अवधपुरी में जन्मे श्री अभिनन्दन नाथ भगवान चालीसा | Abhinandannath ji Chalisa

1008 कलशों से जिनका अभिषेक स्वयं इंद्र ने कर उनका अभिनन्दन किया हो। ऐसे श्री अभिनन्दन नाथ भगवान चालीसा ( Abhinandannath ji Chalisa ) हम सबका कल्याण करे।  ऐसी मंगल भावना।

अवधपुरी में जन्मे श्री अभिनन्दन नाथ भगवान चालीसा | Abhinandannath ji Chalisa

ऋषभ–अजित–सम्भव अभिनन्दन, दया करे सब पर दुखभंजन

जनम–मरन के टुटे बन्धन, मन मन्दिर तिष्ठें अभिनन्दन ।।

 

अयोध्या नगरी अती सुंदर, करते राज्य भूपति संवर ।।

सिद्धार्था उनकी महारानी, सूंदरता में थी लासानी ।।

 

रानी ने देखे शुभ सपने, बरसे रतन महल के अंगने ।।

मुख में देखा हस्ति समाता, कहलाई तीर्थंकर माता ।।

 

जननी उदर प्रभु अवतारे, स्वर्गो से आए सुर सारे ।।

मात पिता की पूजा करते, गर्भ कल्याणक उत्सव करते ।।

 

द्धादशी माघ शुक्ला की आई, जन्मे अभिनन्दन जिनराई ।।

देवो के भी आसन काँपे, शिशु को ले कर गए मेरू पे ।।

 

न्हवन किया शत–आठ कलश से, अभिनन्दन कहा प्रेम भाव से ।।

सूर्य समान प्रभु तेजस्वी, हुए जगत में महायशस्वी ।।

 

बोले हित–मित वचन सुबोध, वाणी में नही कही विरोध ।।

यौवन से जब हुए विभूषित, राज्यश्री को किया सुशोभित ।।

 

साढे तीन सौ धनुष प्रमान, उन्नत प्रभु–तन शोभावान ।।

परणाई कन्याएँ अनेक, लेकिन छोडा नही विवेक ।।

 

नित प्रती नूतन भोग भोगते, जल में भिन्न कमल सम रहते ।।

इक दिन देखे मेघ अम्बर में, मेघ महल बनते पल भर में ।।

 

हुए विलीन पवन चलने से, उदासीन हो गए जगत से ।।

राजपाट निज सुत को सौंपा, मन में समता–वृक्ष को रोपा ।।

 

गए उग्र नामक उध्य़ान, दीक्षीत हुए वहाँ गुणखान ।।

शुक्ला द्धादशी थी माघ मास, दो दिन का धारा उपवास ।।

 

तीसरे दिन फिर किया विहार, इन्द्रदत नृपने दिया आहार ।।

वर्ष अठारह किया घोर तप, सहे शीत–वर्षा और आतप ।।

 

एक दिन असन वृक्ष के नीचे, ध्यान वृष्टि से आतम सींचे ।।

उदय हुआ केवल दिनकर का, लोका लोक ज्ञान में झलका ।।

 

हुई तब समोशरण की रचना, खिरी प्रभु की दिव्य देशना ।।

जीवाजीव और धर्माधर्म, आकाश–काल षटद्रव्य मर्म ।।

 

जीव द्रव्य ही सारभूत है, स्वयंसिद्ध ही परमपूत है ।।

रूप तीन लोक–समझाया, ऊध्र्व–मध्य–अधोलोक बताया ।।

 

नीचे नरक बताए सात, भुगते पापी अपने पाप ।।

ऊपर सोलह स्वर्ग सुजान, चतुर्निकाय देव विमान ।।

 

मध्य लोक में द्धीप असँख्य, ढाई द्धीप में जायें भव्य ।।

भटको को सन्मार्ग दिखाया, भव्यो को भव–पार लगाया ।।

 

पहुँचे गढ़ सम्मेद अन्त में, प्रतिमा योग धरा एकान्त में ।।

शुक्लध्यान में लीन हुए तब, कर्म प्रकृती क्षीण हुई सब ।।

 

वैसाख शुक्ला षष्ठी पुण्यवान, प्रातः प्रभु का हुआ निर्वाण ।।

मोक्ष कल्याणक करें सुर आकर, आनन्दकूट पूजें हर्षाकर ।।

 

चालीसा श्रीजिन अभिनन्दन, दूर करे सबके भवक्रन्दन ।।

स्वामी तुम हो पापनिकन्दन, अरुणा करती शतशत वंदन ।।


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