Bhaktamar Stotra Hindi – भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )
जैन दर्शन का अद्भुत अनन्तशक्तिशाली ऊर्जावान स्तोत्र जैन भक्तामर स्तोत्र (Jain Bhaktamar Stotra Hindi ) है। इसके प्रतिदिन पाठ से अनेक आधि – व्याधि विनाश को प्राप्त होती है। इस स्तोत्र में प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव (आदिनाथ ) भगवान की आराधना की है। स्तोत्र के प्रभाव से ४८ ताले भी टूट गए थे। मूलतः यह स्तोत्र आचार्य श्री मानतुंग स्वामी ने भोज नगरी में शुद्ध संस्कृत में लिखा था। मगर वर्तमान में शुद्ध संस्कृत का उच्चारण न हो पाने से अनेक कवियों ने हिंदी में इसका अनुवाद किया है। जिसमे से कुछ इस प्रकार है – आशा करते है आप इन हिंदी स्तोत्र के माध्यम से प्रभु के गुणों का गुणानुवाद करने को लालायित होंगे।
श्री मानतुंग आचार्य द्वारा रचित संस्कृत भक्तामर स्तोत्र पढ़ने हेतु Click करे !
श्री प. हेमराज जी कृत भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )
( दोहा )
आदिपुरुष आदिश जिन, आदि सुविधि करतार।
धरम – धुरन्धर परमगुरु, नमो आदि अवतार।।
सुर-नत-मुकुट रतन-छवि करें, अंतर पाप-तिमिर सब हरें ।
जिनपद वंदूं मन वच काय, भव-जल-पतित उधरन-सहाय ।।१।।
श्रुत-पारग इंद्रादिक देव, जाकी थुति कीनी कर सेव |
शब्द मनोहर अरथ विशाल, तिन प्रभु की वरनूं गुन-माल ||२||
विबुध-वंद्य-पद मैं मति-हीन, हो निलज्ज थुति मनसा कीन |
जल-प्रतिबिंब बुद्ध को गहे, शशिमंडल बालक ही चहे ||३||
गुन-समुद्र तुम गुन अविकार, कहत न सुर-गुरु पावें पार |
प्रलय-पवन-उद्धत जल-जंतु, जलधि तिरे को भुज बलवंतु ||४||
सो मैं शक्ति-हीन थुति करूँ, भक्ति-भाव-वश कछु नहिं डरूँ |
ज्यों मृगि निज-सुत पालन हेत, मृगपति सन्मुख जाय अचेत ||५||
मैं शठ सुधी-हँसन को धाम, मुझ तव भक्ति बुलावे राम |
ज्यों पिक अंब-कली परभाव, मधु-ऋतु मधुर करे आराव ||६||
तुम जस जंपत जन छिन माँहिं, जनम-जनम के पाप नशाहिं |
ज्यों रवि उगे फटे ततकाल, अलिवत् नील निशा-तम-जाल ||७||
तव प्रभाव तें कहूँ विचार, होसी यह थुति जन-मन-हार |
ज्यों जल कमल-पत्र पे परे, मुक्ताफल की द्युति विस्तरे ||८||
तुम गुन-महिमा-हत दु:ख-दोष, सो तो दूर रहो सुख-पोष |
पाप-विनाशक है तुम नाम, कमल-विकासी ज्यों रवि-धाम ||९||
नहिं अचंभ जो होहिं तुरंत, तुमसे तुम-गुण वरणत संत |
जो अधीन को आप समान, करे न सो निंदित धनवान ||१०||
इकटक जन तुमको अवलोय, अवर विषै रति करे न सोय |
को करि क्षार-जलधि जल पान, क्षीर नीर पीवे मतिमान ||११||
प्रभु! तुम वीतराग गुण-लीन, जिन परमाणु देह तुम कीन |
हैं तितने ही ते परमाणु, या तें तुम सम रूप न आनु ||१२||
कहँ तुम मुख अनुपम अविकार, सुर-नर-नाग-नयन-मन हार |
कहाँ चंद्र-मंडल सकलंक, दिन में ढाक-पत्र सम रंक ||१३||
पूरन-चंद्र-ज्योति छविवंत, तुम गुन तीन जगत् लंघंत |
एक नाथ त्रिभुवन-आधार, तिन विचरत को करे निवार ||१४||
जो सुर-तिय विभ्रम आरम्भ, मन न डिग्यो तुम तोउ न अचंभ |
अचल चलावे प्रलय समीर, मेरु-शिखर डगमगें न धीर ||१५||
धूम-रहित बाती गत नेह, परकाशे त्रिभुवन-घर एह |
वात-गम्य नाहीं परचंड, अपर दीप तुम बलो अखंड ||१६||
छिपहु न लुपहु राहु की छाहिं, जग-परकाशक हो छिन-माहिं |
घन-अनवर्त दाह विनिवार, रवि तें अधिक धरो गुणसार ||१७||
सदा उदित विदलित तममोह, विघटित मेघ-राहु-अवरोह |
तुम मुख-कमल अपूरब चंद, जगत्-विकाशी जोति अमंद ||१८||
निश-दिन शशि रवि को नहिं काम, तुम मुख-चंद हरे तम-धाम |
जो स्वभाव तें उपजे नाज, सजल मेघ तें कौनहु काज ||१९||
जो सुबोध सोहे तुम माँहिं, हरि हर आदिक में सो नाहिं |
जो द्युति महा-रतन में होय, कांच-खंड पावे नहिं सोय ||२०||
सराग देव देख मैं भला विशेष मानिया |
स्वरूप जाहि देख वीतराग तू पिछानिया ||
कछू न तोहि देखके जहाँ तुही विशेखिया |
मनोग चित्त-चोर ओर भूल हू न पेखिया ||२१||
अनेक पुत्रवंतिनी नितंबिनी सपूत हैं |
न तो समान पुत्र और मात तें प्रसूत हैं ||
दिशा धरंत तारिका अनेक कोटि को गिने |
दिनेश तेजवंत एक पूर्व ही दिशा जने ||२२||
पुरान हो पुमान हो पुनीत पुण्यवान हो |
कहें मुनीश! अंधकार-नाश को सुभानु हो ||
महंत तोहि जान के न होय वश्य काल के |
न और मोहि मोक्ष पंथ देय तोहि टाल के ||२३||
अनंत नित्य चित्त की अगम्य रम्य आदि हो |
असंख्य सर्वव्यापि विष्णु ब्रह्म हो अनादि हो ||
महेश कामकेतु जोगि र्इश योग ज्ञान हो |
अनेक एक ज्ञानरूप शुद्ध संतमान हो ||२४||
तुही जिनेश! बुद्ध है सुबुद्धि के प्रमान तें |
तुही जिनेश! शंकरो जगत्त्रयी विधान तें ||
तुही विधात है सही सुमोख-पंथ धार तें |
नरोत्तमो तुही प्रसिद्ध अर्थ के विचार तें ||२५||
नमो करूँ जिनेश! तोहि आपदा निवार हो |
नमो करूँ सु भूरि भूमि-लोक के सिंगार हो ||
नमो करूँ भवाब्धि-नीर-राशि-शोष-हेतु हो |
नमो करूँ महेश! तोहि मोख-पंथ देतु हो ||२६||
तुम जिन पूरन गुन-गन भरे, दोष गर्व करि तुम परिहरे |
और देव-गण आश्रय पाय,स्वप्न न देखे तुम फिर आय ||२७||
तरु अशोक-तल किरन उदार, तुम तन शोभित है अविकार |
मेघ निकट ज्यों तेज फुरंत, दिनकर दिपे तिमिर निहनंत ||२८||
सिंहासन मणि-किरण-विचित्र, ता पर कंचन-वरन पवित्र |
तुम तन शोभित किरन विथार, ज्यों उदयाचल रवि तम-हार ||२९||
कुंद-पुहुप-सित-चमर ढ़ुरंत, कनक-वरन तुम तन शोभंत |
ज्यों सुमेरु-तट निर्मल कांति, झरना झरे नीर उमगांति ||३०||
ऊँचे रहें सूर-दुति लोप, तीन छत्र तुम दिपें अगोप |
तीन लोक की प्रभुता कहें, मोती झालरसों छवि लहें ||३१||
दुंदुभि-शब्द गहर गंभीर, चहुँ दिशि होय तुम्हारे धीर |
त्रिभुवन-जन शिव-संगम करें, मानो जय-जय रव उच्चरें ||३२||
मंद पवन गंधोदक इष्ट, विविध कल्पतरु पुहुप सुवृष्ट |
देव करें विकसित दल सार, मानो द्विज-पंकति अवतार ||३३||
तुम तन-भामंडल जिन-चंद, सब दुतिवंत करत हैं मंद |
कोटि संख्य रवि-तेज छिपाय, शशि निर्मल निशि करे अछाय ||३४||
स्वर्ग-मोख-मारग संकेत, परम-धरम उपदेशन हेत |
दिव्य वचन तुम खिरें अगाध, सब भाषा-गर्भित हित-साध ||३५||
विकसित-सुवरन-कमल-दुति, नख-दुति मिलि चमकाहिं |
तुम पद पदवी जहँ धरो, तहँ सुर कमल रचाहिं ||३६||
ऐसी महिमा तुम-विषै, और धरे नहिं कोय |
सूरज में जो जोत है, नहिं तारा-गण होय ||३७||
मद-अवलिप्त-कपोल-मूल अलि-कुल झँकारें |
तिन सुन शब्द प्रचंड क्रोध उद्धत अति धारें ||
काल-वरन विकराल कालवत् सनमुख आवे |
ऐरावत सो प्रबल सकल जन भय उपजावे ||
देखि गयंद न भय करे, तुम पद-महिमा लीन |
विपति-रहित संपति-सहित, वरतैं भक्त अदीन ||३८||
अति मद-मत्त गयंद कुंभ-थल नखन विदारे |
मोती रक्त समेत डारि भूतल सिंगारे ||
बाँकी दाढ़ विशाल वदन में रसना लोले |
भीम भयानक रूप देख जन थरहर डोले ||
ऐसे मृग-पति पग-तले, जो नर आयो होय |
शरण गये तुम चरण की, बाधा करे न सोय ||३९||
प्रलय-पवनकरि उठी आग जो तास पटंतर |
वमे फुलिंग शिखा उतंग पर जले निरंतर ||
जगत् समस्त निगल्ल भस्म कर देगी मानो |
तड़-तड़ाट दव-अनल जोर चहुँ-दिशा उठानो ||
सो इक छिन में उपशमे, नाम-नीर तुम लेत |
होय सरोवर परिनमे, विकसित-कमल समेत ||४०||
कोकिल-कंठ-समान श्याम-तन क्रोध जलंता |
रक्त-नयन फुंकार मार विष-कण उगलंता ||
फण को ऊँचा करे वेगि ही सन्मुख धाया |
तव जन होय नि:शंक देख फणपति को आया ||
जो चाँपे निज पग-तले, व्यापे विष न लगार |
नाग-दमनि तुम नाम की, है जिनके आधार ||४१||
जिस रन माहिं भयानक रव कर रहे तुरंगम |
घन-सम गज गरजाहिं मत्त मानों गिरि-जंगम ||
अति-कोलाहल-माँहिं बात जहँ नाहिं सुनीजे |
राजन को परचंड देख बल धीरज छीजे ||
नाथ तिहारे नाम तें, अघ छिन माँहि पलाय |
ज्यों दिनकर परकाश तें, अंधकार विनशाय ||४२||
मारें जहाँ गयंद-कुंभ हथियार विदारे |
उमगे रुधिर-प्रवाह वेग जल-सम विस्तारे ||
होय तिरन असमर्थ महाजोधा बलपूरे |
तिस रन में जिन तोर भक्त जे हैं नर सूरे ||
दुर्जय अरिकुल जीतके, जय पावें निकलंक |
तुम पद-पंकज मन बसें, ते नर सदा निशंक ||४३||
