श्री सम्मेद शिखर वंदना | Shri Sammed Shikar Vandana |
Shri Sammed Shikar Vandana : जैन धर्म में 24 तीर्थंकरों की कल्याणक भूमि को नमन वंदन किया गया है। जिसमे मोक्ष स्थली अतिपुण्यशाली बताई गयी है। 24 में से 20 भगवानों की निर्वाण स्थली श्री सम्मेद शिखर जी है। इस पावन भूमि की वंदना का फल जैन ग्रंथों में इस प्रकार बताया गया है – ” भाव सहित वन्दे जो कोई, ताहि नरक पशु गति न होई ” अर्थात इस भूमि की भाव सहित चरण वंदना करने मात्र से ही मनुष्य नरक और तिर्यञ्च गति से छुटकारा प्राप्त कर लेता है।
श्री सम्मेद शिखर वंदना | Shri Sammed Shikar Vandana |
सम्मेद शिखर वन्दूँ सदा, भाव सहित नत भाल।
कहूँ वंदना क्षेत्र की, पाने शिव की चाल॥
(चोपाई)
प्रथम कूट है गौतम स्वामी, वंदो गणधर पद जगनामी।
चौबीसों के परम गणीशा, चौद्ह सौ बावन श्री ईशा ॥1॥
कूट ज्ञानधर कुन्थु जिनंदा, वन्दूँ मन वच मेटो फँदा।
बहुत निकट हैं पूर्ण दयालू, हो जाऊं मैं परम कृपालू ॥2॥
नमि जिनवर जी जग के चंदा, कूट मित्रधर सुख आनंदा।
तीन लोक के सभी जीव जी, बने मित्र मम मिटे पीव जी ॥3॥
नाटक तजकर अर जिनस्वामी, नाटक वन्दूँ शिवफ्थ गामी।
चक्रवर्ति का चक्कर छोड़ा, हमने तुमसे नाता जोड़ा ॥4॥
मल्लिप्रभु का कूट सुसंबल, बसो हृदय में मेरे पल-पल।
बाल ब्रह्म-मय विरत विरागी, बना रहूँ मैं तुम पद रागी ॥5॥
सुरनर किन्नर संकुल पूजें, वन्दत श्रेयनाथ अध धूजे।
समवशरण में ऐसे सोहे, नखतों में ज्यों चंदा मोहे ॥6॥
सुप्रभ से श्री सुविधिनाथजी, वन्दूँ देना नित्य साथजी।
धवल वर्ण के चरण तुम्हारे, धवल भाव हो नाथ हमारे ॥7॥
पद्मप्रभ का मोहन कूटा, माना जग में शिव का खूँटा।
मोह नाश कर शिव महि पाई, वन्दूँ तुमको नित शिर नाई ॥8॥
मुनिसुव्रत का कूट सुनिर्झर, वन्दत होते अघ भी झर-झर।
मुनियों में तुम श्रेष्ठ मुनी हो, चरणा नपते श्रेष्ठ गुणी औ ॥9॥
चंद्रप्रभ का ललित सुहाना, वन्दूँ देना शिव का दाना।
इसी कूट से असंख्यात भी, साधु गये शिव कर्म घात ही ॥10॥
कैलाश से आदि जिनेश्वर, वन्दूँ निशदिन हे परमेश्वर।
सहस मुनीश्वर बाहुबली भी, मोक्ष गये इह आत्म बली जी ॥11॥
शीतल जिनवर विद्युतवर से, पूजक को ये इच्छित वर दे।
पाप-ताप को शीतल करके, भक्ति से हम उर में धर लें ॥12॥
स्वयंप्रभा के नाथ अनंता, वन्दूँ मेटो दुख के कंता।
नम: सिद्ध कह दीक्षा लीनी, भव्यों को शिव शिक्षा दीनी ॥13॥
संभव शम सुख पाने हेतू, वन्दूँ धवल कूट वृष केतू।
तीनों रत्नो को पा तीजे, पहुँचे शिव में सब अघ छीजे ॥14॥
चम्पापुर से वासुपूज्य है, मन-वच-तन से करूँ पूज मैं।
पंचकल्याणक गिरी मंदारा, पाये पाँच युगल इह सारा ॥15॥
अभिनंदन जी आनंद दाता, आनंद कूटा बहु विख्याता।
सर्व गुणों का नंदन करने, आये हम सब वंदन करने ॥16॥
सुदत्तकूट है नाथ धर्म का, कारण है यह मोक्ष शर्म का।
धर्म पुण्य को करलो भाई, वंदत ही सब अघ नश जाई ॥17॥
सुमतिनाथ जी अविचल कूटा, गये मोक्ष ये जग से छूटा।
श्रेष्ठमती दो हमको जेष्ठा, सुर-नर वंदित वन्दूँ श्रेष्ठा ॥18॥
शांति प्रभ है शांति जिनेशा, वन्दूँ तुमको हे तीर्थेशा।
कुन्दप्रभ है दूजा नामा, नमते बनते सार्थक कामा ॥19॥
पावापुर से श्री महावीरा, वर्द्धमान हो सन्मति धीरा।
पद्म सरोवर शिव का थाना, वन्दूँ सुख का द्वारा माना ॥20॥
सुपार्श्वनाथ का कूट प्रभासा, चमके सूरज सम है खासा।
रोग मिटाती इसकी धूली, वन्दूँ पाने शिव की चूली ॥21॥
सुवीर कूट श्री विमल प्रधाना, वन्दूँ मन में धरि-धरि ध्याना।
चरण-शरण के बिन ही नाथा, भटका करदो आज सनाथा ॥22॥
चढ़ते-चढ़ते घाटी उच्च, हांफ गया हूँ प्रभुवर सच्च।
सिद्धिवरा है कूट अजीतं, वन्दूँ गाऊँ तुमरे गीतं ॥23॥
ऊर्जयन्त है श्री गिरनारी, पाई तप बल से शिवनारी।
कारण हुण्डासर्पण काल, वन्दूँ नेमि जिनेश्वर चाल ॥24॥
स्वर्ण भद्ग है कूट प्रसिद्धा, पार्श्वनाथ का मानों सिद्धा।
वंदन होती पूर्ण यहाँ है, चरण गुफा में श्रेष्ठ तहाँ है ॥25॥
एक बार भी करलो वंदन, मिट जावे फिर भव के बंधन।
तीन काल में तीन योग से, वन्दूँ चरणा नित्य धोक दे ॥26॥
विवेक सूरि की शिष्या पंचम, भव को तज गति पाने पंचम।
बार-बार ये विनती करके, फिर-फिर वन्दे उर में धरके ॥27॥
प्रशस्ति
(छंद-ज्ञानोदय)
अकलंक ने सौंदा मठ में, जिनशासन की रक्षा की।
बौद्धमती से वाद जीतकर, जैनधर्म की शिक्षा दी॥
यहीं हुई यह सिद्धक्षेत्र की, पूर्ण वंदना प्यारी है।
पढ़ो सुनो हे भव्य जनो, यदि चाहो सुख की क्यारी है ॥28॥
माघ शुक्ल की पंचमी, सूर्यवार इकतीस।
वीर मोक्ष पच्चीस सौ, पूर्ण हुई थुति ईश ॥29॥