्तप्तजाम्बूनदद्युति: |
सुधौतकलधौतश्री: प्रदीप्तो हाटकद्युति: ||10||
हिंदी अर्थ :
शिष्टेष्ट: पुष्टिद: पुष्ट: स्पष्ट: स्पष्टाक्षर: क्षम: |
शत्रुघ्नोऽप्रतिघोऽमोघ: प्रशास्ता शासिता स्वभू: ||11|
हिंदी अर्थ :
शान्तिनिष्ठो मुनिज्येष्ठ: शिवताति: शिवप्रद: |
शान्तिद: शान्तिकृच्छान्ति: कान्तिमान्कामितप्रद: ||12||
हिंदी अर्थ :
श्रेयोनिधिरधिष्ठानमप्रतिष्ठ: प्रतिष्ठित: |
सुस्थिर: स्थावर: स्थाणु: प्रथीयान्प्रथित: पृथु: ||13||
हिंदी अर्थ :
ॐ ह्रीं श्री त्रिकालदर्श्यादिशतम् नमः ।९।
Shri Jinshastranaam Stotra- श्री दिग्वासाद्यष्टोत्तरशतम्
दिग्वासा वातरशनो निर्ग्रन्थेशो निरम्बर: |
निष्किञ्चनो निराशंसो ज्ञानचक्षुरमोमुह: ||१||
हिंदी अर्थ :
तेजोराशिरनन्तौजा ज्ञानाब्धि: शीलसागर: |
तेजोमयोऽमितज्योतिर्ज्योतिमूर्तिस्तमोपह: ||२||
हिंदी अर्थ :
जगच्चूडामणिर्दीप्त: शंवान् विघ्नविनायक: |
कलिघ्न: कर्मशत्रुघ्नो लोकालोकप्रकाशक: ||३||
हिंदी अर्थ :
अनिद्रालुरतन्द्रालुर्जागरूक: प्रमामय: |
लक्ष्मीपति-र्जगज्ज्योति-र्धर्मराज: प्रजाहित: ||४||
हिंदी अर्थ :
मुमुक्षुर्बन्ध-मोक्षज्ञो जिताक्षो जितमन्मथ: |
प्रशान्त-रसशैलूषो भव्यपेटकनायक: ||५||
हिंदी अर्थ :
मूलकर्त्ताऽखिल-ज्योतिर्मलघ्नो मूलकारणम् |
आप्तो वागीश्वर: श्रेयाञ्छ्रायसोक्तिर्निरुक्तवाक् ||६||
हिंदी अर्थ :
प्रवक्ता वचसामीशो मारजिद्विश्वभाववित् |
सुतनुस्तनुनिर्मुक्त: सुगतो हतदुर्नय: ||७||
हिंदी अर्थ :
श्रीश: श्रीश्रितपादाब्जो वीतभीरभयंकर: |
उत्सन्नदोषो निर्विघ्नो निश्चलो लोकवत्सल: ||८||
हिंदी अर्थ :
लोकोत्तरो लोकपतिर्लोकचक्षुरपारधी: |
धीरधीर्बुद्धसन्मार्ग: शुद्ध: सूनृत-पूतवाक् ||९||
हिंदी अर्थ :
प्रज्ञापारमित: प्राज्ञो यतिर्नियमितेन्द्रिय: |
भदन्तो भद्रकृत्भद्र: कल्पवृक्षो वरप्रद: ||१०||
हिंदी अर्थ :
समुन्मूलितकर्मारि: कर्मकाष्ठा: शुशुक्षणि: |
कर्मण्य: कर्मठ: प्रांशुर्हेयादेयविचक्षण: ||११||
हिंदी अर्थ :
अनन्त-शक्तिरच्छेद्यस्त्रिपुरारि-स्त्रिलोचन: |
त्रिनेत्रस्त्र्यम्बकस्त्र्यक्ष: केवलज्ञान-वीक्षण: ||१२||
हिंदी अर्थ :
समन्तभद्र: शान्तारिर्धर्माचार्यो दयानिधि: |
सूक्ष्मदर्शी जितानंग: कृपालुर्धर्मदेशक: ||१३||
हिंदी अर्थ :