नक्र चक्र मगरादि मच्छ-करि भय उपजावे |
जा में बड़वा अग्नि दाह तें नीर जलावे ||
पार न पावे जास थाह नहिं लहिये जाकी |
गरजे अतिगंभीर लहर की गिनति न ताकी ||
सुख सों तिरें समुद्र को, जे तुम गुन सुमिराहिं |
लोल-कलोलन के शिखर, पार यान ले जाहिं ||४४||
महा जलोदर रोग-भार पीड़ित नर जे हैं |
वात पित्त कफ कुष्ट आदि जो रोग गहे हैं ||
सोचत रहें उदास नाहिं जीवन की आशा |
अति घिनावनी देह धरें दुर्गंधि-निवासा ||
तुम पद-पंकज-धूल को, जो लावें निज-अंग |
ते नीरोग शरीर लहि, छिन में होंय अनंग ||४५||
पाँव कंठ तें जकड़ बाँध साँकल अतिभारी |
गाढ़ी बेड़ी पैर-माहिं जिन जाँघ विदारी ||
भूख-प्यास चिंता शरीर-दु:ख जे विललाने |
सरन नाहिं जिन कोय भूप के बंदीखाने ||
तुम सुमिरत स्वयमेव ही, बंधन सब खुल जाहिं |
छिन में ते संपति लहें, चिंता भय विनसाहिं ||४६||
महामत्त गजराज और मृगराज दवानल |
फणपति रण-परचंड नीर-निधि रोग महाबल ||
बंधन ये भय आठ डरपकर मानों नाशे |
तुम सुमिरत छिनमाहिं अभय थानक परकाशे ||
इस अपार-संसार में, शरन नाहिं प्रभु कोय |
या तें तुम पद-भक्त को, भक्ति सहार्इ होय ||४७||
यह गुनमाल विशाल नाथ! तुम गुनन सँवारी |
विविध-वर्णमय-पुहुप गूँथ मैं भक्ति विथारी ||
जे नर पहिरें कंठ भावना मन में भावें |
मानतुंग’-सम निजाधीन शिवलक्ष्मी पावें ||
भाषा-भक्तामर कियो, ‘हेमराज’ हित-हेत |
जे नर पढ़ें सुभाव-सों, ते पावें शिव-खेत ||४८||
।। Pandit Hemraj Ji Krit Bhaktamar Stotra Hindi Sampurnam।।
2. आचार्य श्री विमर्श सागर जी कृत भक्तामर स्तोत्र हिन्दी
आदिनाथ स्तोत्र महान – जो नर गाये रे।
घाति- अघाति-सब कर्म नशाये रे॥
आदिनाथ प्रभु गुण स्तवन -जो नर गाये रे
जीवन में उसके दु:ख ना रह पाये रे॥
भक्तामर नत मुकुट मणि, झिलमिल होती लड़ी-लड़ी।
ज्ञान ज्योति प्रगटी टूटे, पाप कर्म की कड़ी-कड़ी॥
भवसागर में गिरते जन, कर्मभूमि का प्रथम चरण।
आदिनाथ प्रभुवर जिनके, चरण युगल हैं आलम्बन॥
सम्यक् वन्दन कर मनवा हर्षाये रे॥ १॥
द्वादशांग का जो ज्ञाता, तत्त्वज्ञान पटु कहलाता।
मन-मोहक स्तुतियों से, सुरपति प्रभु के गुण गाता॥
त्रिभुवन चित्त लुभाऊँगा,मैं भी प्रभु गुण गाऊँगा।
आदिनाथ तीर्थेश प्रथम,निश्चय उनको ध्याऊँगा॥
प्रभु की भक्ति ही संकल्प जगाये रे॥ २॥
देव-सुरों से है पूजित, पादपीठ जो अतिशोभित।
तज लज्जा स्तुति गाने, तत्पर हूँ मैं बुद्धि रहित॥
चन्द्रबिम्ब जल में जैसे, अभी पकड़ता हूँ वैसे।
बालक ही सोचा करता, विज्ञ मनुज सोचे कैसे॥
बालक हूँ फिर भी मन तो उमगाये रे॥ ३॥
चंद्रकांति समगुण उज्ज्वल,कहने सुरपति में ना बल।
हे गुणसागर! कौन पुरुष, कहने को हो सके सबल॥
प्रलयकाल की वायु प्रचण्ड,नक्र-चक्र हों अति उद्दण्ड।
ऐसा सिंधु भुजाओं से, पार करेगा कौन घमण्ड॥
प्रभु तेरी भक्ति नौका बन जाये रे॥ ४॥
भक्ति भाव उर लाया हूँ, स्तुति करने आया हूँ।
शक्ति नहीं मुझ में फिर भी,शक्ति दिखाने आया हूँ॥
हिरणी वन को जाती है, सिंह सामने पाती है।
निज शिशु रक्षा हेतु मृगी, आगे लडऩे आती है॥
प्रीतिवश हिरणी कत्र्तव्य निभाये रे॥ ५॥
मैं अल्पज्ञ हूँ अकिंचन, हँसी करें प्रभु विद्वतजन।
करती है वाचाल मुझे भक्ति आपकी हे स्वामिन्॥
जब बसन्त ऋतु आती है,कोयल कुहु-कुहु गाती है।
सुन्दर आम्र मंजरी ही, तब कारण बन जाती है॥
प्रभु तेरी मूरत मेरे मन को भाये रे॥ ६॥
नाथ! आपके संस्तव से,भवि जीवों के भव-भव से।
बँधे हुए जो पापकर्म, क्षण भर में क्षय हों सबके॥
भँवरे जैसा तम काला-जग को अंधा कर डाला।
ऐसा तम रवि किरणों ने-आकर तुरंत मिटा डाला॥
प्रभु तेरी भक्ति अघकर्म मिटाये रे॥ ७॥
अल्पज्ञान की धारा है, स्तुति को स्वीकारा है।
चित्त हरे सत्पुरुषों का, नाथ! प्रभाव तुम्हारा है॥
नलिनी दल पर बिन्दु जल,लगता जैसे मुक्ताफल।
है प्रभाव नलिनीदल का,कांतिमान कब होता जल॥
नलिनीदल वा जल अपने में समाये रे॥ ८॥
दूर रहे प्रभु गुण स्तवन,दोष रहित जो अति पावन।
नाथ आपकी नाम कथा, पापों का करती खण्डन॥
दिनकर दूर रहा आये, क्षितिज लालिमा छा जाये।
सरोवरों में कमलों को, प्रभा प्रफुल्लित कर जाये॥
शुभनाम तेरा होंठो पे आये रे॥ ९॥
आदिनाथ स्तोत्र महान जो नर गाये रे।
जगन्नाथ! हे जगभूषण! जो भी प्राणी गाता गुण॥
इसमें क्या आश्चर्य प्रभो! होता है तुम सम तत्क्षण।
लाभ ही क्या उस स्वामी से, वैभवधारी नामी से।
निज सेवक को जो निजसम,करे नहीं अभिमानी से॥
तुझसा स्वामी ही सेवक को भाये रे॥ १०॥
अपलक रूप निहार रहा, दर्शनीय संतोष महा।
तुझसा देव न देवों में, रागद्वेष की खान कहा॥
क्षीरसिन्धु का मीठा जल,सुन्दर शशि सम कांति धवल।
पीकर, क्यों पानी चाहे, लवण सिन्धु का खारा जल॥
तुझ बिन प्रभु मुझको कोई और न भाये रे॥ ११॥
देख लिए हमने त्रिभुवन, तुझसा सुन्दर न भगवन्।
प्रशम कांतिमय अणुओं से, रचा गया प्रभु! तेरा तन॥
निश्चित वे अणु थे उतने, नाथ! देह में हैं जितने।
अन्य देव का, प्रभु! तुमसा,रूप कहाँ देखा किसने॥
तेरी छबि मेरे नयनों में समाये रे॥ १२॥
विजित अखिल उपमाधारी,सुरनर उरग नेत्रहारी।
कहाँ आपका मुखमण्डल,शोभा जिसकी अति प्यारी॥
कहाँ कलंकी वह राकेश,निष्प्रभ हो जब आये दिनेश।
ढाक पुष्प सम पाता क्लेश,न खुशबू न कांति विशेष॥
मनहर मुख की छबि कभी दूर न जाये रे॥ १३॥
शुभ्र कलाओं से शोभित, पूनम का शशि मन मोहित।
नाथ! आपके उज्ज्वल गुण, करें लोकत्रय उल्लंघित॥
नाथ! आप जिसके आधार, विचरें वे इच्छा अनुसार।
तीन लोक में रोक सके, है किसको इतना अधिकार॥
प्रभु तेरी शरणा भवपार लगाये रे॥ १४॥
स्वर्ग अप्सरायें आईं – नृत्यगान कर शर्माईं।
क्या आश्चर्य तनिक मन में, गर विकार न कर पाईं॥
प्रलयकाल की वायु चले, पर्वत, भू से आन मिले।
किन्तु सुमेरु शिखर भी क्या,प्रलय वायु से कभी हिले॥
प्रभु तेरे मन का कोई पार न पाये रे॥ १५॥
जिसमें धूम न बाती हो, तेल न जिसका साथी हो।
हे अखंड! हे अविनाशी! तीनों लोक प्रकाशी हो॥
प्रलय काल की वायु चले,मणिज्योति कब हिले-डुले।
जगत्प्रकाशी दीप अपूर्व,ज्ञान ज्योति भी नित्य जले॥
प्रभु तेरी ज्योति मेरा दीप जलाये रे॥ १६॥
नाथ! आपकी वो महिमा, सूरज की न कुछ गरिमा।
युगपत् लोक प्रकाशी हो, रवि रहता सहमा-सहमा॥
आप सूर्य सम अस्त नहीं राहू द्वार ग्रस्त नहीं।
मेघ तेज को छिपा सकें, ऐसा बंदोबस्त नहीं॥
प्रभु तेरी भक्ति मिथ्यात्व नशाये रे॥ १७॥
राहू कभी नहीं ग्रसता, कृष्ण मेघ से न दबता।
सदा उदित रहने वाला, मोह महातम को दलता॥
अहा! मुखकमल अतिअभिराम,अद्वितीय शशि बिम्ब लला।
लोकालोक प्रकाशी है, ज्ञान आपका हे गुणधाम॥
स्तुति प्रभु तेरी सम्यक्त्व जगाये रे॥ १८॥
मुखशशि का जब दर्श किया,नाथ! तिमिर द्वय नाथ दिया।
दिन में रवि से, रजनी में-शशि से नाथ! प्रयोजन क्या॥
धान्य पक चुका लगे ललाम,स्वर्णिम खेत हुए अभिराम।
जल को लादे झुके हुए, नाथ! बादलों का क्या काम॥
प्रभु आप जैसी हम फसल उगाये रे॥ १९॥
पूर्ण रूप से है विकसित, ज्ञान आप में ही शोभित।
हरि हरादि देवों में क्या, हो सकता जो नित्य क्षुभित॥
तेज महामणि में जैसा, नाथ! आप में भी वैसा॥
सूर्य किरण से जो दमके, काँच शकल में न वैसा।
केवलज्ञानी ही अज्ञान नशाये रे॥ २०॥
हरि-हरादि का भी दर्शन, मान रहा अच्छा भगवन्।
उन्हें देखकर अब तुझमें, हुआ पूर्ण संतोषित मन॥
प्रभु तेरे दर्शन से क्या? साथ चाहता मन तेरा।
इस भूमण्डल पर कोई, देव कभी-भी फिर मेरा॥
जन्मों-जन्मों में न चित्त लुभाये रे॥ २१॥
आदिनाथ स्तोत्र महान, जो नर गाये रे।
सौ-सौ नारी माँ बनतीं, सौ-सौ पुत्रों को जनतीं।
नाथ! आप सम तेजस्वी, पुत्र न कोई जन्म सकीं॥
नभ में अगणित तारागण, सभी दिशा करती धारण।
सूर्य उदित होता जिससे, पूर्व दिशा ही है कारण॥
माता मरूदेवी धन्य-धन्य कहाये रे॥ २२॥
सूरज सम तेजस्वी हो, परम पुमान यशस्वी हो।
मुनिजन कहते तमनाशक, निर्मल आप मनस्वी हो॥
नाथ! आपको जो पाते, मृत्युञ्जयी वो कहलाते।
किन्तु आप बिन शिवपथ का, मार्ग न कोई बतलाते॥
जो तुमको ध्याये तुम सम बन जाये रे॥ २३॥
आद्य! अचिन्त्य! असंख्य! अनंग ! अक्षय! कहें सन्त!
