श्री नवदेवता पूजन – रचयित्री : आर्यिका पूर्णमति माताजी
श्री नवदेवता पूजन ( Navdevta Poojan ) – परम पूज्य आर्यिका श्री १०५ पूर्णमति माताजी एक अनुपम ज्ञान,प्रतिभा की धनी है। माताजी द्वारा मधुर कंठ से मुखरित एक -एक शब्द भक्तिमय होने के साथ ही अर्थपूर्ण, भावपूर्ण भी है। माताजी ने अनेकों पूजन, भक्ति पाठ, स्तोत्र आदि की रचना की है। जिसमे से यह नवदेवता पूजन परमात्मा के गुणों में अनुराग करने का एक सरलतम मार्ग है।
श्री नवदेवता पूजन ( Navdevta Poojan )
रचयित्री : आर्यिका पूर्णमति माताजी (शिष्या आचार्य श्री विद्यासागर जी मुनिराज
( स्थापना)
अरि चार घाति विनाश कर, अरहंत पद को पा लिया |
पुरुषार्थ प्रबल कियो प्रभो, मुक्तिरमा को वर लिया ||
अरहंत पथ पर चल रहे, आचार्य पद वन्दन करूं |
उवज्झाय साधू श्रेष्ठ पद का, भक्ति से अर्चन करूं ||1||
जिन धर्म आगम चैत्य चैत्यालय शरन को पा लिया |
भव सिन्धु पार उतारने, नौका सहारा ले लिया ||
यह भावना मेरी प्रभो, मं ज्ञान महल पधारिये |
निज सम बना लीजे मुझे, जिनराज पदवी दीजिये ||2||
(दोहा)
सुख दाता नव देवता, तिष्ठो हृदय मंझार |
भावों से आह्वाहन करूं, करो भवोदधि पार ||3||
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनआगमजिनचैत्यचैत्यालयसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट आह्वाह्न्म |
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनआगमजिनचैत्यचैत्यालयसमूह! अत्र तिष्ठ: ठ: ठ: स्थापनम |
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनआगमजिनचैत्यचैत्यालयसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट सन्निधिकरणम |
द्र्व्यार्पण
जिनको माना अपना, उनसे ही दुख पाया |
फिर भी क्यों राग किया, त्यह समझ नहीं आया ||
यह राग की आग मिटे, ऐसा जल दो स्वामी |
नव देव शरण आया, शरणा दो जगनामी ||1||
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनआगमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा |
प्रभो! काल अनादि से, भव का संताप सहा |
अब सहा नहीं जाता, यह मेटो द्वेष महा ||
इस द्वेष की ज्वाला को, अब शांत करो स्वामी |
नव देव शरण आया, शरणा दो जगनामी ||2||
ॐ ह्रीं नवदेवेभ्यो भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा |
जिसको मैंने चाहा, सब नश्वर है माया |
जिस तन में हूँ रहता, क्षणभंगुर है वह काया ||
क्षत विक्षत जग सारा, अब जाऊं कहाँ स्वामी |
नव देव शरन आया, शरणा दो जगनामी ||3||
ॐ ह्रीं नवदेवेभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान निर्वपामीति स्वाहा ।
इस काम लुटेरे ने, आतम धन लूट लिया |
मैं मौन खड़ा निर्बल, बस तेरा शरण लिया ||
विश्वास मुझे तुम पर, आतम बल दो स्वामी |
नव देव शरण आया, शरणा दो जगनामी ||4||
ॐ ह्रीं नवदेवेभ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
इस क्षुधा रोग से मैं, प्रभुवर लाचार रहा |
व्यंजन की औषध खा, न कुछ उपचार हुआ ||
प्रभु तू हि है सहारा, यह रोग नशे स्वामी |
नव देव शरण आया, शरणा दो जगनामी ||5||
ॐ ह्रीं नवदेवेभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यम निर्वपामीति स्वाहा ।
पर तत्व प्रशंसा में, महिमा पर की आयी |
