दर्शन पाठ तुम निरखत मुझको मिली – Darshan Path Tum Nirkhat Mujhko Mili

दर्शन पाठ तुम निरखत मुझको मिली 

( कविश्री बुधजन )

(दोहा)

तुम निरखत मुझको मिली, मेरी सम्पत्ति आज।

कहाँ चक्रवर्ति-संपदा, कहाँ स्वर्ग-साम्राज॥१॥

तुम वंदत जिनदेवजी, नित-नव मंगल होय।

विघ्नकोटि ततछिन टरैं, लहहिं सुजस सब लोय ॥२॥

तुम जाने बिन नाथजी, एक श्वास के माँहि ।

जन्म-मरण अठदस किये, साता पाई नाहिं ॥३॥

आप बिना पूजत लहे,दुःख नरक के बीच।

भूख-प्यास पशुगति सही, करयो निरादर नीच ॥४॥

नाम उचारत सुख लहै, दर्शनसों अघ जाय।

पूजत पावै देव-पद,ऐसे हैं जिनराय॥५॥

वंदत हूँ जिनराज मैं. धर उर समता भाव।

तन धन-जन-जगजालतैं, धर विरागता भाव॥६॥

सुनो अरज हे नाथजी! त्रिभुवन के आधार ।

दुष्टकर्म का नाश कर, वेगि करो उद्धार ॥७॥

जाचत हूँ मैं आपसों, मेरे जिय के माँहिं।

राग-द्वेष की कल्पना, क्यों हू उपजै नाहिं॥८॥

अति अद्भुत प्रभुता लखी, वीतरागता माँहिं।

विमुख होहिं ते दु:ख लहैं, सन्मुख सुखी लखाहिं ॥ ९॥

कलमल कोटिक नहिं रहैं, निरखत ही जिनदेव।

ज्यों रवि ऊगत जगत् में, हरै तिमिर स्वयमेव ॥ १०॥

परमाणू पुद्गलतणी, परमातम संजोग ।

भई पूज्य सब लोक में, हरे जन्म का रोग ॥ ११॥

कोटि जन्म में कर्म जो, बाँधे हुते अनन्त ।

ते तुम छवी विलोकते, छिन में हो हैं अन्त ॥ १२॥

आन नृपति किरपा करै, तब कछु दे धन धान ।

तुम प्रभु अपने भक्त को, करल्यो आप समान॥ १३ ॥

यंत्र मंत्र मणि औषधी, विषहर राखत प्रान ।

त्यों जिनछवि सब भ्रम हरै, करै सर्व परधान ॥ १४ ॥

त्रिभुवनपति हो ताहि तैं, छत्र विराजैं तीन ।

सुरपति नाग नरेशपद, रहैं चरन आधीन ॥ १५ ॥

भवि निरखत भव आपने, तुम भामण्डल बीच ।

भ्रम मेटैं समता गहै, नाहिं सहै गति नीच ॥ १६ ॥

दोई ओर ढोरत अमर, चौंसठ चमर सफेद ।

निरखत भविजन का हरैं, भव अनेक का खेद ॥ १७ ॥

तरु अशोक तुम हरत है, भवि-जीवन का शोक ।

आकुलता कुल मेटि कें, करैं निराकुल लोक॥१८ ॥

अन्तर बाहिर परिगहन, त्यागा सकल समाज ।

सिंहासन पर रहत हैं, अन्तरीक्ष जिनराज ॥ १९॥

जीत भई रिपु मोहतैं, यश सूचत है तास ।

देव दुन्दुभिन के सदा, बाजे बजैं आकाश ॥ २०॥

बिन अक्षर इच्छा रहित, रुचिर दिव्यध्वनि होय।

सुर नर पशु समझैं सबै, संशय रहै न कोय ॥ २१॥

बरसत सुरतरु के कुसुम, गुंजत अलि चहुँ ओर ।

फैलत सुजस सुवासना, हरषत भवि सब ठौर ॥ २२॥

समुद्र बाध अरु रोग अहि, अर्गल बंध संग्राम ।

विघ्न विषम सब ही टरैं, सुमरत ही जिन नाम ॥ २३॥

सिरीपाल, चंडाल पुनि, अञ्जन भीलकुमार ।

हाथी हरि अरि सब तरे, आज हमारी बार ॥ २४॥

बुधजन यह विनती करै, हाथ जोड़ शिर नाय।

जबलौं शिव नहिं होय तुमभक्ति हृदय अधिकाय ॥२५॥

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