विदित योग! विभु! योगीश्वर! ब्रह्मा! कहते हे भगवन्त॥
कोई कहता ज्ञान स्वरूप, नाथ! आपको अमल अनूप।
कोई कहता एक! अनेक! अविनाशी! इत्यादिक रूप॥
नाना नामों से तेरी महिमा गाये रे॥ २४॥
अमर-पूज्य केवलज्ञानी, अत: बुद्ध हो हे ज्ञानी।
त्रिभुवन में सुखशान्ति रहे, अत: तुम्हीं शंकर ध्यानी॥
मोक्षमार्ग विधि बतलाते, अत: विधाता कहलाते।
व्यक्त किया पुरुषार्थ अत: पुरुषोत्तम जन-जन गाते॥
प्रभु तुमको ब्रह्मा, शंकर विष्णु बताये रे॥ २५॥
त्रिभुवन का दु:ख करें हरण, अत: आपको नमन-नमन।
क्षितितल के निर्मल भूषण, नाथ! आपको नमन-नमन॥
हे परमेश्वर त्रिजगशरण, सदा आपको नमन-नमन।
भववारिधि करते शोषण, अत: आपको नमन-नमन॥
प्रभु तेरा वन्दन, चन्दन बन जाए रे॥ २६॥
हे मुनीश! इन नाम सहित, गणधर सन्तों से अर्चित।
इसमें क्या आश्चर्य प्रभो!हुए सर्वगुण तव आश्रित॥
दोष स्वप्न में दूर अरे, अहंकार में चूर अरे।
आश्रय पा कामीजन में, इठलाते भरपूर अरे॥
इसमें क्या विस्मय, वो पास न आए रे॥ २७॥
शुभ अशोक तरू अति उन्नत,कंचन साभव तन शोभित।
अंधकार को चीर रहीं, उध्र्वमुखी किरणें विकसित॥
जैसे दिनकर आया हो, मेघों बीच समाया हो।
किरण जाल फैलाकर के, स्वर्णिम तेज दिखाया हो॥
सूरत के आगे सूरज शर्माये रे॥ २८॥
मणि किरणों से हुआ न्हवन, जगमग-जगमग सिंहासन।
नाथ! आपका कंचन सा, उस पर परमौदारिक तन॥
उदयाचल का तुंग शिखर, रश्मि लिए आया दिनकर।
ऐसा शोभित होता है, सिंहासन पर तन प्रभुवर॥
तन की यह आभा नजरों को बुलाये रे॥ २९॥
कुन्दपुष्प सम श्वेत चँवर, इन्द्र ढुराते हैं तन पर।
स्वर्णमयी काया प्रभुजी, लगती मनहर अतिसुन्दर॥
कनकाचल का तुंग शिखर, शुभ्र ज्योत्सना सा निर्झर।
झर-झर, झर-झर झरता हो, शोभित चौंसठ शुभ्र चँवर॥
प्रभु की सेवा में सुरलोक भी आये रे॥ ३०॥
है शशांक सम कांति प्रखर, तीन छत्र शोभित सिर पर।
मणि मुक्ता की आभा से, झिलमिल-झिलमिल हो झालर॥
रवि का दुद्र्धर प्रखर प्रताप, रोक दिया है अपने आप।
प्रगट कर रहे छत्रत्रय, त्रिभुवन के परमेश्वर आप॥
ईशान इन्द्र आकर महिमा दिखलाए रे॥ ३१॥
मधुर-गूढ़, उन्नत स्वर में, दुन्दुभि बजता नभपुर में।
दशों दिशाएँ गूँज रहीं, धूम मची है सुरपुर में॥
तीन लोक के भविजन को, बुला रहा सम्मेलन को।
धर्मराज की हो जय-जय, घोष करे रजनी-दिन को॥
तीनों लोकों में यश ध्वज फहराए रे॥ ३२॥
पारिजात सुन्दर मन्दार-सन्तानक, नमेरू सुखकार।
कल्पवृक्ष के ऊध्र्वमुखी-पुष्प अहा! गंधोदक धार॥
वर्षा नित होती रहती, मन्द पवन संग-संग बहती।
मानों दिव्य वचन माला, प्रभु की नभ से ही गिरती॥
प्रभु ऐसी शोभा कहीं नजर न आए रे॥ ३३॥
नाथ! आपका भामण्डल, शोभित जैसे सूर्य नवल।
जीत रहा है रजनी को, चंद्रकांति सम हो शीतल॥
त्रिभुवन चित्त लुभाते जो, कांतिमान कहलाते जो।
भामण्डल की आभा से, लज्जित हो शर्माते वो॥
भामण्डल भवि के, भव सात दिखाए रे॥ ३४॥
स्वर्ग-मोक्ष पथ बतलाती, सत्य धर्म के गुण गाती।
त्रिभुवन के भवि जीवों को, विशद अर्थ कर दिखलाती॥
नाथ! दिव्यध्वनि खिरती है, सदा अमंगल हरती है।
महा-लघु भाषाओं में, स्वयं परिणमन करती है॥
प्रभु की दिव्यध्वनि भवरोग मिटाए रे॥ ३५॥
नूतन विकसित स्वर्ण कमल, कांतिमान नख अतिनिर्मल।
फैल रही आभा जिनकी, सर्वदिशाओं में उज्ज्वल॥
आप गमन जब करते हैं, सहज कदम जब धरते हैं।
दो सौ पच्चिस स्वर्ण-कमल, विबुध चरणतल रचते हैं॥
नभ में प्रभु तेरा अतिशय दिखलाये रे॥ ३६॥
भूति न त्रिभुवन में ऐसी, धर्मदेशना में जैसी।
प्रातिहार्य वसु समवसरण, अन्य देव में न वैसी॥
अंधकार के हनकर की, जैसी आभा दिनकर की।
वैसी ही आभा कैसे, हो सकती तारागण की॥
तीर्थंकर जैसा ना पुण्य दिखाये रे॥ ३७॥
झर-झर झरता हो मदबल, जिसका चंचल गण्डस्थल।
भ्रमरों के परिगुंजन से, क्रोध बढ़ रहा खूब प्रबल॥
ऐरावत गज आ जाए-भक्त जरा न भय खाए।
नाथ! आपके आश्रय का, जन-जन यह अतिशय गाए॥
प्रभु की भक्ति से, भय भी टल जाए रे॥ ३८॥
चीर दिया गज गण्डस्थल, मस्तक से झरते उज्ज्वल।
रक्त सने मुक्ताओं से, हुआ सुशोभित अवनीतल॥
ऐसा सिंह महा विकराल, बँधे पाँव सा हो तत्काल।
नाथ! आपके चरणयुगल, आश्रय से हो भक्त निहाल॥
प्रभु तेरी भक्ति निर्भयता लाए रे॥ ३९॥
प्रलयकाल की चले बयार, मचा हुआ हो हाहाकार।
उज्ज्वल, ज्वलित फुलिंगों से, दावानल करती संहार॥
जपे नाम की जो माला, नाम मंत्र का जल डाला।
शीघ्र शमन हो दावानल, नाम बड़ा अचरज वाला॥
भक्ति ही ऐसा अचरज दिखलाए रे॥ ४०॥
लाल-लाल लोचनवाला, कंठ कोकिला सा काला।
जिह्वा लप-लप कर चलता, नाग महाविष फण वाला॥
नाम नागदमनी जिसके, हृदय बसी हो फिर उसके।
शंका की न बात कोई, साँप लाँघ जाता हँसके॥
भक्तों को विषधर न कभी डराए रे॥ ४१॥
उछल रहे हों जहाँ तुरंग, गजगर्जन हो सैन्य उमंग।
बलशाली राजा रण में, दिखा रहे हों अपना रंग॥
सूर्य किरण सेना लाता, तिमिर कहाँ फिर रह पाता।
नाम आपका जो जपता, रण में भी ध्वज फहराता॥
प्रभु के भक्तों को, कब कौन हराये रे॥ ४२॥
क्षत-विक्षत गज भालों से, हुआ सामना लालों से।
जल सम रक्त नदी जिसमें, तरणातुर वह सालों से॥
नाथ! जीतना हो दुर्जय, रण में होती शीघ्र विजय।
नाथ! पाद पंकज वन का, लिया जिन्होंने भी आश्रय॥
प्रभु के भक्तों को जय तिलक लगाए रे॥ ४३॥
मगरमच्छ एवं घडिय़ाल, भीमकाय मछली विकराल।
महाभयानक बडवानल, उठती हों लहरें उत्ताल॥
डगमग-डगमग हों जलयान, चीत्कार कर रहे पुमान।
नाम स्मरण से भगवन्, शीघ्र पहुँचते तट पर यान॥
प्रभु की भक्ति से संकट कट जाए रे॥ ४४॥
उपजा महा जलोधर भार, वक्र हुआ तन का आकार।
जीने की आशा छोड़ी, शोचनीय है दशा अपार॥
नाथ! चरण रज मिल जाए, रोग दशा भी ढल जाए।
सच कहता हूँ देह प्रभो! कामदेव सी खिल जाए॥
चरणों की रज भी औषधि बन जाए रे॥ ४५॥
सिर से पैरों तक बन्धन, जंजीरों से बाँधा तन।
हाथ-पैर, जंघाओं से, रक्त बह रहा रात और दिन॥
बंदीजन करलें शुभकाम, नाम मंत्र जप लें अविराम।
नाथ! आपकी भक्ति से, बन्धन भय पाता विश्राम॥
प्रभु की भक्ति से बन्धन खुल जाए रे॥ ४६॥
सर्प, दवानल, गज चिंघाड़, युद्ध, समुद्र व सिंह दहाड़।
नाथ! जलोदर हो चाहे, बन्धन का भय रहे प्रगाढ़॥
नाथ! आपका स्तुतिगान, करता है जो भी मतिमान।
भय भी भयाकुलित होकर, शीघ्र स्वयं होता गतिमान॥
प्रभु की भक्ति से भय भी भय खाये रे॥ ४७॥
गुण बगिया में आये हैं, अक्षर पुष्प खिलाए हैं।
विविध पुष्प चुन भक्ति से, स्तुतिमाल बनाए हैं॥
करे कण्ठ में जो धारण, मनुज रहे न साधारण।
मानतुंग सम मुक्ति श्री, आलिंगित हो बिन कारण॥
प्रभु गुण की महिमा निज गुण विकसाये रे॥ ४८॥
( विशिष्ट )
मानतुंग उपसर्गजयी, मानतुंग हैं कर्मजयी।
मानतुंग की अमरकृति, भक्तामर है कालजयी॥
मानतुंग की छाया है, मानतुंग सम ध्याया है।
भक्ति भाव से पद्य रचा, आदिनाथ गुण गाया है॥
भक्ति की शक्ति मानतुंग बताये रे॥ १॥
अशुभ छोड़ शुभ पाऊँगा, शुभ तज शुद्ध ही ध्याऊँगा।
कर निश्चय-व्यवहार स्तुति, सिद्धों सा सुख पाऊँगा॥
रहा विमर्श यही मन में, भक्ति सदा हो जीवन में।
गुरु विराग आशीष मिले, साँस रहे जब तक तन में॥
प्रभु तेरी भक्ति मुझे प्रभु बनाये रे॥ २॥
भक्तामर स्तोत्र (क्षु. श्री ध्यानसागरजी महाराज)
(तर्ज- भक्तअमर नत-मुकुट सुमणियों की….)