नर तन में रहकर भी, निज की सुधा ना आई ||
अब ज्ञान ज्योति प्रगटे, आशीष मिले स्वामी |
नव देव शरण आया, शरणा दो जगनामी ||6||
ॐ ह्रीं नवदेवेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
कर्मों की आंधी में, चेतन गृह बिखर गया |
आया अब दर तेरे, निज आतम निखर गया ||
शुभ ध्यान अनल में ही, वसु कर्म जले स्वामी |
नव देव शरण आया, शरणा दो जगनामी ||7||
ॐ ह्रीं नवदेवेभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
पापों का बीज बोया, कैसे शिव फल पाऊं |
तप धारूं कर्म नशे, तब सिद्धालय पाऊं ||
मुझे पास बुला लेना, यह अरज सुनो स्वामी |
नव देव शरण आया, शरणा दो जगनामी ||8||
ॐ ह्रीं नवदेवेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
वसुकर्मों ने मिलकर, दिन-रात जलाया है |
गुरुदेव कृपा पाकर, यह अर्घ्य बनाया है ||
यह पद अनर्घ्य अनमोल, हो प्राप्त मुझे स्वामी |
नव देव शरण आया, शरणा दो जगनामी ||9||
ॐ ह्रीं नवदेवेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
( जयमाला )
(दोहा)
नव देवों की भक्ति से, सब अरिष्ट नश जाय |
आतम सिद्धि को प्राप्त कर, अष्टम वसुधा पाय ||1||
(चौपाई)
जय अरहंत देव जिनराई, तीन लोक में महिमा छाई |
घाति कर्म चउ नाश किये हैं, भव्य जनों में वास किये हैं ||2||
दोष अठारह दूर किये हैं, छयालीस गुण पूर्ण हुए हैं |
समवशरण के बीच विराजे, तीर्थंकर पद महिमा राजे ||3||
क्षणभंगुर सारा जग जाना, जड़ चेतन को भिन्न पिछाना |
कल्याणक सब पंच मनाये, देव इन्द्र हर्षित गुण गाये ||4||
प्रभो! आपने प्रभुता पायी, दो हमको समता सुखदायी |
दुष्ट करम ने मुझको घेरा, निज स्वभाव से मुख को फेरा ||5||
प्रभो आप सिद्धालय वासी, दर दर भटका मैं जगवासी |
अब निज भूल समझ में आई, सिद्ध दशा हि मन में भाई ||6||
करो नमन स्वीकार हमारा, भव सागर से करो किनारा |
कर्म भंवर में मेरी नैया, गुरुवर तुम बिन कौन खिवैया ||7||
गुण छत्तीस मुनीश्वर धारे, इस कलयुग में आप सहारे |
दीक्षा देकर राह दिखाते, खुद चलते चलना सिखलाते ||8||
उपाध्याय पद है तम नाशे, गुण पच्चीस ज्ञान परकासे |
अठ्ठाईस गुणों के धारी, साधू पद की महिमा भारी ||9||
श्री जिनधर्म अहिंसा प्यारा, गूँज उठा है जग में नारा |
आगम आतम बोध कराता, फिर चेतन का शोध कराता ||10||
जिनने आगम को अपनाया, अहो भाग्य तुम सा पद पाया |
अनेकांत माय धर्म सहारा, द्वादशांग को नमन हमारा ||11||
कर्म निकाचित निधत्ति विनाशे, बिम्ब जिनेश्वर आतम प्रकाशे |
जिन स्वरूप का बोध कराती, जिन सम जिन मूरत कहलाती ||12||
जो जन नित जिन मन्दिर जावे, पाप नशे औ पुण्य बढ़ावे |
परमातम का ध्यान लगावे, शुद्ध होय मुक्तिपुर जावे ||13||
नव देवों को शीश झुकाऊँ, गुण गाऊं और ध्यान लगाऊँ |
रहूँ सदा मैं प्रभुवर चरणा, भव-भव मिले आपकी शरणा ||14||
(दोहा)
पूर्व पुण्य से हो रहा, नव देवों का दर्श |
अल्प बुद्धि कैसे लहे, अनंत गुण का स्पर्श ||15||
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनआगमजिनचैत्यचैत्यालयेभ्यो जयमाला पूर्णार्घयं निर्वपामीति स्वाहा ||
(घत्ता छंद )
प्रभुवर को पूजे, शिव पथ सूझे, भव-भव का संताप हरो |
नित पूज रचाऊं, ध्यान लगाऊं, भक्त को अब पूर्ण करो ||
|| इति श्री नवदेवता पूजन सम्पूर्णम ||