शुभंयु: सुखसाद्भूत: पुण्यराशिरनामय: |
धर्मपालो जगत्पालो धर्मसाम्राज्यनायक: ||१४||
हिंदी अर्थ :
ॐ ह्रीं श्री दिग्वासाद्यष्टोत्तरशतम् नमः ।१०।
Shri Jinshastranaam Stotra – प्रशस्ति – स्तोत्र फल
धाम्नांपते तवामूनि नामान्यागम-कोविदै: |
समुच्चितान्यनुध्यायन्पुमान् पूतस्मृतिर्भवेत् ||१||
हिंदी अर्थ :
गोचरोऽपि गिरामासां त्वमवाग्गोचरो मत: |
स्तोता तथाप्यसंदिग्धं त्वत्तोऽभीष्टफलं लभेत् ||२||
हिंदी अर्थ :
त्वमतोऽसि जगद्बन्धुस्त्वमतोऽसि जगद्भिषक् |
त्वमतोऽसि जगद्धाता त्वमतोऽसि जगद्धित: ||३||
हिंदी अर्थ :
त्वमेकं जगतां ज्योतिस्त्वं द्विरूपोपयोगभाक् |
त्वं त्रिरूपैकमुक्त्यंग: स्वोत्थानन्तचतुष्टय: ||४||
हिंदी अर्थ :
त्वं पंचब्रह्मतत्त्वात्मा पंचकल्याणनायक: |
षड्भेदभावतत्त्वज्ञस्त्वं सप्तनयसंग्रह: ||५||
हिंदी अर्थ :
दिव्याष्टगुणमूर्तिस्त्वं नवकेवललब्धिक: |
दशावतार-निर्धार्यो मां पाहि परमेश्वर ||६||
हिंदी अर्थ :
युष्मन्नामावलीदृब्ध विलसत्स्तोत्रमालया |
भवन्तं परिवस्याम: प्रसीदानुगृहाण न: ||७||
हिंदी अर्थ :
इदं स्तोत्रमनुस्मृत्य पूतो भवति भाक्तिक: |
य: संपाठं पठत्येनं स स्यात्कल्याण-भाजनम् ||८||
हिंदी अर्थ :
तत: सदेदं पुण्यार्थी पुमान्पठतु पुण्यधी: |
पौरुहूतीं श्रियं प्राप्तुं परमामभिलाषुक: ||९||
हिंदी अर्थ :
स्तुत्वेति मघवा देवं चराचरजगद्गुरुम् |
ततस्तीर्थ-विहारस्य व्यद्यात्प्रस्तावनामिमम् ||१०||
हिंदी अर्थ :
स्तुति: पुण्यगुणोत्कीर्ति: स्तोता भव्य: प्रसन्नधी: |
निष्ठितार्थो भवांस्तुत्य: फलं नैश्रेयसं सुखम् ||११||
हिंदी अर्थ :
य: स्तुत्यो जगतां त्रयस्य न पुन: स्तोता स्वयं कस्यचित् |
ध्येयो योगिजनस्य यश्च नितरां ध्याता स्वयं कस्यचित् ||
यो नंतृन् नयते नमस्कृतिमलं नन्तव्यपक्षेक्षण: |
स श्रीमान् जगतां त्रयस्य च गुरुर्देव: पुरु: पावन: ||१२||
हिंदी अर्थ :
तं देवं त्रिदशाधिपार्चितपदं घाति-क्षयानन्तरम् |
प्रोत्थानन्तचतुष्टयं जिनमिमं भव्याब्जिनीनामिन: |
मानस्तम्भ-विलोकनानतजगन्मान्यं त्रिलोकीपतिम् |
प्राप्ताचिन्त्यबहिर्विभूतिमनघं भक्त्या प्रवंदामहे ||१३||
हिंदी अर्थ :
।। इति श्री जिनसेनाचार्यविरचितं जिनऽष्टोत्तर-सहस्रनाम -स्तोत्रं (Shri Jinshastranaam Stotra)नमः ।।