भक्त-सुरों के नत मुकुटों की, मणि-किरणों का किया विकास,
अतिशय विस्तृत पाप-तिमिर का किया जिन्होंने पूर्ण विनाश।
युगारंभ में भव-सागर में डूब रहे जन के आधार,
श्री-जिन के उन श्री-चरणों में वंदन करके भली प्रकार॥ 1॥
सकल-शास्त्र का मर्म समझ कर सुरपति हुए निपुण मतिमान्,
गुण-नायक के गुण-गायक हो, किया जिन्होंने प्रभु-गुण-गान।
त्रि-जग-मनोहर थीं वे स्तुतियाँ, थीं वे उत्तम भक्ति-प्रधान,
अब मैं भी करने वाला हूँ, उन्हीं प्रथम-जिन का गुण-गान॥ 2॥
ओ सुर-पूजित-चरण-पीठ-धर प्रभुवर! मैं हूँ बुद्धि-विहीन,
स्तुति करने चल पड़ा आपकी हूँ निर्लज्ज न तनिक प्रवीण।
जल में प्रतिबिम्बित चन्दा को बालक सचमुच चन्दा जान,
सहसा हाथ बढ़ाता आगे, ना दूजा कोई मतिमान्॥ 3॥
हे गुणसागर!शशि-सम सुन्दर तव शुचि गुण-गण का गुण-गान,
कोई कर न सके चाहे वह सुर-गुरु सा भी हो मतिमान्।
प्रलय-पवन से जहाँ कुपित हो घडिय़ालों का झुंड महान्,
उस सागर को कैसे कोई भुज-बल से तैरे बलवान्॥ 4॥
तो भी स्वामी! वह मैं हूँ जो तव स्तुति करने को तैयार,
मुझ में कोई शक्ति नहीं पर भक्ति-भाव का है संचार।
निज-बल को जाँचे बिन हिरणी निज शिशु की रक्षा के काज,
प्रबल स्नेह-वश डट जाती है आगे चाहे हो मृगराज॥ 5॥
मन्द-बुद्धि हूँ, विद्वानों का हास्य-पात्र भी हूँ मैं नाथ!
तो भी केवल भक्ति आपकी मुखर कर रही मुझे बलात्।
ऋतु वसंत में कोकिल कूके मधुर-मधुर होती आवाज,
आम्र वृक्ष पर बौरों के प्रिय गुच्छों में है उसका राज॥ 6॥
निशा-काल का अलि-सम काला जग में फैला तिमिर महान्,
प्रात: ज्यों रवि किरणों द्वारा शीघ्रतया करता प्रस्थान।
जनम-शृंखला से जीवों ने बाँधा है जो भीषण पाप,
क्षण भर में तव उत्तम स्तुति से कट जाता वह अपने आप॥ 7॥
इसीलिए मैं मन्द-बुद्धि भी करूँ नाथ! तव स्तुति प्रारंभ,
तव प्रभाव से चित्त हरेगी सत्पुरुषों का यह अविलंब।
है इसमें संदेह न कोई पत्र कमलिनी पर जिस भाँति,
संगति पाकर आ जाती है जल-कण में मोती-सी कान्ति॥ 8॥
दूर रहे स्तुति प्रभो! आपकी दोष-रहित गुण की भण्डार,
तीनों जग के पापों का तव चर्चा से हो बँटाढार।
दूर रहा दिनकर, पर उसकी अति बलशाली प्रभा विशाल,
विकसित कर देती कमलों को सरोवरों में प्रात:काल॥ 9॥
तीनों भुवनों के हे भूषण! और सभी जीवों के नाथ!!
है न अधिक अचरज इसमें जो सत्य-गुणों का लेकर साथ।
तव स्तुति गाता जिनपद पाता इसी धरा पर अपने आप,
जो न कर सके शरणागत को निज-समान उससे क्या लाभ?॥ 10॥
अपलक दर्शन-योग्य आपके, दर्शन पा दर्शक के नैन,
हो जाते सन्तुष्ट पूर्णत:, अन्य कहीं पाते ना चैन।
चन्द्र-किरण सा धवल मनोहर, क्षीर-सिन्धु का कर जल-पान,
खारे सागर के पानी का स्वाद कौन चाहे मतिमान्?॥ 11॥
हे त्रिभुवन के अतुल शिरोमणि! अतुल-शान्ति की कान्ति-प्रधान,
जिन अणुओं ने रचा आपको, सारे जग में शोभावान।
वे अणु भी बस उतने ही थे, तनिक अधिक ना था परिमाण,
क्योंकि धरा पर, रूप दूसरा, है न कहीं भी आप समान॥ 12॥
सुर-नर-नाग-कुमारों की भी आँखों को तव मुख से प्रीत,
जिसने जग की सारी सुन्दर-सुन्दर उपमाएँ ली हैं जीत।
और कहाँ चन्दा बेचारा जो नित धारण करे कलंक?
दिन में ढाक-पत्र सा निष्प्रभ, होकर लगता पूरा रंक॥ 13॥
पूर्ण-चन्द्र के कला-वृन्द सम धवल आपके गुण सब ओर,
व्याप्त हो रहे हैं इस जग में उनके यश का कहीं न छोर।
ठीक बात है जो त्रि-भुवन के स्वामी के स्वामी के दास,
मुक्त विचरते उन्हें रोकने कौन साहसी आता पास?॥ 14॥
यदि सुरांगनाएँ तव मन में नहीं ला सकीं तनिक विकार,
तो इसमें अचरज कैसा? प्रभु! स्वयं उन्हीं ने मानी हार।
गिरि को कंपित करने वाला प्रलयकाल का झंझावात,
कभी डिगा पाया क्या अब तक मेरु-शिखर को जग-विख्यात?॥ 15॥
प्रभो! आपमें धुँआ न बत्ती और तेल का भी ना पूर,
तो भी इस सारे त्रि-भुवन को आभा से करते भरपूर।
बुझा न सकती विकट हवाएँ जिनसे गिरि भी जाते काँप,
अत: जिनेश्वर! जगत-प्रकाशक अद्वितीय दीपक हैं आप॥ 16॥
अस्त आपका कभी न होता राहु बना सकता ना ग्रास,
एक साथ सहसा त्रि-भुवन में बिखरा देते आप प्रकाश।
छिपे न बादल के भीतर भी हे मुनीन्द्र! तव महाप्रताप,
अत: जगत में रवि से बढ़ कर महिमा के धारी हैं आप॥ 17॥
रहता है जो उदित हमेशा मोह-तिमिर को करता नष्ट,
जो न राहु के मुख में जाता बादल देते जिसे न कष्ट।
तेजस्वी-मुख-कमल आपका एक अनोखे चन्द्र समान,
करता हुआ प्रकाशित जग को शोभा पाता प्रभो! महान्॥ 18॥
विभो! आपके मुख-शशि से जब, अन्धकार का रहा न नाम,
दिन में दिनकर, निशि में शशि का, फिर इस जग में है क्या काम?
शालि-धान्य की पकी फसल से, शोभित धरती पर अभिराम,
जल-पूरित भारी मेघों का, रह जाता फिर कितना काम?॥ 19॥
ज्यों तुममें प्रभु शोभा पाता! जगत-प्रकाशक केवलज्ञान,
त्यों हरि-हर-आदिक प्रभुओं में, होता ज्ञान न आप समान।
ज्यों झिलमिल मणियों में पाता तेज स्वयं ही सहज निखार,
काँच-खंड में आ न सके वह हो रवि-किरणों का संचार॥ 20॥
हरि-हरादि को ही मैं सचमुच, उत्तम समझ रहा जिनराज!
