Aacharya Shantisagar Chalisa | चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर जी चालीसा
Aacharya Shantisagar Chalisa ( आचार्य शान्तिसागर चालीसा ) : 20वी सदी के प्रथमाचार्य आचार्य श्री त्याग तपस्या की अप्रतिम मूर्ति थे। जिनके प्रभाव से आज हम निर्ग्रन्थ दिगंबर मुनियों के साक्षात् दर्शन लाभ ले पा रहे है। और जिनधर्म धवजा निरन्तर फैहरा रही है। नमन आचार्य श्री जी के चरणों में।
चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर जी चालीसा
-रचयित्री : पूज्य आर्यिका श्री १०५ चंदनामती माता जी
– दोहा –
सन्मति शासन को नमूं, नमूं शारदा सार।
कुन्दकुन्द आचार्य की, महिमा मन में धार।। १ ।।
इसी शुद्ध आम्नाय में, हुए कई आचार्य।
सदीं बीसवीं के प्रथम, शांतिसागराचार्य ।। २ ।।
ये चारित चक्री मुनि, गुरुओं के गुरु मान्य।
चालीसा इनका कहूं, पढ़ो सुनो धर ध्यान ।। ३ ।।
-चौपाई –
जय श्री गुरुवर शांतिसागर, मुनि मन कमल विकासि दिवाकर ।। १ ।।
इस कलियुग के मुनिपथ दर्शक, नमन करूँ गुरु चरणों में नित ।। २ ।।
शास्त्रों में मुनियों की महिमा, लोग पढ़ा करते थे गरिमा ।। ३ ।।
भूधर द्यानत की कविताएँ , कहती है उन हृदय व्यथाएं ।। ४ ।।
वे तो तरस गए दर्शन को, आगम वर्णित मुनि वंदन को ।। ५ ।।
नग्न दिगंबर चर्या दुर्लभ, थी सौं वर्ष पूर्व धरती पर ।। ६ ।।
तब दक्षिण भारत ने पाया , एक सूर्य सा तेज़ दिखाया ।। ७ ।।
भोज ग्राम का पुण्य खिला था , वहां सुगन्धित पुष्प खिला था ।। ८ ।।
सत्यवती की बगिया महकी , भीमगौंडा की खुशियां झलकी ।। ९ ।।
नाम सातगौंडा रक्खा था , बचपन से ही ज्ञानी वह था ।। १ ०।।
बाल विवाह किया बालक का , तो भी वह ब्रह्मचारीवत था ।। १ १।।
उनके मन वैराग्य समाया, जब श्री गुरु का दर्शन पाया ।। १ २ ।।
श्री देवेंद्रकीर्ति मुनिवर से, उन्नीस सौ चौदह के सन में ।। १३ ।।
क्षुल्लक दीक्षा ली उत्तुर में , श्री शांतिसागर बन चमके ।। १४ ।।
फिर उन्नीस सौ बीस में उनसे , दीक्षा ले मुनिराज बने थे ।। १५ ।।
मूलाचार ग्रन्थ को पढ़कर , मुनिचर्या बतलाई घर -घर ।। १६ ।।
समडोली की जनता ने तब , पदवी दी आचार्य बने तुम ।। १७ ।।
संघ चतुर्विध बना तुम्हारा, जैनधर्म का बजा नगाड़ा ।। १८ ।।
दक्षिण से उत्तर भारत तक , कर विहार फैलाया था यश ।। १ ९।।
अंग्रेजों के शासन में तुम, पहुचें इन्द्रप्रस्थ में ले संघ ।। २० ।।
उनको गुरु का दर्श मिला था , जैन दिगंबर पंथ खुला था ।। २१ ।।
धवल ग्रन्थ उद्धार कराया , नया प्रकाशन था करवाया ।। २२ ।।
पैतींस वर्ष के मुनि जीवन में , साढ़े पच्चीस वर्ष तक तुमने ।। २३ ।।
उपवासों में समय बिताया , परम तपस्वी थी तुम काया ।। २४ ।।
सर्प ने तन पर क्रीड़ा कर ली , विष न चढ़ा पाया विषधर भी ।। २५ ।।
ली उत्कृष्ट समाधि तुमने , कुंथलगिरि पर सन पचपन में ।। २६ ।।
भादों शुक्ला दुतिया तिथि में , करी समाधि प्रभु सन्निधि में ।। २७ ।।
पुनः वीरसागर मुनिवर ने , गुरु आज्ञा अनुसार शिष्य ने ।। २८ ।।
प्रथम पट्ट सूरी पद पाया , कुशल चतुर्विध संघ चलाया ।। २९ ।।
सन उन्नीस सौ सत्तावन में , शिवसागर आचार्य बने थे ।। ३० ।।
इसके बाद तृतीय पट्ट पर, था दिन सन उन्नीस सौ उनहत्तर ।। ३१ ।।
धर्मसिन्धु आचार्य प्रवर बन , किया संघ का शुभ संचालन ।। ३२ ।।
सन उन्नीस सौ सत्तासी में , चौथे सूरी अजित सिंधु ने ।। ३३ ।।
परम्परा क्रम में पद पाया , छत्तीस गुण को था अपनाया ।। ३४ ।।
नब्बे सन में पंचम पदवी , श्री श्रेयांशसिंधु मुनि को दी ।। ३५ ।।
सन उन्नीस सौ बानवे से फिर , बने सूरी अभिन्दनसागर ।। ३६ ।।
संघ चलाते सक्षमता से , शिष्यों के प्रति वत्सलता से ।। ३७ ।।
श्री चारित्र चक्रवर्ती की , परम्परा के छठे पुष्प थे ।। ३८ ।।
बढ़ा रहे निज गुरु की महिमा , दिन – दिन बढ़ती संघ मधुरिमा ।। ३९ ।।
चलता रहे यही क्रम उत्तम , निष्कलंक परमेष्ठी सूरी बन ।। ४० ।।
-दोहा –
नमन शांतिसागर गुरु , नमन ज्ञानमती मात।
उनकी शिष्या चंदना-मति रचित यह पाठ।।
वीर संवत पच्चीस सौ , बाइस शुभ तिथि जान।
श्रावण कृष्णा अष्टमी , पूरण गुरु गुणगान।।
गुरुमणि माला परम्परा , का हो जग में वास।
वीरांगज मुनि तक रहे, यह निर्दोष प्रकाश।।
।। महामुनि आचार्य श्री शान्तिसागर जी चालीसा सम्पूर्णम (Aacharya Shantisagar Chalisa) ।।
- Aacharya Shantisagar Chalisa आप अधिक से अधिक शेयर करके जैन धर्म के प्रचार -प्रसार में अपना अमूल्य योगदान प्रदान करे।
ये भी पढ़े :