जिन्हें देख कर हृदय आपमें, आनन्दित होता है आज।
नाथ! आपके दर्शन से क्या? जिसको पा लेने के बाद,
अगले भव में भी ना कोई मन भाता ना आता याद॥ 21॥
जनती हैं शत-शत माताएँ शत-शत बार पुत्र गुणवान्
पर तुम जैसे सुत की माता हुई न जग में अन्य महान्।
सर्व दिशाएँ धरे सर्वदा ग्रह – तारा – नक्षत्र अनेक,
पर प्रकाश के पुंज सूर्य को पूर्व दिशा ही जनती एक॥ 22॥
सभी मुनीश्वर यही मानते, परम – पुरुष हैं आप महान्,
और तिमिर के सन्मुख स्वामी! हैं उज्ज्वल आदित्य-समान।
एक आपको सम्यक् पाकर मृत्युंजय बनते वे संत,
नहीं दूसरा है कोई भी मोक्षपुरी का मंगल पंथ॥ 23॥
अव्यय, विभु, अचिन्त्य, संख्या से परे, आद्य-अरंहत महान्,
जग ब्रह्मा, ईश्वर, अनंत-गुण, मदन-विनाशक अग्नि-समान।
योगीश्वर, विख्यात-ध्यानधर, जिन! अनेक हो कर भी एक,
ज्ञान-स्वरूपी और अमल भी तुम्हें संत-जन कहते नेक॥ 24॥
तुम्हीं बुद्ध हो क्योंकि सुरों से, पूजित है तव केवलज्ञान,
तुम्हीं महेश्वर शंकर जग को, करते हो आनन्द प्रदान।
तुम्हीं धीर! हो ब्रह्मा आतम-हित की विधि का किया विधान,
तुम्हीं प्रगट पुरुषोत्तम भी हो हे भगवान्! अतिशय गुणवान॥ 25॥
दुखहर्ता हे नाथ! त्रि-जग के, नमन आपको करूँ सदैव,
वसुन्धरा के उज्ज्वल भूषण नमन आपको करूँ सदैव।
तीनों भुवनों के परमेश्वर, नमन आपको करूँ सदैव,
भव-सागर के शोषक हे जिन! नमन आपको करूँ सदैव॥ 26॥
इसमें क्या आश्चर्य मुनीश्वर! मिला न जब कोई आवास,
तब पाकर तव शरण सभी गुण, बने आपके सच्चे दास।
अपने-अपने विविध घरों में रहने का था जिन्हें घमंड,
कभी स्वप्न में भी तव दर्शन कर न सके वे दोष प्रचंड॥ 27॥
ऊँचे तरु अशोक के नीचे नाथ विराजे आभावान,
रूप आपका सबको भाता निर्विकार शोभा की खान।
ज्यों बादल के निकट सुहाता बिम्ब सूर्य का तेजोधाम,
प्रगट बिखरती किरणों वाला विस्तृत-तम-नाशक अभिराम॥ 28॥
मणि – किरणों से रंग – बिरंगे सिंहासन पर नि:संदेह,
अपनी दिव्य छटा बिखराती तव कंचन-सम पीली देह।
नभ में फैल रहा है जिसकी किरण-लताओं का विस्तार,
ऐसा रवि ही मानो प्रात: उदयाचल पर हो अविकार॥ 29॥
कुन्द-सुमन-सम धवल सुचंचल चौंसठ चँवरों से अभिराम,
कंचन जैसा तव सुन्दर तन बहुत सुहाता है गुणधाम।
चन्दा-सम उज्ज्वल झरनों की बहती धाराओं से युक्त,
मानों सुर-गिरि का कंचनमय ऊँचा तट हो दूषण-मुक्त॥ 30॥
दिव्य मोतियों के गुच्छों की रचना से अति शोभावान,
रवि-किरणों का घाम रोकता लगता शशि जैसा मनभान।
आप तीन जगत के प्रभुवर हैं, ऐसा जो करता विख्यात,
छत्र-त्रय-तव ऊपर रहकर शोभित होता है दिन-रात॥ 31॥
गूँज उठा है दिशा-भाग पा जिसकी ऊँची ध्वनि गंभीर,
जग में सबको हो सत्संगम इसमें जो पटु और अधीर।
कालजयी का जय-घोषक बन नभ में बजता दुन्दुभि-वाद्य,
यशोगान नित करे आपका जय-जय-जय तीर्थंकर आद्य॥ 32॥
पारिजात, मन्दार, नमेरू, सन्तानक हैं सुन्दर फूल,
जिनकी वर्षा नभ से होती, उत्तम, दिव्य तथा अनुकूल।
सुरभित जल-कण, पवन सहित शुभ, होता जिसका मंद प्रपात,
मानों तव वचनाली बरसे, सुमनाली बन कर जिन-नाथ!॥ 33॥
विभो! आपके जगमग-जगमग भामंडल की प्रभा विशाल,
त्रि-भुवन में सबकी आभा को लज्जित करती हुई त्रिकाल।
उज्ज्वलता में अन्तराल बिन अगणित उगते सूर्य-समान,
तो भी शशि-सम शीतल होती, हरे निशा का नाम-निशान॥ 34॥
स्वर्ग-लोक या मोक्ष-धाम के पथ के खोजी को जो इष्ट,
सच्चा धर्म-स्वरूप जगत को बतलाने में परम विशिष्ट।
प्रगट अर्थ-युत सब भाषामय परिवर्तन का लिए स्वभाव,
दिव्य आपकी वाणी खिरती समवसरण में महाप्रभाव॥ 35॥
खिले हुए नव स्वर्ण-कमल-दल जैसी सुखद कान्ति के धाम,
नख से चारों ओर बिखरतीं किरण-शिखाओं से अभिराम।
ऐसे चरण जहाँ पड़ते तव, वहाँ कमल दो सौ पच्चीस,
स्वयं देव रचते जाते हैं और झुकाते अपना शीश॥ 36॥
धर्म-देशना में तव वैभव इस प्रकार ज्यों हुआ अपार,
अन्य किसी के वैभव ने त्यों नहीं कहीं पाया विस्तार।
होती जैसी प्रखर प्रभा प्रभु! रवि की करती तम का नाश,
जगमग-जगमग करने पर भी कहाँ ग्रहों में वही प्रकाश?॥ 37॥
मद झरने से मटमैले हैं हिलते-डुलते जिसके गाल,
फिर मँडऱाते भौरों का स्वर सुन कर भडक़ा जो विकराल।
ऐरावत-सम ऊँचा पूरा आगे को बढ़ता गजराज,
नहीं डरा पाता उनको जो तव शरणागत हे जिनराज!॥ ३८॥
लहु से लथपथ गिरते उज्ज्वल गज-मुक्ता गज मस्तक फाड़,
बिखरा दिए धरा पर जिसने अहो! लगा कर एक दहाड़।
ऐसा सिंह न करता हमला होकर हमले को तैयार,
उस चपेट में आये नर पर, जिसे आपके पग आधार॥ ३९॥
प्रलय-काल की अग्नि सरीखी, ज्वालाओं वाली विकराल,
उचट रही जो चिनगारी बन, काल सरीखी जिसकी चाल।
सबके भक्षण की इच्छुक सी आगे बढ़ती वन की आग,
मात्र आपके नाम-नीर से वह पूरी बुझती नीराग!॥ ४०॥
कोकिल-कण्ठ सरीखा काला लाल-नेत्र वाला विकराल,
फणा उठा कर गुस्से में जो चलता टेढ़ी-मेढ़ी चाल।
आगे बढ़ते उस विषधर को वह करता पैरों से पार,
अहो! बेधडक़ जिसके हिय, तव नाम-नाग-दमनी विषहार॥ ४१॥
जहाँ हिनहिनाहट घोड़ों की जहाँ रहे हाथी चिंघाड़,
मची हुई है भीषण ध्वनि जो कानों को दे सकती फाड़।
वह सशक्त रिपु-नृप की सेना तव गुण-कीर्तन से तत्काल,
विघटित होती जैसे रवि से विघटित होता तम विकराल॥ ४२॥
भालों से हत गजराजों के लहु की सरिता में अविलंब,
भीतर – बाहर होने वाले योद्धा ला देते हैं कंप।
उस रण में तव पद-पंकज का होता है जिनको आधार,
विजय-पताका फहराते वे, दुर्जय-रिपु का कर संहार॥ ४३॥
जहाँ भयानक घडिय़ालों का झुंड कुपित है, जहाँ विशाल,
है पाठीन-मीन, भीतर फिर, भीषण बड़वानल विकराल।
ऐसे तूफानी सागर में लहरों पर जिनके जल-यान,
तव सुमिरन से भय तज कर वे, पाते अपना वांछित स्थान॥ ४४॥
हुआ जलोदर रोग भयंकर कमर झुकी दुख बढ़ा अपार,
दशा बनी दयनीय न आशा जीने की भी दिन दो-चार।
वे नर भी तव पद-पंकज की, धूलि-सुधा का पाकर योग,
हो जाते हैं कामदेव से रूपवान पूरे नीरोग॥ ४५॥
जकड़े हैं पूरे के पूरे, भारी साँकल से जो लोग,
बेड़ी से छिल गई पिण्डलियाँ, भीषण कष्ट रहे जो भोग।
सतत आपके नाम-मन्त्र का, सुमिरन करके वे तत्काल,
स्वयं छूट जाते बन्धन से, ना हो पाता बाँका बाल॥ ४६॥
पागल हाथी, सिंह, दवानल, नाग, युद्ध, सागर विकराल,
रोग जलोदर या बन्धन से प्रकट हुआ भय भी तत्काल।
स्वयं भाग जाता भय से उस भक्त-पुरुष का जो मतिमान्,
करता है इस स्तोत्रपाठ से, हे प्रभुवर! तव शुचि-गुण-गान॥ ४७॥
सूत्र बना गुण-वृन्द आपका, अक्षर रंग-बिरंगे फूल,
स्तुति-माला तैयार हुई यह भक्ति आपकी जिसका मूल।
मानतुंग जो मनुज इसे नित कंठ धरे उसको हे देव!
वरे नियम से जग में अतुलित मुक्ति रूप लक्ष्मी स्वयमेव॥ ४८॥
श्री भक्तामर स्त्रोत भाषा अनुवाद रवीन्द्र कुमार जैन
भक्तअमर नित करते स्तवन शीश झुका प्रभु चरणो मे
पाप कर्म के क्षय करने को जैसे उदित सूर्य नभ मे
स्तुति करता रिषव देव की हर्षित हेाकर के मन मे
भव समुद्र से पार करन को अवलम्बन हे भववन मे।।1।।
सकल ज्ञान मय तत्व बोध के ज्ञानी ज्ञाता योगी जन
आदि जिनेश्वर प्रभु को करते सुर नर बारम्बार नमन
प्रथम जिनेश्वर आदि प्रभु को मंद बुद्धि मे करू स्तवन
कर्म काट भव वन से छूटे ब्रम्ह स्वरूपी हो भगवन ।।2।।
पूज्यनीय हो देवो से प्र्रभु फिर भी भक्ति करन के काज
अल्प बुद्धि मे करू स्तुति जगजन की तज कर के लाज
देख चन्द्र प्रतिबिम्ब नीर मे चाहे उसको कोन पुमान
किन्तु शिशु ही पाना चाहे देख उसी को चन्द्र समान।।3।।
उज्जवल चन्द्र कान्ति सम दिखते वीतराग तुम आभावान
सुर नर नित ही करते रहते भक्ति सहित प्रभु के गुणगान
बुद्धि हीन होकर के फिर भी स्तुति करने को तैयार
तीव्र वेग के वात वलय मे कोन करेगा सागर पार ।।4।।
ज्ञान हीन मे शक्ति रहित हू स्तुति करने को तैयार
जैसे सन्मुख सिंह उपस्थित मृगी हुई बालक बश प्यार
तत्सम भक्ति करू आपकी शक्ति रहित भक्ति वाशात
क्या हिरणी नही आती सन्मुख निज शिशु प्राणोके रक्षार्थ ।।5।।
बुद्धि हीन हो करके प्रभु जी भक्ति करन का हे उत्साह
ज्ञानी जन गर हंसी करे तो मुझे नही उनकी परवाह
देख वसंत मे आम्र वौर को कोयल खूब चहकती है
आम्र वौर के कारण जैसे मीठे शब्द कुहकती है ।।6।।
जिनवर की भक्ति करने से पाप कर्म कट जाते है
सच्चे मन से भक्ति करते जनम सफल कर जाते है
मावस जैसा व्याप्त लोक मे गहन भयंकर तम का पाप
नभ मे रवि उदित होने से भग जाता हे अपने आप ।।7।
आदि प्रभु की भक्ति करन को मंद बुद्धि मे हूँ तैयार
तुम प्रभाव से पुरी होगी विद्वजनो का पाकर प्यार
कमलपत्र पर जल की बूंदे जैसी दिखती आभावान
साथ हुये की महिमा है यह बूंद नही होती गुणवान ।।8।।
जिनवर की स्तुति से कटते जनम जनम के संचित पाप
भगवन की महिमा सुन करके भग जाते अपने ही आप
अपनी किरणे फेक दिवाकर दूर रहा करता नभ मे
तिमिर नष्ट हो जाता हे और कमल खिला करते जलमे ।।9।।
तीन लोक के आभूषण प्रभु तुम ही हो जग के आधार
तुम गूण की महिमा जो गाते हो जाते हे भव से पार
नही अचरज हे भक्ति आपकी जो करता हे हे स्वामी
निज सम आप बना लेते है आश्रित जन को हे नामी ।।10।।
विना पलक के झपक लिये ही रूप आपका अति सुन्दर
अन्य किसी मे नही होता हे ऐसा हे मन के अन्दर
पूर्णमासी की किरणो जैसा पय जो मीठा पीते हे
खारा पानी पीने के हित क्या वह जीवन जीते है ।।11।।
तीन लोक मे अद्वितीय हो अपलक निरखे तुम्हे नयन
लीन हुये जग के परमाणु वीतराग को करू नमन
हे त्रिभुवन को जानन हारे आलोकिक हे तेरा ज्ञान
मुकुट सरीखे उध्र्व हुये हो तुम जैसा नही और महान ।।12।।
सुर नर अहिपति के मन हरता रूप आपका अति सुन्दर
ऐसी उपमा नही किसी मे तीनो लोको के अन्दर
पूनम का वह पुर्ण चन्द्रमा सूर्य सामने फीका जान
इसकी उपमा करे आपसे ऐसा सोचे कौन पुमान ।।13।।
कान्ति युक्त हो शशि कलामय विचरण करता है उन्मुक्त
तेरे गुण भी फैले रहते निज स्वभाव से होकर युक्त
जिनवर के आश्रित जन जग मे फैले रहते चारो ओर
कौन रेाक सकता हे उनको भक्ति करते भाव विभोर ।।14।।
देवलोक की कन्याये भी नही ला सकती तनिक विकार
नही अचरज हे इसमे होता कर न सका काम अधिकार
महा प्रलय की तेज पवन से पर्वत सब गिर जाते है
तीव्र पवन से शिखर मेरू तो कभी नही हिल पाते है ।।15।।
तीनो लोक झलकते जिसमे कान्ति स्वरूपी केवल ज्ञान
प्रलय काल की तीव्रवायु भी बुझा नही सकती गतिमान
दीप तुम्ही हो जग के उत्तम स्वपर प्रकाशक आतम ज्ञान
पाकर के तुमकिरणज्योति को कर लेते निज का कल्याण ।।16।।
हे कर्म जयी तुम अस्त न होते ढक सकता नही राहू कभी
रवि को ढक लेता हे बादल तुमसे पीछे रहे सभी
फीका होता रवि का वैभव होता जब प्रभु ज्ञान उजास
सुरज नभ मे उदित हुये से थोडी भू पर होय प्रकाश ।।17।।
प्रातः नभ मे रवि उदित से अन्धकार का करदे नाश
राहु नही ढक सकते उसको बादल रोके नही प्रकाश
तुम्हे प्रकट हो उत्तम सुन्दर शशिकान्ति सम केवलज्ञान
झलकत तीन लोक हे जिसमे अद्वितीय अतयंत महान ।।18।।
मुख अति सुन्दर लगे आपका मोह अन्ध का कर दे नाश
दिन मे रवि और रात चन्द्र का तव क्या हो उपयोग प्रकाश
पानी भर के पके धान्य पर नभ मे मेघ हुये घनघोर
मोह तिमिर के क्षय होन पर वाहय प्रकाश न करे विभोर ।।19।।
महा ज्ञान तेरा हे निर्मल सात तत्व नव द्रव्य उजेश
तुम जैसे नही दिखते जग मे अन्य देवता हे ज्ञानेश
महा मणि होती हे सुन्दर निज प्रकाश से आभावान
कांच खण्ड मे नही होती हे उज्ज्वल शोभा मणि समान ।।20।।
देख सरागी देव सभी को अब तक उत्तम माना था
वीतराग के दर्शन करके सत्य स्वरूप पहिचाना था
अपने अन्दर लखू आपको मन पंछी खिल जाता है
भव भव मे हो शरण आपकी यही भावना भाता है ।।21।।
शतक नारिया जनती रहती अपने पुत्रो को चहूँ और
लाल आपसा जनने बाली नारी नही हे कोई और
नभ मे उदित नक्षत्रतारो को धारण करती सभी दिशा
महा कान्ति युक्त तेज रवि को धारण करती पुर्व दिशा।।22।।
हे देवोत्तम तप के धारक ज्ञानी माने परम पुमान
आप समान अन्य न कोई मोक्ष मार्ग का देता ज्ञान
चलकर प्रभु के मुक्ति मार्ग पर निज स्वभाव मे आते हे
अष्ट कर्म को नष्ट किये फिर सिद्व महापद पाते हे ।।23।।
दिये बिशेषण ज्ञानी जन ने शिव शंकर आदि भगवंत
ब्रम्हा ईश्वर हे परमेश्वर रूद्र स्वरूप अनंतानंत
योगीश्वर भी कहे आपको एकानेक अनेको नाम
अविनाशी हे भव्य विधाता चरण आपके करू प्रणाम ।।24।।
पांचो ज्ञान झलकते जिनमे ऐसे बु़द्ध स्वरूपी हो
तीनो लोको के पथ दर्शक ऐसे शेकर रूपी हो
मोक्षमार्ग के तुम्ही प्रणेता कहे विधाता तुम्हे जिनेश
पुरूषो मे तुम प्रथम पुरूष हो ज्ञानी माने तुम्हे गणेश ।।25।।
पीडा हरते तीन लोक की प्रथम जिनेश्वर तुम्हे नमन
पृथ्वी तल के निर्मल भूषण रिषव जिनेश्वर तुम्हे नमन
तीन लोक के हे परमेश्वर करता बारम्बार नमन
भव सागर को शोषित करते आदि जिनेश्वर तुम्हे नमन ।।26।।
हे भक्तो के ईश्वर भगवन सद् गुण आश्रय पाते हे
तुमसे उत्तम अन्य न कोई जग मे हम लख पाते हे
दोषी जन मे दोष समाये तुम निर्मल हो निश्चय मान
स्वपन मात्र मे दोष न दिखता आत्म स्वरूपी हे भगवान ।।27।।
तरू अशोक हे उॅचा सुन्दर समवशरण मे शोभावान
सिहाँसन पर आप विराजे उलसितरूप हे स्वर्ण समान
नभ मे काले मेघ मध्य मे दिनकर दमकत आभावान
शोभित होते सिंहासन पर समवशरण मे हे भगवान ।।28।।
उदयाचल के उदित सूर्य से तृप्त हुये भविजन के मन
मणि मुक्ताओ से सज्जित हे स्वर्ण स्वरूपी सिहांसन
साने जैसे रंग से शोभित उस पर तुम कमनीय वदन
उदित हुये सूरज सम लगता बीतराग का सिहांसन ।।29।।
अमरो द्वारा प्रभु के उपर ढोरे जाते श्वेत चमर
सोने जैसी तन की कान्ति पूजे प्रभु को नित्य अमर
मेरूशिखर पर जैसे गिरती निर्मल स्वच्छ श्वेत जलधार
ऐसे श्वेत चमर हे दिखते जिनकी शोभा अपरम्पार।।30।।
तीन छत्र सिर शोभित सुन्दर मणि मुक्ताओ से परिपूर्ण
शशिकान्ति सम लगते उज्जवल कर्म कालिमा कर दे चूर्ण
तीन लोक के स्वामी पन को सबसे प्रगट करे अभिराम
ऐसी शोभा सुन्दर जिनकी सुर नर जिनको करे प्रणाम ।।31।।
चहूँ दिशाये गूंज रही हे जैन धर्म की जय जय कार
सत्य धर्म को प्रगट करे जो जैन धर्म हे एकाकार
जैन धर्म का यश फहराते तत्वो का होता गुणगान
नभ मे सुर द्वंदभी बजाते ऐसे हे जिनदेव महान ।।32।।
मन्द पवन से नभ के द्वारा वारि सुगंधित झरता हे
पुष्प मनोहर कल्प बृक्ष के दृश्य मनो को हरता है
पारिजात सुन्दर संजातक हे मंदार नमेय सुन्दर
पंक्ति सम सुन्दर लगते हे जैसे पक्षी रहे विचर।।33।।
रवि की सुषमा के सम सुन्दर उज्जवल दिखता आभावान
चन्द्रकान्ति जिसमे अंकित हो अक्षय भामण्डल गुण खान
जिसके सन्मुख स्मित होती तीन लोक की महिमा जान
फीके पडते सकल पदारथ ऐसा भामण्डल हे महान ।।34।।
पुण्य पाप और रत्नात्रय का भविजन को देती उपदेश
सात तत्व अनेकांत सिखाती ओंकार मय ध्वनि विशेष
दिव्य ध्वनि जिनवर की होती गुण पर्यय सब जाने ज्ञान
भाषा अपनी मे सब समझे करते हे निज का कल्याण ।।35।।
भव्य जनो के भाग्य उदय से जिनवर का जब होय गमन
देव बिछाते हे कमलो को स्वर्ण कान्ति सम लगे सुमन
कोष चार सीमा है जिसकी ऐसे कमल उगाते देव
भक्तिबश होकरके भवि सुर अतिशय युक्त करे नित सेव।।36।।
समवशरण सम और न सुन्दर धर्म देशना वैभव वान
ऐसा वैभव कही न दिखता बतलाते हे सभी प्रमान
दिनकर की आभा को देखो अन्धनाश कर करे प्रकाश
वैसी क्या नक्षत्र प्रकीर्णक कर सकते है कभी उजास।।37।।
लाल लाल आँखे हो जिसकी क्रोध अग्नि मे हो उन्मत्त
ऐरावत सम भीम काय हो मद मे होकर के मद मस्त
गज ऐसा उदण्ड भयंकर तव आश्रित सन मुख आवे
देख सामने ऐसे गज को भक्त कभी न भय खावे ।।38।।
क्रोध अग्नि मे तप्त हुआ हो छत विछत करदे गज भाल
भीम समान करे गर्जना क्रोधित सिंह हुआ विकराल
सन्मुख ऐसे सिंह के आते हो जाते हे होश विहीन
ऐसे जन का कुछ न विगडे जो जिनेन्द्र भक्ति मे लीन ।।39।।
प्रलय सरूपी महा अग्नि जो करदे पल मे सब कुछ नाश
ज्वाला मुखि सी दिखे भयंकर मानो जग का करे विनाश
जिन भक्ति के निर्मल जल को जो जन रखते अपने पास
नही विगडता कुछ भी उनका निज मे होवे ज्ञान प्रकाश ।।40।।
अहि जो काला दिखे भयंकर उन्नत फन करके विकराल
लाल लाल आँखे हे जिसकी दिखने मे जो हो विकराल
नित प्रति करते जो जन भक्ति मन मे डर नही लाते है
विन शंका के वह सब प्राणी अहि सम कर्म खिपाते है ।।41।।
महा समर की रण भुमि मे गूंजे शब्द महा भयवान
महा पराक्रम धारि नृप भी रण वांकुर होवे वलवान
जो जन भक्ति करे आपकी वह होते रण मे जयवंत
जैसे नभ मे उदित सूर्य से अंधकार का होवे अंत ।।42।।
खूनी नदिया वहे भयंकर गज के कटते उन्नत भाल
शत्रु पक्ष के याद्धा जिसमे तैरे दिखे महा विकराल
करे पराजित क्षण मे उनको चरण कमल रज पाते हे
जिन भक्ति पर जो है आश्रित कर्मकाट शिव जाते हे।।43।।
महा भयंकर सिंधु हे जिसमे मगर मच्छ होवे विकराल
अग्नि जैसी चंचल लहरे उस पर होवे पोत विशाल
चले भयंकर पवन वेग से भय पावे उसमे असवार
तुम भक्ति को भविजन गाकर हेा जाते हे सागर पार।।44।।
महा जलोदर पीडित प्राणी दुःखी दशा दर्शाती है
ऐसे पीडित प्राणी जन को चिंता मृत्यु सताती है
जो जन तेरे पद पंकज की रज को शीश लगाते है
कामदेव सम सुन्दर तन को निश्चित ही पा जाते है।।45।।
पुरे तन पर पडी वेडिया सांकल बांधी हे कस कर
अग्र भाग की रगड जगे से धार लगी हे लहु वहकर
मंत्र मुग्ध एकाग्र चित्त से जो जन नाम जपे तेरा
बंधन सब खुल जाबे निश्चित इस जग मे न हो फेरा ।।46।।
पवन युद्ध सिंह वन अग्नि से सांप सिंधु जलोदर आदि
भयकारी अति तीव्र भयंकर उपजे नही कोई भी व्याधि
पाठ करे नित जो जन इसका भव सागर तर जाता है
तत्व अभ्यासी स्वाध्याय सह मुक्ति वधु वर जाता है।।47।।
भक्तिमय अति भक्ति भाव से प्रभु गुण सुमन पिरोये है
विविध वर्ण के पुष्प लगा कर भक्ति मयी संजोये है
श्रद्धा पूर्वक जो जन पढता मन भक्ति मे लगाता है
मान तुंग सम कर्म काट कर मोक्ष लक्ष्मी पाता है ।।48।।
भक्तामर स्तोत्र : पद्यानुवाद
(आशुकवि : शर्मनलाल सरस सरकार )
जो भक्त सुरों के मुकुटों की, मणियों की कान्ति बढ़ाते हैं।
जिनकी आभा से धरती के, कण-कण ज्योतित हो जाते हैं॥
जिनके पग पाप-तिमिर हरते, भव तरने जो आलम्बन हैं।
उन आदि-काल के आदि प्रभु, आदिश्वर का शत वन्दन है॥ 1॥
जो सकल वाङ्मय के ज्ञाता, प्रज्ञा का पार न पाया है।
ऐसे सुर इन्द्रों ने जिनका, स्तोत्रों से गुण गाया है॥
मैं भी त्रय जगत चित्त हारी, उन आदिनाथ को ध्याता हूँ।
प्रस्तुत कर पुण्य स्तवन से, मैं अपना भाग्य जगाता हूँ॥ 2॥
हैं इन्द्र सुरेन्द्रों से पूजित, जब जिनकी पावन पाद-पीठ।
फिर मेरी क्या औकात भला! मैं हूँ अबोध अल्पज्ञ ढ़ीठ॥
तो भी लज्जा को छोड़ नाथ! तैयार उसी विधि गाने को।
जैसे पानी में प्रतिबिम्बित उद्धत हो, शिशु शशि पाने को॥ 3॥
यह सच जिनके जब गुण अनंत, वृहस्पति-सा गुरु गा सका नहीं।
जो चाँद पूर्णिमा से पावन, वह कुछ भी दर्शा सका नहीं॥
तो फिर किसकी ऐसी हस्ती, जो पूर्ण आपके गुण गाये।
प्रिय प्रलयकाल से उद्वेलित, सागर के कौन पार पाये॥ 4॥
तो भी मैं भक्ति प्रेरणा से, स्तवन करने ललचाता हूँ।
होकर के शक्तिहीन भगवन्, मैं वैसे कदम बढ़ाता हूँ॥
जैसे हिरनी ममता के बस, कुछ सोच विचार न करती है।
हो निर्बल शिशु छुड़ाने को, खुद सिंह सामना करती है॥ 5॥
माना उपहास पात्र अब मैं, विज्ञों में माना जाऊँगा।
पर नाथ आपकी भक्ति ही, ऐसी जो छोड़ न पाऊँगा॥
जैसे वसंत ऋतु आम मौर लख, कोयल कूक मचाती है।
बस उसी तरह से तुम्हें देख, मन में उमंग आ जाती है॥ 6॥
क्या करूँ आपकी विनय अहो, प्रभु कितनी अतिशयकारी है।
जग के जीवों की भव-भव की, वह पाप रूप परिहारी है॥
हे नाथ! आपकी भक्ति से, संकट वैसे हट जाता है।
ज्यों प्रात सूर्य की किरणों से, तत्काल तिमिर छट जाता है॥ 7॥
अतएव मंद मति होकर भी, कर रहा शुरु स्तवन विभु।
कारण तेरे गुण का प्रभाव, वैसे सज्जन मन हरे प्रभु॥
ज्यों नाथ! कमल के पत्तों पर, जब ओस बूँद पड़ जाती है।
तब वह मोती का रूप धार, जग मोहित कर हर्षाती है॥ 8॥
निर्दोष स्तवन बहुत दूर, पर एक मात्र जो नाम जपे।
सच कहता हूँ तत्काल प्रभु, सारी जगती के पाप कटे॥
जिस तरह दूर से ही दिनेश, निज प्रभा इस तरह फैलाता।
कितना ही दूर सरोवर हो, खिल कमल फूल तत्क्षण जाता॥ 9॥
हे भुवन विभूषण भूतनाथ! जो भव्य आपको ध्याते हैं।
वे भक्त-भक्त से ध्यानी बन, भगवान् स्वयं बन जाते हैं॥
लेकिन इससे अचरज ही क्या, अचरज जिससे बढ़ सके नहीं।
वह स्वामी क्या जो सेवक को, अपने समान कर सके नहीं॥ 10॥
जो एक बार टकटकी लगा, भगवान् तुम्हें लख लेता है।
वह तुम्हें छोड़ अन्यत्र देव, लख कर भी नाम न लेता है॥
सच है जिसने क्षीरोदधि का, मीठा पावन जल चाखा हो।
फिर उसको खारे सागर के, जल की कैसे अभिलाषा हो॥ 11॥
लगता त्रिभुवन के अलंकार, जिस क्षण तेरा अवतार हुआ।
वे उतने ही परमाणु थे, जिनसे यह तन तैयार हुआ॥
इसलिए आप जैसा प्रशांत, जिसका विरागता से नाता।
लाखों देवों को देख चुका, पर तुम सा देव नहीं पाता॥ १२॥
क्या कहें आपका यह आनन, कितना आनंद प्रदाता है।
वह सुर-नर-असुर कोई भी हो, हर नयनों को हर्षाता है॥
कैसे कह दूँ शशि ढाकपात-सा दिन में तेज गमाता है।
वह तुम जैसा कब हो सकता, जिस पर कालापन छाता है॥ १३॥
हे नाथ! आपने सचमुच में, ऐसे सुन्दर गुण पाये हैं।
पूनम की चाँद कला जैसे, जो तीन लोक में छाये हैं॥
कारण उनको जब तुम जैसा, मिल गया महाबल वाला है।
विचरण से उन्हें लोक भर में, फिर कौन रोकने वाला है॥ १४॥
इसमें क्या अचरज नाथ आप हो, अटल अचल संयम धारी।
इसलिए स्वर्ग की हर देवी, हर तरह रिझा करके हारी॥
सच प्रबल पवन के झोकों से, कितने ही गिरी गिर जाते हैं।
लेकिन सुमेरुगिरि शिखर कभी तूफान हिला भी पाते हैं?॥ १५॥
तुम ऐसे तीन भुवन दीपक, निर्धूम वर्तिका काम नहीं।
तुम बिना तेल के जलते हो, बुझने का लेते नाम नहीं॥
चाहे जैसी हो प्रलय पवन, कर सके प्रभंजन मंद नहीं।
हे परम ज्योति प्रख्यात शिखा, कोई तुमसा निद्र्वन्द नहीं॥ १६॥
हे नाथ! तुम्हें क्यों सूर्य कहें, तुम उससे काफी आगे हो।
तुम अस्त न हो, राहू न ग्रसे, बादल लख कभी न भागे हो॥
तेरा प्रभाव त्रय लोकों में, इक साथ रोशनी लाता है।
लेकिन सूरज सीमित थल तक, अपना प्रकाश फैलाता है॥ १७॥
हे नाथ! आपका मुख-शशि तो, मोहांधकार का हर्ता है।
चाहे दिन हो या रात नाथ, उसमें कुछ फर्क न पड़ता है॥
फिर कैसे हो वह चन्द्र सदृश, जो सहसा लुप्त नजर आये।
जिसको राहु अहि-सा डस ले, मेघों से क्षण में घिर जाये॥ १८॥
हे प्रभु! आपके मुख सन्मुख रवि शशि रखता कुछ अर्थ नहीं।
वह बाहर का तम हरे भले, अन्तस तम हरे समर्थ नहीं॥
जिस तरह फसल पक जाने पर, पानी बरसे अस्तित्व नहीं।
बस उसी तरह इन दोनों का, तेरे ढिग़ नाथ महत्त्व नहीं॥ १९॥
स्व-पर प्रकाश की ज्ञान ज्योति, जिस तरह आपने पाई है।
वैसी ही हरिहरादि सुर में, प्रभु देती नहीं दिखाई है॥
इसलिए आपका आकर्षण, करता उन सबको थोता है।
सच है जो तेज रत्न में हो, क्या कभी काँच में होता है?॥ २०॥
अच्छा ही हुआ नाथ मैंने, जो अन्य देवगण को देखा।
उनके कारण से ही भगवन्, स्पष्ट हुई अन्तर रेखा॥
हे नाथ! अन्य अवलोकन की, अब मुझको क्या आवश्यकता।
लूँ कितने ही मैं जन्म धार, मन अन्य न कोई हर सकता॥ २१॥
जग में जाने कितनी जननी, जन्मा करती हैं पुत्र अनेक।
लेकिन तुमसा सुत जन्म सकी, जग में मरुदेवी मात्र एक॥
जैसे दिनेश की किरणों को, हर एक दिशाओं ने धारा।
पर सूर्य उदय हो एक मात्र, बस पूर्व दिशा के ही द्वारा॥ २२॥
हे मुनीनाथ! मुनिगण तुमको, सूरज से तेज बताते हैं।
वे बना तुम्हें अपना निमित्त, खुद कालजयी हो जाते हैं॥
तेरा अविलम्बन आलम्बन, शिवपुर का परम प्रदाता है।
इससे बढक़र कल्याण मार्ग, कोई भी नजर न आता है॥ २३॥
हैं नाम आपके प्रभु अनेक, चिर अजर-अमर पद पाया है।
हे स्वामी गणधर आदि ने, अव्यय असंख्य बतलाया है॥
हे देवोपम तुम आदि देव, या ब्रह्मा विष्णु विधाता हो।
तुम योगीश्वर हो कामकेतु, नवयुग शिल्पी शिवदाता हो॥ २४॥
सुर-बुध पूजित हैं आप बुद्धि, इसलिए सर्व प्रथम आप बुद्ध।
हो सच्चे सुख दाता शंकर, सर्वज्ञ शान्ति करता प्रसिद्ध॥
कहलाते तुम कैलाशपति, तप किया वहाँ से शिव पाया।
सृष्टी कर्ता प्रिय पुरुषोत्तम, तुमने बन करके बतलाया॥ २५॥
हे हर जीवों के दु:ख हर्ता, करता हूँ नाथ प्रणाम तुम्हें।
हे जग के अजर-अमर भूषण, मैं करूँ नमन अभिराम तुम्हें॥
हे निष्कामी निष्पृही नाथ! नमता गा-गाकर गान तुम्हें।
भव-सिन्धु सुखाने वाले प्रभु! करुणानिधि कोटि प्रणाम तुम्हें॥ २६॥
इसमें कोई सन्देह नहीं, सम्पूर्ण गुणों की आप डोर।
हे नाथ आपको छोड़ शुद्ध, मिल सका न कोई और ठौर॥
जो अन्य देवताओं को पा, रागादि भाव दर्शाते हैं।
वे तुम तक आने का भगवन्, साहस ही कब कर पाते हैं॥ २७॥
जब ऊँचे तरु अशोक नीचे, हे नाथ आप दिखलाते हो।
कैसे उतार दूँ शब्दों में, जो शोभा आप बढ़ाते हो॥
ज्यों श्यामल सघन बादलों में, रवि अपनी छटा दिखाता है।
उस सूरज से सौ गुना आपकी, तन सुषमा दर्शाता है॥ २८॥
हीरा-पन्ना नीलम आदि, रत्नों से सज्जित सिंहासन।
जब आप तिष्ठते हो उस पर, ऐसा लगने लगता आनन॥
माणिक मुक्ता की आभा ने, सचमुच में चक्कर खाया हो।
या उदयाचल पर सहस्र किरण, वाला सूरज उग आया हो॥ २९॥
जब चौंसठ चमर इन्द्र ढ़ोरें, छवि समवसरण बढ़ जाती है।
तव कुन्द पुष्प-सी धवल देह, लख सुषमा धरा लजाती है॥
लगता जैसे सुमेरुगिरि पर, गिर जल प्रपात की धारा हो।
या चन्द्र ज्योत्स्ना ने अपना, साकार रूप विस्तारा हो॥ ३०॥
हे ईश! आपके शीर्ष तीन, जो लटके छत्र दिखाते हैं।
उनकी शशि सम कान्ति जिन पर, रवि धूप न फैला पाते हैं॥
त्रय छत्रों की वह चमक-दमक, जिसको लख स्वर्ण लजाता है।
उसका ऐश्वर्य त्रिलोकपति, होने की बात बताता है॥ ३१॥
दिग्मंडल में जब दिव्यध्वनि, भगवान् आपकी खिरती है।
उसको सुनकर के पता नहीं, तब कितनों की ऋतु फिरती है॥
लगता ज्यों संत समागम का, नभ में बज रहा नगाड़ा हो।
या गूँज गगन में जिनमत की, हो रही सुरों के द्वारा हो॥ ३२॥
जब जल गंधोदक बूँदों से, सुरभित हो बह उठती समीर।
तब समवसरण में कल्पवृक्ष हों, स्वागत करने को अधीर॥
तब देव गगन में प्रमुदित हो, इतने प्रसून बरसाते हैं।
लगता वे प्रसून नहीं दव्यिध्वनि-सी ध्वनि उनमें हम पाते हैं॥ ३३॥
क्या कहें आपकी दिव्य देह से, दीप्त जन्म जब लेती है।
तब वह भामंडल बन जग को, दैदीप्यमान कर देती है॥
त्रय लोकों में जितने पदार्थ, चमकीले हमें दिखाते हैं।
उस समय आपकी आभा से, वे सब फीके पड़ जाते हैं॥ ३४॥
हे नाथ! आपकी ध्वनि, स्वर्ग शिव मार्ग बताने वाली है।
अपनी-अपनी भाषाओं में, परिणमन कराने वाली है॥
प्रिय दिव्यध्वनि में सप्त तत्त्व, हो नव पदार्थ परिभाषा है।
जो इनको आत्मसात कर ले, हो उसकी पूर्ण पिपासा है॥ ३५॥
हे नाथ! आपके युगल-चरण, हैं स्वर्ण-सरोजों से सुन्दर।
चरणों के नख यों कान्तिमान, जिस जगह पैर पड़ते भू पर॥
उस पल विहार की बेला में, पग जिनवर जहाँ बढ़ाते हैं।
पहले से ही सुर वहाँ-वहाँ, सोने के कमल रचाते हैं॥ ३६॥
इस विधि धर्मोपदेश में प्रभु, जो आप विभूति बताई है।
वैसी ही अन्य धर्म वालों के, संग में नहीं दिखाई है॥
सच है जो ज्योति भुवन भू पर, इक मार्तण्ड की पाते हैं।
वैसी करोड़ नक्षत्र कभी, इक साथ नहीं कर पाते हैं॥ ३७॥
प्रभु जिसके युगल कपोलों पर, मधु मद के झरने-झरते हों।
जिस पर मडऱाकर के मधुकर, गुनगुन कोलाहल करते हों॥
ऐसा ऐरावत-सा कुंजर, क्रोधित जब टकरा जाता है।
तब नाथ! आपका परम भक्त, उससे न जरा भय खाता है॥ ३८॥
अपने नाखूनों से जिसने, गज के मस्तक को फाड़ा हो।
गज मुक्ताओं से धरा सजा, बनकर विकराल दहाड़ा हो॥
ऐसे बर्बर के पंजे में, जिन भक्त कदाचित पड़ जाये।
वह सिंह क्रूरता भूल तभी, अरि से स्नेही दिखलाये॥ ३९॥
हो कैसे भी पावक प्रचण्ड, वन प्रलय-पवन धधकाती हो।
लगता हो जैसे अभी-अभी, वह आसमान छू जाती हो॥
ऐसे दावानल वेग समय, जो नाथ आपको ध्याता है।
तत्काल आपका नाम-नीर, पावक को नीर बनाता है॥ ४०॥
कोयल के कण्ठ समान कुपित, कैसा भी नाग कराला हो।
दिखला कर लाल-लाल लोचन, फण फैला डसने वाला हो॥
तब तेरी नाम नाग दमनी, औषधि समीप जो रखते हैं।
उनका कैसे भी विषधर हों, कुछ अहित नहीं कर सकते हैं॥ ४१॥
अगणित तुरंग हिन-हिना रहे, गज भी चिंघाड़ मचाता हो।
उस समय समर की धूली में, दिनकर भी नहीं दिखाता हो॥
तब नाथ! आपके ही बल पर, लड़ रिपु दल यों हट जाता है।
ज्यों सूर्योदय के होते ही, तम-तोम स्वयं छट जाता है॥ ४२॥
घातक शस्त्रों से क्षत-विक्षत, गज शोणित दरिया बहता हो।
उसमें तेजी से उतर तैरने को हर योद्धा कहता हो॥
तब उस भीषण रण बीच भक्त रिपुओं को वही हराता है।
जो नाथ! आपके शान्त और शीतल पग पंकज ध्याता है॥ ४३॥
कैसा भी होवे मगर-मच्छ, पड़ घडिय़ालों से पाला हो।
पावक ने सारा सागर जल, बड़वानल सा कर डाला हो॥
उस उथल-पुथल तूफां में वे, अपना जलयान बचाते हैं।
जो नाथ! आपका दृढ़ होकर, क्षण भर भी ध्यान लगाते हैं॥ ४४॥
भव-रोग निवारक सर्वश्रेष्ठ, प्रभु तुमसा वैद्य नहीं कोई।
हो महा जलोदर आदि रोग, बचने की आस नहीं होई॥
ऐसे रोगी तेरे पद की, जो तन पर धूल लगाते हैं।
वे निश्चित ही होकर निरोग प्रभु कामदेव बन जाते हैं॥ ४५॥
जब नाथ! आपके वन्दन से, कर्मों की कडिय़ाँ कटती हैं।
तब लोह शृंखलाएँ कब तक, भक्तों का तन कस सकती हैं?
जिसका तन नख से चोटी तक, हो कसा छिली जंघायें हों।
प्रभु नाम लिए अब वे टूटीं, फिर पूर्ण न क्यों आशायें हों॥ ४६॥
जो श्रद्धावान भक्त इसका, पारायण कर हर्षाता है।
अनवरत अटल तन्मय होकर, जो सुनता और सुनाता है॥
उसको गज, सिंह, अहि, अग्नि, रण में रिपु हरा न पाते हैं।
रहता है कोई रोग नहीं, वे मनवाँछित फल पाते हैं॥ ४७॥
भक्तामर की यह वर्ण-माल, जो मानतुंग ने गूँथी है।
सचमुच सर्वोत्तम फलकारी, हे भव्यो इतनी ऊँची है॥
कह सरस जैन सकरार, इसे दृढ़ हो जो धारण करता है।
वह मानतुंग आचारज सा चिर मुक्ति-लक्ष्मी वरता है॥ ४८॥
FAQ (अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न )
प्रश्न 1 : भक्तामर स्तोत्र कब पढ़ना चाहिए ?
उत्तर 1 : भक्तामर स्तोत्र पढ़ने का समय सूर्योदय का सबसे उत्तम है।
प्रश्न 2 : क्या हम रात में भक्तामर सुन सकते है ?
उत्तर 2 : वैसे तो भक्तामर स्तोत्र का पाठ सुबह 4 बजे से 6 बजे के बीच ज्यादि सिद्धिकारक माना गया है। मगर आप शुद्ध अवस्था को धारण कर किसी भी समय पढ़ व सुन सकते है।
प्रश्न 3 : भक्तामर स्तोत्र में कितने श्लोक है ?
उत्तर 3 : भक्तामर स्तोत्र में दिगम्बर परम्परा के अनुसार ४८ छंद एवं श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार ४४ छंद माने गए है।
प्रश्न 4 : भक्तामर स्तोत्र का दूसरा नाम क्या है ?
उत्तर 4 : मूलतः इस स्तोत्र का दूसरा नाम श्री आदिनाथ स्तोत्र है। आचार्य श्री मानतुंग स्वामी द्वारा यह संस्कृत में रचा गया है। जिसके प्रथम श्लोक में भक्तामर शब्द आने से इस स्तोत्र का भक्तामर प्रचलित हुआ।
प्रश्न 5 : भक्तामर स्तोत्र की रचना की लघु कहानी क्या है ?
उत्तर 5 : वैसे तो इस स्तोत्र की रचना के बारे में अनेक किवदंतिया प्रचलित है। इसमें सबसे अधिक विख्यात इस प्रकार है – आचार्य श्री मानतुंग स्वामी जी को जब राज भोज द्वारा जेल में बंद करवा दिया गया था। और उस जेल की 48 सलाखे थी, जिसमे प्रत्येक सलाखों पर 48 ताले लगे हुए थे। तभी मुनिराज ने श्री आदिनाथ प्रभु की स्तुति प्रारम्भ की; और जैसे – जैसे श्लोक की रचना होती गयी। वैसे -वैसे एक के बाद एक ताले अपने आप टूटते गए।
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